राज्यों से
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इलाहाबाद/हरिमंगल
उत्तर प्रदेश में नई विधानसभा का गठन हो गया है। लेकिन यह जानना आश्चर्यजनक होगा कि विधानसभा में पहुंचते ही कैसे विधायकों की माली हालत को पर लग जाते हैं। महज पांच वर्ष में लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बन जाना आम आदमी के लिए किसी स्वप्न-सा हो सकता है, लेकिन विधायकों के लिए यह बहुत कठिन नहीं है। और अगर मंत्री या मुख्यमंत्री बन गए तो कहने ही क्या! हाल ही में सत्ता से बेदखल हुईं मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की सम्पत्ति में तेजी से हुई तरक्की का आंकड़ा देखेंगे तो दांतों तले अंगुली चबाने को मजबूर हो जाएंगे। मात्र 8 साल में मायावती की हैसियत 11 करोड़ रुपए से बढ़कर 111 करोड़ रुपए हो गयी है। यह आंकड़ा किसी अनुमान पर आधारित नहीं है बल्कि सुश्री मायावती द्वारा सन् 2004 में राज्यसभा और अब 2012 में राज्यसभा के लिए नामांकन पत्र भरते समय उनके द्वारा दाखिल किए गए शपथपत्र पर आधारित है। सन् 2004 में सुश्री मायावती के पास लखनऊ में अपना नहीं, सरकारी आवास था। दिल्ली में एक मकान था जिसकी कीमत उस समय 1 करोड़ 75 लाख रु. आंकी गई थी। पर अब सुश्री मायावती दिल्ली और लखनऊ में 4-4 भव्य भवनों की स्वामिनी बन गई हैं, जिसकी कीमत 96 करोड़ रु. से ज्यादा है। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस, जहां बड़े से बड़ा उद्योगपति भी मकान खरीदने का सपना ही देखता रह जाता है, में मायावती के दो फ्लैट हैं, जिनकी कीमत 19 करोड़ रु. बताई गई है। (हालांकि यह वास्तविक कीमत की आधी भी नहीं है) लखनऊ का सरकारी आवास 9, माल एवेन्यू अब उनका निजी मकान हो गया है, जिसकी कीमत 15 करोड़ रुपए आंकी गई है। मायावती का “बैंक बैलेस” भी बढ़ा, गहने भी बढ़े और हीरा, पन्ना और सोना…. सब कुछ बढ़ा। और यह सब कुछ घोषित तौर पर, जिसे छिपाया नहीं जा सकता था। अघोषित तौर पर हुई “कमाई” के बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। बताते हैं कि जे.पी. समूह और शराब व्यवसायी पोंटी चढ्ढा के धंधों में तो उनका अघोषित धन लगा ही है, उनके भाई ग्रेटर नोएडा में जमीन आवंटित कराकर बड़े भवन निर्माताओं की श्रेणी में शामिल हो गए हैं।
जब मुख्यमंत्री इतनी तेजी से तरक्की कर रही हों तो मंत्री और विधायक पीछे कहां रहते। इलाहाबाद शहर के दक्षिणी क्षेत्र से पहली बार विधायक बने व्यापारी नंद गोपाल गुप्ता उपाख्य “नंदी” बसपा सरकार में मंत्री थे। उनके शपथ पत्र के अनुसार उनकी समस्त चल-अचल सम्पत्तियों का मूल्य है 95.25 करोड़ रुपये यानी एक अरब रुपए से मात्र 4.75 करोड़ कम है। इसमें नंदी के पास 35.19 करोड़ रु. तथा उनकी पत्नी के पास 60.06 करोड़ रु. की सम्पत्ति हैं। विधानसभा चुनाव से पूर्व दिए गए अपने शपथ पत्र में नंदी ने अपनी पत्नी के नाम 8.11 करोड़ रुपये के भूखंड और मकान दर्शाए हैं। उसमें मिरजापुर में तीन, इलाहाबाद में तीन तथा देहरादून में एक भूखंड/भवन, पिछले साढ़े चार वर्ष के अंदर खरीदे गये हैं, यानी विधायक बनने के बाद कुल 2.61 करोड़ रु. में खरीदी गयी इन सम्पत्तियों का बाजार मूल्य 6.20 करोड़ रु. आंका गया है। नंदी की पत्नी के पास जो आभूषण हैं उनका मूल्य 21.25 लाख रु. है जबकि 2007 में उनके पास मात्र 8 लाख रुपये के ही आभूषण थे। नंदी की पत्नी के पास पांच महंगी कारें तथा दो मोटर साइकिल हैं। इनमें एक करोड़ चालीस लाख रु. की दो बी.