चर्चा सत्र
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चर्चा सत्र
मोटर वाहन अधिनियम पारित तो होगा
द लक्ष्मीकांता चावला
अपने देश में बहुत कम नागरिक यह जानते होंगे कि भारत में प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले अभागे लोगों की संख्या एक लाख चालीस हजार के लगभग है। सड़कों पर दौड़ती यह मौत बेकसूर जिंदगियों को अंधेरों में मिला देती हैं। कौन नहीं जानता कि प्रतिवर्ष लाखों लोग सड़क दुर्घटनाओं के कारण जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाते हैं। उनका परिवार न तो पूरा इलाज करवा पाने में समर्थ होता है और न ही उनके बिना आजीविका चलाने की शक्ति रखता है।
सड़क दुर्घटना के “बेचारे” शिकार
यह भी विडंबना है कि दुर्घटनाओं में मारे जाने वालों की जिंदगी का मूल्य उस वाहन के अनुसार तय किया जाता है जिसमें वह यात्रा करते हैं या जिसके दुर्घटनाग्रस्त होने पर उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता है। वायु यान से उड़ते समय अगर दुर्घटना हो जाए तो सरकार मृतकों के परिवारों को प्रति परिवार कई लाख रु. से ज्यादा ही सहायता देती है और रेलगाड़ी में ऐसी अभागी घटना हो जाए तब भी हजारों से लाखों रुपए तक मृतक के परिवार की सहायता के लिए मिल जाते हैं। पर बस, कार या स्कूटर आदि वाहनों के चालक या उनमें सफर करने वाले किसी सड़क दुर्घटना का शिकार हो जाएं तो उनके लिए राहत राशि पाने का कोई नियम नहीं, वे मुकदमा लड़ें, लंबे समय तक कानूनी संघर्ष करें, तब कहीं जीतने के बाद उनके परिवारों को कोई आर्थिक सहायता मिलती है। घायलों के लिए तो कुछ मिलेगा, इसकी भी गारंटी नहीं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सड़कों पर करोड़ों रुपयों के वाहन प्रतिवर्ष क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। यह राष्ट्रीय संपदा की प्रत्यक्ष हानि है।
देश के दुश्मनों के हाथों अथवा आतंकवादियों के हाथों शहीद होने वालों के लिए केन्द्र सरकार से लेकर प्रांतों तक की सरकारें मदद की घोषणाएं करती हैं, पर सड़कों पर दौड़ती मौत का शिकार होने वालों के प्रति कोई गंभीर नहीं दिखता। इसे दुर्भाग्य कहें या “वीआईपी” संस्कृति का दुष्परिणाम कि कानून बनाने और उन्हें लागू करवाने का दायित्व पाए अधिकतर लोग यातायात के नियमों को तोड़ते हैं। वे उसके लिए शर्मिंदा होना तो दूर की बात, इसे अपने बड़प्पन की निशानी मानते हैं। पिछले वर्ष पंजाब के पुलिस महानिदेशक का ध्यान जब वीआईपी लोगों द्वारा नियम तोड़ने की ओर दिलाया गया तो उनका सीधा उत्तर था कि यह तो उनका विशेषाधिकार है। पर बार-बार पूछने पर भी अधिकारी यह नहीं बता पाए कि भारतीय संविधान की कौन सी धारा अथवा देश का कौन सा कानून अति विशिष्ट लोगों को सड़क नियमों की धज्जियां उड़ाने का अधिकार दे देता है?
