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रेलमंत्री पर भारी पड़ा बजट

by
Mar 17, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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सम्पादकीय

दिंनाक: 17 Mar 2012 18:35:14

सम्पादकीय

साधु पुरुष की थोड़ी भी सम्पत्ति दूसरों के काम आती है, किन्तु दुष्ट की विपुल सम्पत्ति भी किसी के काम नहीं आती।

-हरिभट्ट (वल्लभदेव कृत सुभाषितावलि, 235)

संप्रग सरकार के पिछले 8 सालों के लोकलुभावन रेल बजट की छाया से निकलकर रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने जो “मजबूत” बजट पेश किया, उसकी मार बढ़े हुए किराए के रूप में देशवासी तो बाद में झेलेंगे, वैसे भी यह माना जा रहा था कि विधानसभा चुनावों के बाद रेल और आम बजट में सरकार जनता को दबोचेगी, लेकिन रेलमंत्री के लिए तो मानो सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए और उनकी पार्टी की सुप्रीमो ममता बनर्जी रेल किराया वृद्धि से इतनी कुपित हो गईं कि उन्होंने त्रिवेदी को रेलमंत्री पद से हटाने का ऐलान कर तृणमूल कोटे से नए रेलमंत्री के रूप में मुकुल राय का नाम प्रस्तावित कर दिया। इससे रेल बजट घाटे का या मुनाफे का, जनता के लिए राहत भरा या कड़ा, जैसी समीक्षाओं की बजाय रेलमंत्री पर टूटी आफत और संप्रग सरकार की बेचारगी तथा ममता बनर्जी की दबाव की राजनीति की चर्चा सुर्खियों में है। इससे एक  बार फिर यह साबित हो गया कि संप्रग में बिखराव किस कदर है और प्रधानमंत्री बेहद असहाय, जिन्हें घटक दल जब चाहे आंखें दिखाते रहें और उनकी घिग्गी बंध जाए। ऐसा कमजोर प्रधानमंत्री और देश का नेतृत्व कर रही उसकी सरकार देश का क्या भला कर पाएंगे? ममता बनर्जी रेलमंत्री रहते पश्चिम बंगाल में अपनी स्थानीय राजनीति करती रहीं और कोलकाता में बैठकर रेलवे को अपने हाल पर छोड़ दिया, जबकि आए दिन होने वाले बड़े-बड़े हादसों ने देशवासियों के मन में रेलयात्रा को लेकर आशंकाओं और डर का दैत्य खड़ा कर दिया। ममता बनर्जी रेल मंत्रालय के कामकाज को लेकर कितनी उदासीन थीं, यह इसी से पता चलता है कि पिछले बजट में उन्होंने जिन नई ट्रेनों की घोषणा की थी, उनमें से अधिकांश पटरी पर ही नहीं दौड़ पाईं यानी घोषणाएं केवल हवाबाजी साबित हुईं। “डबल डेकर” ट्रेनों का उनका ऐलान न जाने कहां धूल फांक रहा है? यही हाल “सुपर एसी क्लास” की घोषणा का है। यानी रेलवे को लेकर लोकलुभावन राजनीति और देश की जनता का भावनात्मक शोषण संप्रग सरकार के रेलमंत्रियों का शगल रहा है। लालू यादव ने तो इस मामले में सारी सीमाएं ही लांघ दी थीं और जब उनका प्रबंधन गुब्बारा फूटा तो रेल धड़ाम से धरती पर आ गिरी।

दरअसल राजनीति की सबसे ज्यादा शिकार रही है भारतीय रेल। अधिकांश नेता रेलमंत्री बनने के बाद अपनी क्षेत्रीय राजनीति परवान चढ़ाने के लिए ही रेलवे का दोहन करते रहे और भारतीय रेल सिसकती रही। इस बार तो प्रधानमंत्री ने रेलवे को ममता बनर्जी की धरोहर बनाकर छोड़ दिया और आश्चर्य है कि इतना महत्वपूर्ण विभाग, देश की अधिकांश जनता जिस पर निर्भर है, वह एक व्यक्ति की मर्जी का गुलाम बना दिया गया और गठबंधन की मजबूरी के कारण प्रधानमंत्री हाथ पर हाथ धरे चुपचाप बेबस देखते रहे। कुछ दिन पूर्व इन्हीं रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में यह कहकर रेलवे की दुर्दशा पर चोट की थी कि रेलवे को यदि समस्याओं से निजात दिलानी है तो उसे राजनीति से दूर रखकर पेशेवर ढंग से चलाना होगा। शायद यही कोशिश दिनेश त्रिवेदी के लिए भारी पड़ गई। हालांकि पहले ही महंगाई की मार झेल रही जनता पर रेल किराए में अप्रत्याशित वृद्धि से और बोझ बढ़ेगा। लेकिन सुविधाओं व सुरक्षा की दृष्टि से यदि रेलवे में कोई गुणात्मक परिवर्तन आता है तो शायद जनता भी कसमसाकर इस बोझ को सहने को तैयार हो सकती है। रेलवे की खस्ता हालत किसी से छिपी नहीं है, यह भी लोकलुभावन घोषणाओं और संप्रग सरकार की गलत नीतियों का ही दुष्परिणाम है। दोषपूर्ण खानपान व्यवस्था हो या ट्रेनों का विलम्ब से चलना, कोहरे के दौरान तो जैसे रेल के पहिए ही थम जाते हैं, निरंतर बढ़ते रेल हादसों से सामने आने वाली रेलवे की ध्वस्त सुरक्षा व संरक्षा की अवधारणा तो रेल यात्रियों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गई है। सुविधाओं के नाम पर यात्रियों के साथ कितनी धोखाधड़ी हो रही है, राजधानी और शताब्दी जैसी खास ट्रेनों तक में भी खानपान सेवा व अन्य सुविधाएं बेहाल हैं। पिछले बजट में यात्री सुविधाओं के लिए 700 करोड़ रु.आबंटित किए गए थे, लेकिन हालात बिल्कुल नहीं बदले। इस बार इस मद में 1000 करोड़ रु. का बजट प्रावधान रखा गया है,  परंतु यदि बदलाव नहीं दिख रहा है तो इसके लिए सरकार व रेल मंत्रालय दोषी है। ममता बनर्जी यदि इस पर गुस्सा दिखाएं तो कोई बात भी है।

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