एम.डब्ल्यू कारें वर्ष 2007 के बाद खरीदी गयीं जबकि 2007 में तीन फोर्ड इंडीवर कारें थी, जिनका मूल्य पैंतालीस लाख रुपये था। इसके अतिरिक्त नंदी की पत्नी के पास एक लाख तीन हजार रु. नगद तथा इन सबकी सुरक्षा के लिए एक रायफल, एक पिस्टल व एक बंदूक है। कुल मिलाकर नंदी की पत्नी के पास 51 करोड़ 95 लाख रु. की चल सम्पत्ति तथा आठ करोड़ ग्यारह लाख रु. की अचल सम्पत्ति है।
सम्पत्ति के मामले में नंदी पत्नी से कुछ पीछे हैं। 2007 के शपथ पत्र में इस दम्पत्ति के पास कुल 24 करोड़ रु. की सम्पत्ति थी। जबकि इस बार के शपथ पत्र में नंदी ने नगर के औद्योगिक क्षेत्र नैनी में दो तथा जौनपुर जनपद में एक प्लाट दिखाया है। इसमें नैनी तथा जौनपुर के एक-एक प्लाट की कीमत नहीं बतायी है। जबकि नैनी के दूसरे प्लाट की कीमत 20 लाख रु. दिखायी गयी है। जनपद के फूलपुर में पत्नी के साथ संयुक्त रूप से खरीदी गयी जमीन में नंदी का हिस्सा 1.10 करोड़ रु. है तो उनकी पत्नी का हिस्सा 90 लाख का है। विधायक और फिर मंत्री बने नंदी ने 70 लाख रु. की एक बी. एम. डब्ल्यू. तथा पच्चीस लाख रु. की वोलस वेगन कार खरीदी, जबकि 2007 में उनके पास दो टाटा सफारी, एक टाटा 407 तथा एक मोटर साइकिल थी। हथियारों के मामले नंदी अपनी पत्नी के बराबर यानी एक रायफल, एक पिस्टल तथा एक बंदूक के स्वामी हैं।
बसपा सरकार में ही मंत्री रहे डा.राकेश धर त्रिपाठी की सम्पत्ति में भी अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई। 2007 में डा. राकेश धर त्रिपाठी की कुल चल- अचल सम्पत्ति का मूल्य 58 लाख, 85 हजार रु. था लेकिन 2012 में उनके पास 1 करोड़ 12 लाख 56 हजार रु. से अधिक की चल-अचल सम्पत्तियां हैं। बसपा से बगावत कर चुनाव से पहले ही बाहर आ गए डा. त्रिपाठी से ज्यादा उनकी पत्नी की आय में बढ़ोतरी हुई। 2007 में “विधायक जी” के पास कुल अचल सम्पत्ति मात्र 28 लाख रु. थी जो अब 81 लाख रु. की हो गयी है। इसमें उन्होंनें 300 वर्ग मीटर का एक भूखंड खरीदा है। 2007 में उनकी पत्नी के पास 22 लाख 26 हजार रु. की कुल चल-अचल सम्पत्ति थी लेकिन आज उनकी चल-अचल सम्पत्ति एक करोड़ 82 लाख 23 हजार रु. से अधिक हो गई है।
शहर के पश्चिमी क्षेत्र से बसपा विधायक रहे राजू पाल की हत्या के बाद राजनीति में कदम रखने वाली उनकी पत्नी पूजा पाल ने तो बढ़ोतरी प्रतिशत में सबको पछाड़ दिया है। 2007 के चुनाव नामांकन के समय दिये गये शपथ पत्र में उन्होंने 25 हजार रु. नगद, एक लाख रु. का बैंक जमा, 98 हजार के आभूषण तथा सुरक्षा के लिए एक रायफल, एक रिवाल्वर तथा एक दोनाली बंदूक होना बताया था। लेकिन इस बार पूजा पाल ने इलाहाबाद, कौशाम्बी (गाजियाबाद) में कुल 92.75 लाख रु. की सम्पत्ति की खरीद बतायी है, जिसका बाजार मूल्य अब एक करोड़ रु. से अधिक है। 