जुर्माना तो ठीक है, पर…
पिछले दिनों प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्री परिषद की बैठक में मोटर वाहन अधिनियम में संशोधन किया गया। आशा है कि संसद के अगले सत्र में यह कानून भी बन जाएगा। इस संशोधन के अनुसार, शराब पीकर वाहन चलाने पर दो हजार रुपए से लेकर दस हजार रुपए तक का जुर्माना अथवा छह माह से लेकर चार साल तक की कैद या दोनों ही हो सकते हैं। इसी अधिनियम के अनुसार, मादक पदार्थों का सेवन कर गाड़ी चलाने पर पांच हजार से दस हजार रुपए का आर्थिक दंड और छह महीने की सजा होगी तथा अपराधी का लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा। मोबाइल फोन का प्रचलन अधिक बढ़ जाना भी अनेक दुर्घटनाओं का कारण बन रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए यह संशोधन प्रस्तावित है कि गाड़ी चलाते वक्त मोबाइल पर बात करते हुए पकड़े जाने पर पहली बार पांच सौ रुपए और उसके बाद दो हजार रुपए से पांच हजार रुपए तक का जुर्माना देना पड़ेगा। मोबाइल फोन पर कोई संदेश भेजना भी दंडनीय अपराध है। इसके अलावा “हैंड्स फ्री” का प्रयोग भी वर्जित होगा। केन्द्रीय मंत्री परिषद ने हेल्मेट पहने बिना दोपहिया वाहन चलाना तथा गाड़ी चलाते समय सीट की पेटी न लगाना भी दंडनीय अपराध माना है।
पूरी उम्मीद है कि सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले लोगों के प्रति संवेदनशीलता रखने वाले सांसद निश्चित ही इस संशोधन को संसद में पारित करवाएंगे। पर सच यह भी है कि जब यह कानून बन जाएगा तो उसका दुरुपयोग भी होगा। कौन नहीं जानता कि सड़कों पर यातायात नियंत्रित करने वाले पुलिसकर्मी बहुत से अधिकारियों तथा नेताओं के लिए आमदनी का बढ़िया स्रोत होते हैं। यह भी सच है कि यातायात पुलिस में नियुक्ति पाने के लिए राजनेताओं से सिफारिश भी करवानी पड़ती है। सब तरफ चर्चा रहती है कि जब चौक पर यातायात पुलिकर्मी ने पकड़ा तो कैसे किसी नेता का फोन या एक-दो हरे नोट छुटकारा दिलवा देते हैं। इसलिए आवश्यक है कि जिस सरकारी तंत्र को इस कानून को लागू करना है उसको व्यवहार और चरित्र का विशेष प्रशिक्षण दिया जाए। होना तो यह भी चाहिए कि किसी पुलिसकर्मी को यातायात नियंत्रण का काम सौंपने से पहले उसके चारित्रिक गुणों को परखा जाए और उच्च शिक्षित जवान सेवा में लगाए जाएं।
लाल बत्ती की हेकड़ी
पर सवाल एक और भी है कि क्या लाल बत्ती लगाकर सायरन बजाते हुए सड़कों पर दौड़ने वाले तथाकथित “वीआईपी” किसी यातायात नियम के नियंत्रण में रहेंगे? क्या वे सड़क पर संकेत देती लाल बत्ती का नियंत्रण मानेंगे अथवा अपनी गाड़ी की लाल बत्ती के बल पर सभी नियमों की धज्जियां उड़ाएंगे? प्रश्न यह भी है कि क्या हमारे यातायात नियंत्रक सिपाही को इतना सशक्त किया जाएगा कि वह बड़े से बड़े अधिकारी और जनप्रतिनिधि की गाड़ी रोक कर नियमों का उल्लंघन करने पर उसका चालान कर सके? अगर ऐसा हो जाता है तब तो इस संशोधन का बहुत लाभ होगा अन्यथा वही ढाक के तीन पात… जिनकी कोई सिफारिश नहीं, सारे अर्थ दंड भी उन्हें ही भरने पड़ेंगे और जेलों में भी वही जाएंगे। आज हालत तो यह है कि लोकतंत्र में लोग पांच वर्ष बाद एक बार बोलते हैं, पर उनके वोटों से जो “सरकार” बन जाते हैं, वे साल दर साल मनमानी करते हैं। यूं कहिए कि लोकतंत्र में लोक मौन है, तंत्र हावी हो गया है। अगर हर चौक-चौराहे पर जनता एक स्वर से यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों को घेर कर उन्हें नियमानुसार चलने का पाठ देने लग जाए तो सभी जन इन नियमों को मानेंगे और सरकारी पुलिस तंत्र भी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करेगा। आशा रखनी चाहिए कि आवश्यक संशोधनों के साथ मोटर वाहन अधिनियम संशोधन संसद में पारित हो जाएगा और संसद में ही यह संकल्प भी लिया जाएगा कि सबसे पहले नेता स्वयं उसका पालने करेंगे।द
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