2007 के शपथ पत्र के अनुसार उनके पास कोई भवन या भूखंड नहीं था। विधायक बनने के बाद पूजा पाल ने 2008 में गाजियाबाद विकास प्राधिकरण से 300 वर्गमीटर का प्लाट 48 लाख रु.में खरीदा तो इलाहाबाद नगर के हंड़िया तहसील अन्तर्गत उग्रसेनपुर में सात लाख रु. का भूखंड खरीदा जिस पर राजू पाल के नाम पर महाविद्यालय बन रहा है। आज इन भूखंडों का बाजार मूल्य 58 लाख रुपये हो गया है। विधायक बनने के बाद ही नगर के सलेम सराय तथा कटघर में क्रमश: 23.50 लाख रु. तथा 12 लाख रु. के मकान खरीदे गये, आज इनका बाजार मूल्य 39 लाख रु. है। शपथ पत्र के अनुसार यह सम्पत्ति 2008 और 2010 के बीच खरीदी गयी। यानी पहली बार विधायक बनने के बाद वे लखपति से करोड़पति बन गयीं।द
केरल/प्रदीप कुमार
अलग-थलग पड़े अच्युतानंदन
माकपा में गुटबाजी और वाममोर्चे में दरार
कम्युनिस्टों का यह कुसंस्कार रहा है कि वे अपने वरिष्ठों को, जिन्होंने वर्षों तक पार्टी के लिए जान लड़ाई, अंत समय में धक्का मारकर किनारे कर देते हैं। जिसने भी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर कुछ स्वतंत्र या उदारवादी सोच को सार्वजनिक किया, उसे “बुर्जुआ” कहकर गाली दी और उस पर हिंसक हमले भी किए। हालांकि केरल के मुख्यमंत्री रहे वयोवृद्ध कम्युनिस्ट नेता वी.एस. अत्युतानंदन के साथ ऐसा तो नहीं हो रहा है पर वे भी पार्टी में किनारे लगा दिए गए हैं। हाल ही में सम्पन्न हुई मकपा की राज्य इकाई की बैठक में पार्टी सचिव पिनरई विजयन धड़े ने अत्युतानंदन और उनके धड़े के लोगों को पूरी कार्रवाई में अलग रखा। अप्रैल माह में केरल के कोझिकोड़ में होने वाली माकपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक से पूर्व उसकी तैयारी के लिए आयोजित की गई प्रदेश कार्यसमिति की इस बैठक को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा था।
तिरुअनंतपुरम् में आयोजित इस चार दिवसीय बैठक में पिनरई विजयन को नियमों को ताक पर रखते हुए चौथी बार राज्य इकाई का सचिव चुन लिया गया। पार्टी के नए संशोधित संविधान के अनुसार किसी भी सचिव को लगातार तीन बार से अधिक कार्यकाल के लिए नहीं चुना जा सकता, पर विजयन के मामले में यह सिद्धांत धरा का धरा रह गया, क्योंकि विजयन गुट का प्रत्येक जिले व उसकी समितियों में प्रचण्ड बहुमत है। हालांकि राज्यस्तरीय यह बैठक राष्ट्रीय कांग्रेस के आयोजन के लिए बुलाई गई थी लेकिन वह अत्युतानंदन को नीचा दिखाने और विजयन के शक्ति प्रदर्शन तक ही सीमिति होकर रह गई, इससे कई वरिष्ठ नेता नाखुश हैं, पर उनकी सुनने वाला कोई नहीं।
केरल माकपा में गुटबाजी इतनी चरम पर है कि अपनी वार्षिक रपट में राज्य सचिव विजयन ने पूर्व मुख्यमंत्री अत्युतानंदन पर बहुत तीखे और व्यक्तिगत हमले भी किए थे, जिसे पोलित ब्यूरो ने प्रस्तुत करने से रोक दिया। एस.एन.सी. लावलीन मामले में 7वें आरोपी के रूप में विजयन का नाम सी.बी.आई. द्वारा जोड़े जाने के लिए भी वे अत्युतानंदन को ही दोषी मानते हैं। यहां तक कि अधिकांश पार्टी सदस्य बैठक में अच्युतानंदन पर “विश्वासघाती” का तमगा भी लगा रहे थे। इससे पूर्व जब भी गुटबाजी के कारण अच्युतानंदन कमजोर हुए, पोलित ब्यूरो ने उनका बचाव किया। पर लगता है कि इस बार विजयन गुट ज्यादा प्रभावशाली हो गया है और वृद्ध हो चले अच्युतानंदन के पार्टी में दिन अब लद गए हैं।
उधर माकपा की इसलिए भी निंदा हो रही है कि उसने राज्यस्तरीय इस बैठक को आयोजित करने का जिम्मा एक “इवेंट मैंनेजमेंट कम्पनी” को दिया था। यह आरोप किसी और ने नहीं बल्कि वाममोर्चे के बड़े घटक दल भाकपा के राज्य सचिव सी.के. चंद्रप्पन ने लगाया है और कहा है कि माकपा अब “कारपोरेट” होती जा रही है, पार्टी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि बैठक की व्यवस्था किसी “मैंनेजमेंट कम्पनी” को दी गई। हालांकि इस आरोप से भड़के विजयन ने इसे बेबुनियाद बताया और चंद्रप्पन पर तीखे कटाक्ष किए, लेकिन माकपा के महासचिव ए.बी. बर्धन ने साफ कर दिया है कि चंद्रप्पन का बयान उनका व्यक्तिगत मत नहीं, पार्टी का मत है। यानी माकपा में आतंरिक गुटबाजी तो है ही, वाममोर्चे में भी दरार है।
मणिपुर
मणिपुर में कांग्रेस के इबोबी सिंह फिर बने मुख्यमंत्री
क्षेत्रीय अखंडता के नाम पर जीत
द जगदम्बा मल्ल
मणिपुर में कांग्रेस ने ओकरम इबोबी सिंह के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार सरकार बनाई है। पिछले 10 साल के कार्यकाल में इबोबी सिंह ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जनता ने उन्हें कार्य के आधार पर फिर चुना है। मणिपुर विकास के मामले में पूर्वोत्तर के अन्य प्रान्तों से काफी पीछे है। केन्द्र सरकार की ज्यादातर योजनाएं लागू ही नहीं हो पायीं किन्तु धन तो खत्म हो गया। चारों तरफ घोटाला ही घोटाला। कानून व्यवस्था इतनी जर्जर हो गई मानो कोई सरकार है ही नहीं। आतंकवादियों की समानान्तर सरकार चल रही थी। इन सबके बावजूद इबोबी सिंह पर जनता ने विश्वास क्यों प्रकट किया? इसको जानने के लिए मणिपुर के हालात पर गौर करना होगा। मणिपुर का सामाजिक परिदृश्य विचित्र है। वहां एन.एस.सी.एन. (आमु) ने राज्य के विभाजन का खतरा पैदा कर रखा है। इसलिए इस चुनाव में विकास से ज्यादा बड़ा मुद्दा क्षेत्रीय अखण्डता रही। राज्य के नागा बहुल 4 पहाड़ी जिलों- सेनापति, तमेंगलांग, चन्देल व उखरुल के अन्य जनजातिय समुदायों के अलावा दो तिहाई नागा आबादी भी मणिपुर का राजनीतिक नक्शा बदलने के लिए तैयार नहीं है, जबकि एनपीएफ, एएससीएन (आमु) तथा यूनाइटेड नागा कौंसिल (यूएनसी) एवं चर्च उक्त चारों पहाड़ी जिलों को बृहत्तर नागालैण्ड में शामिल करने के लिए समय-समय पर आन्दोलन करते रहे हैं। इस उद्देश्य को पूरा करने हेतु मणिपुर विधानसभा में राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए इस चुनाव में नागालैण्ड के नागा पीपुल्स फ्रंट (एपीएफ) ने 12 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। चर्च के पादरियों तथा एनएससीएन (आमु) के गोरिल्लाओं ने उनको जिताने के लिए सभी उचित/अनुचित कार्य किए, संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया का अपहरण करने का प्रयास किया। इनको रोकने के लिए केन्द्र सरकार को 42,000 सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ा। इससे मणिपुर घाटी तथा इन चारों पहाड़ी जिलों में नागा सहित दो तिहाई आबादी के मन में यह बात फैल गई कि यदि राज्य में स्थिर और मजबूत सरकार का गठन न हुआ और ताकतवार मुख्यमंत्री न बना तो राज्य की क्षेत्रीय अखंडता खण्डित हो जायेगी। उधर इबोबी सिंह ने मई 2011 में एनएससीएन (आमु) प्रमुख टी. मुइवा को मणिपुर की सीमा में घुसने तक नहीं दिया। और नागाओं के विरोध के बावजूद सेनापति जिले को खण्डित कर सदर हिल्स जिला बनाकर अपनी चट्टानी व शूरवीर छवि बना ली। मुइवा प्रायोजित यूनाइटेड नागा कौंसिल ने राजपथ 39 (गुवाहाटी, दीमापुर, इम्फाल) तथा राजपथ 53 (गुवाहाटी-सिल्चर-इम्फाल) पर 120 दिन लंबी नाकेबंदी की किन्तु इबोबी सिंह टस-से-मस नहीं हुए। उन्होंने मणिपुरी समाज को मणिपुर की अखंडता की रक्षा के लिए सब प्रकार का कष्ट सहने व बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने हेतु आह्वान किया। इस विपत्ति काल में भाजपा सहित सभी विपक्षी दलों का कहीं अता-पता नहीं था। मणिपुर विधानसभा में भाजपा का न तो कोई विधायक था, न इस बार है। सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 को हटाने से साफ इनकार करते हुए इबोबी सिंह ने कहा कि राज्य में शांति स्थापित हो जाने तथा कानून व्यवस्था सामान्य हो जाने के बाद ही सेना हटा ली जायेगी। इबोबी सिंह ने आतंकवादियों व चर्च का मुखौटा बनी इरोम शर्मिला को भी कोई महत्व नहीं दिया।
इस परिवेश में दो तिहाई नागाओं सहित सभी मणिपुरियों को लगा कि इबोबी सिंह के नेतृत्व में प्रदेश कांग्रेस ही मणिपुर की अखंडता की रक्षा कर पायेगी। मतदाताओं को यह भी लगा कि मुइवा के दबाव को रोकने के लिए राज्य में एक स्थिर सरकार का होना जरूरी है वह भी किसी ताकतवर दल का। मतदाताओं ने इस उथल-पुथल के वातावरण में ओकरम इबोबी सिंह को अजेय पाया।
मणिपुर पीपुल्स पार्टी मुख्य विपक्षी दल है किन्तु इसका जनाधार खत्म हो गया है। गत पांच वर्षों तक चुप रहे पांच मुख्य विपक्षी दलों ने चुनाव घोषित होने के बाद साझा गठबंधन बनाया था। मतदाताओं को यह सत्ता पाने के लिए एक अवसरवादी प्रयास लगा। मतदाताओं को यह भी लगा कि खण्ड-खण्ड बंटे विपक्षी दल यदि सरकार बना भी लें तो गठबंधन का मुख्यमंत्री एकदम कमजोर होगा और साहसिक फैसला नहीं ले पायेगा। ऐसे में बृहत्तर नागालैण्ड की मांग कर रहा एनएससीएन (आमु) सरकार पर दबाव बढ़ा सकता है। इबोबी ने मणिपुर की क्षेत्रीय अखण्डता बचाने के लिए अपने दावे को बार-बार प्रचारित किया। यही कारण है कि मणिपुरियों ने इबोबी को पूर्ण समर्थन दिया। इसके अलावा राज्य की राजनीति, प्रशासन तथा व्यापार में अनेक नागाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। उन नागाओं ने अन्य नागाओं में यह विश्वास पैदा किया कि उनका भविष्य मणिुपर में ही सुरक्षित है। इस प्रकार इबोबी सिंह ने दो तिहाई नागाओं को अपने साथ ले लिया। यही वजह है कि नागा पीपुल्स पार्टी केवल 4 सीटें जीत पाई, जबकि नागा बहुत पर्वतीय अंचल में इबोबी सिंह को 14 सीटें मिलीं।
मणिपुर के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला हो। इस चुनाव में कांग्रेस को 42 (वर्ष 2007 में 30), तृणमूल कांग्रेस को 7, मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी को 5, एनपीएफ को 4 व निर्दलीय को 1 सीट मिली है।द
उड़ीसा/ पंचानन अग्रवाल
बांधों से लाभ कम हानि अधिक
-डा. भरत झुनझुनवाला सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री
“बांधों का निर्माण मुख्यत: बाढ़ नियंत्रण, बिजली उत्पादन एवं सिंचाई के उद्देश्य से किया जाता है। किन्तु हीराकुंड सहित अधिकांश बांधों में फिलहाल मिट्टी एवं रेत जमा हो गया है। इससे उनकी जल धारण क्षमता में कमी आ रही है, इस कारण बाढ़ की समस्या गंभीर होती जा रही है। बांधों में आखिर तक वर्षा जल को जमा किया जाता है एवं अंतिम समय में छोड़ा जाता है। इसके चलते बाढ़ आ रही है।” यह कहना है वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं शिक्षाविद् डा. भरत झुनझुनवाला का। वे पश्चिम उड़ीसा विचार मंच द्वारा “नदी प्रवाह एवं पनबिजली अर्थनीति” विषय पर गत दिनों आयोजित एक कार्याशाला को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि बांधों से सिंचाई की जो सुविधा मिल रही है वह काफी सीमित है। आवश्यकतानुसार बिजली उत्पादन करने में भी पनबिजली परियोजनाएं नाकाफी हैं। पनबिजली का लाभ मुख्यत: बड़े शहरों एवं उद्योगों को ही मिल रहा है, पर इसका बोझ पूरी जनता पर पड़ता है। बांधों के कारण नदी प्रवाह ठीक ढंग से न होने से पर्यावरण को भी खतरा बढ़ रहा है। मलेरिया जैसे बीमारी फैल रही है। नदी प्रवाह रोके जाने के कारण प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है, इसके अलावा पानी की गुणवत्ता में भी कमी आ रही है। जंगलों का संतुलन भी बिगड़ रहा है। उन्होंने कहा कि हीराकुंड बांध को 55 साल पूरे हो चुके हैं। इसलिए इस बांध की सुरक्षा एवं आवश्यकता पर चिंतन करने का समय आ चुका है। इस कार्यशाला की अध्यक्षता सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.पी. महापात्र ने की। द
महाराष्ट्र/ द.वा.आंबुलकर
बेटे को “हीरो” बनाने के लिए मुख्यमंत्री पिता ने लुटाई सरकारी जमीन
न्यायालय ने फटकारा और जमीन वापस ली
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में केन्द्रीय मंत्री विलासराव देशमुख की कारगुजारियां लगातार सामने आती जा रही हैं। हाल ही में मुम्बई उच्च न्यायालय के एक निर्णय ने स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपने पुत्र रितेश देशमुख को “हीरो” बनाने के लिए राज्य सरकार की जमीन कैसे कौड़ियों के भाव फिल्म निर्माताओं को बांटते घूम रहे थे। ऐसे ही एक मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय ने न केवल फिल्म निर्माता सुभाष घई को गोरेगांव में दी गई जमीन वापस करने के निर्देश दिए बल्कि 4.5 करोड़ रु. प्रतिवर्ष की दर से उस भूमि के प्रयोग का हर्जाना देने का भी निर्णय सुनाया है। इसके साथ ही तत्कालीन मुख्यमंत्री के विरुद्ध तीखी टिप्पणी भी की है।
मामला 1990 का है जब विलासराव देशमुख महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और उनके पुत्र रितेश देशमुख को फिल्मी कलाकार बनने की धुन सवार थी। अपने पुत्र की इच्छापूर्ति के लिए मुख्यमंत्री पिता ने पद का दुरुपयोग करते हुए मुम्बई के उपनगर गोरेगांव में स्थित सरकारी जमीन में से 20 एकड़ जमीन फिल्म निर्माता सुभाष घई की संस्था “विसलिंग मूड्स” को फिल्म इंस्टीट्यूट बनाने के लिए आवंटित कर दी। इसके लिए सुभाष धई की फिल्म कंपनी “मुक्ता आर्ट्स” और महाराष्ट्र फिल्म, नाटक तथा सांस्कृतिक विकास निगम के बीच 30 मई, 2000 को हुए जमीन स्थानांतरण पत्र पर स्वयं मुख्यमंत्री ने हस्ताक्षर किए। उस समय इस जमीन का बाजार भाव 31 करोड़ रु. आंका गया और घई ने चुकाए सिर्फ 3 करोड़ रु.।
इस मनमानी और बेईमानी के विरुद्ध राजेन्द्र सोनटवके व अन्य 4 लोगों ने मुम्बई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। लम्बी सुनवाई और सारे कागजातों की जांच के बाद न्यायालय ने पाया कि घई को भूमि आवंटन के मामले में अनियमितता बरती गई और राज्य के खजाने को चूना लगाया गया। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मोहित साहा एवं न्यायमूर्ति गिरीश गोडबोले ने अपने विस्तृत निर्णय में कहा कि भूमि हस्तांतरण का यह मामला सरकारी स्तर पर स्पष्टता एवं जिम्मेदारी की पारदर्शिता के उंल्लंघन की एक मिसाल है। यह पूरी प्रक्रिया ही गैरकानूनी थी और दु:खद यह है कि सभी पक्षों को पता था कि यह गैरकानूनी है, फिर भी उन्होंने ऐसा किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस हस्तांतरण पत्र पर हस्ताक्षर कर न केवल गैरकानूनी कृत्य किया बल्कि अपने पद का भी दुरुपयोग किया। इसी के साथ न्यायालय ने सुभाष घई की संस्था “विसलिंग मूड्स” को निर्देश दिया कि वह उसे आवंटित की गई 14.5 एकड़ भूमि तुरंत खाली कर राज्य सरकार को लौटाए। शेष 5.5 एकड़ भूमि, जो फिल्म इंस्टीट्यूट को आवंटित की गई थी, भी 30 जुलाई, 2014 तक खाली कर राज्य सरकार को वापस दी जाए। और इस बीच सन् 2000 से अब तक प्रतिवर्ष 4.5 करोड़ रु. की दर से भूमि प्रयोग का शुल्क भी राजकोष में जमा कराए।
इस निर्णय से मुंह की खाने के बाद केन्द्रीय मंत्री विलासराव देशमुख का मुंह बंद है। महाराष्ट्र के दो बार मुख्यमंत्री रहे देशमुख फिल्म इंडस्ट्री के कारण दो बार काफी बदनामी झेल चुके हैं। इससे पहले मुम्बई में पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के बाद मुख्यमंत्री रहते जब देशमुख ताज होटल का दौरा करने गए तो अपने साथ फिल्म निर्माता राम गोपाल वर्मा को भी ले गए। शायद उनका इरादा “हादसे की जीवंत कहानी” रामगोपाल वर्मा को उपलब्ध कराना था, जिस पर वे फिल्म बनाते और उनका पुत्र बनता हीरो। पर इस कोशिश पर मीडिया और समाज की तीखी प्रतिक्रिया के बाद उन्हें अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था।द
माकपा में आतंरिक गुटबाजी तो है ही, वाममोर्चे में भी दरार है।
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