उत्तराखण्ड कांग्रेस में बवाल: कुर्सी पर बहुगुणा, सड़क पर रावत36 के जुगाड़ ने किया आंकड़ा 36 काकांग्रेसी "परम्परा" का खुला प्रदर्शन
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उत्तराखण्ड कांग्रेस में बवाल:
कुर्सी पर बहुगुणा, सड़क पर रावत
36 के जुगाड़ ने किया
कांग्रेसी “परम्परा” का खुला प्रदर्शन
द देहरादून से दिनेश
विजय बहुगुणा ने भले ही 13 मार्च की शाम देहरादून में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली हो। पर समारोह में 18 कांग्रेस विधायकों की अनुपस्थिति कांग्रेस की जर्जर हालत बयां कर रही थी। वैसे राज्य में विधानसभा चुनाव परिणाम सच में सबको चौंका गए। सत्तारूढ़ दल जहां बहुमत की आस लगाए था वहीं कांग्रेस भी आश्चर्यजनक सफलता की उम्मीद पाले थी। पर किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला। 70 सीटों वाली विधानसभा के लिए 32 सीटों के साथ कांग्रेस, भाजपा से एक सीट ज्यादा लेकर सरकार बनाने का दावा तो कर बैठी, निर्दलीय और दूसरे दलों का समर्थन जुटाकर, 36 विधायकों की सूची राज्यपाल को सौंप दी, पर जब राज्यपाल ने पूछा- विधायक दल का नेता कौन, तो उल्टे पांव दिल्ली को दौड़े कांग्रेसी नेताओं में 36 के आंकड़े जगजाहिर हो गए। गुटबाजी की उठा-पटक के बीच अंतत: विजय बहुगुणा एक गैर विधायक के रूप में विधायक दल के नेता के रूप में सामने आए।
कांग्रेस में भाग्य आलाकमान तय करता है। उत्तराखंड में भी यही हुआ। मुख्यमंत्री विधायकों में से नहीं बल्कि सांसदों में से ढूंढा गया। एक बार फिर 2002 की तरह हरीश रावत, तमाम तिकड़मों के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सके। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य, नेता-प्रतिपक्ष रहे हरक सिंह रावत, सांसद सतपाल महाराज और श्रीमती इंदिरा हृदयेश के गुटों में बंटी राज्य कांग्रेस को एक अदद मुख्यमंत्री देने में कांग्रेस आलाकमान के पसीने छूट गए। विद्रोह की आवाजें सुन रहीं कांग्रेस नेता सोनिया गांधी को नये मुख्यमंत्री का नाम घोषित करने में एक सप्ताह का समय लग गया।
सात मार्च को राज्यपाल मार्गरेट अल्वा द्वारा विधायक दल के नेता का नाम बताने के आग्रह के साथ ही कांग्रेस में “मैं बनूंगा मुख्यमंत्री” का वाक्युद्ध, धड़ेबाजी का नजारा सामने आया। राज्य कांग्रेस प्रभारी चौधरी वीरेन्द्र सिंह की रपट आलाकमान के पास पहुंचते ही, सोनिया दरबार के “विशेष दूत” गुलाम नबी आजाद देहरादून पहुंचे। विधायकों से बातचीत के बाद आजाद ने सोनिया गांधी, राहुल गांधी को उत्तराखंड कांग्रेस के नाजुक हालात से अवगत कराया, खासतौर पर केन्द्रीय राज्यमंत्री हरीश रावत के रुख के बारे में। हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी हर हाल में चाहते थे, तो किसी भी सूरत में दूसरे ठाकुर नेता हरक सिंह रावत को इस पद पर नहीं देखना चाहते थे। एक अन्य ठाकुर सांसद सतपाल महाराज ने अपने शिष्य, निर्दलीय विधायक मंत्री प्रसाद नैथानी को आगे कर अपना दावा किया, साथ ही अपने मुख्यमंत्री न बनने पर अपनी पत्नी अमृता रावत को पद की दौड़ में आगे कर दिया। कांग्रेस आलाकमान किसी भी सांसद को कम करने और विधायक का दोबारा चुनाव कराने का जोखिम नहीं लेना चाहती थी। वजह यह कि कांग्रेस को यह भय हमेशा सताता रहा है कि विधानसभा उपचुनाव में भाजपा कहीं भुवन चन्द्र खंडूरी को फिर से मैदान में न उतार दे और इस उत्तराखंड राज्य में मतदाता कब क्या निर्णय दे दें, कुछ नहीं पता। यदि उप चुनाव भाजपा जीत जाती है तो कांग्रेस को सरकार गिर जाने का भय सतायेगा, ऐसी चर्चा के बीच पहले सांसदों को दावेदारी की सूची से हटाया गया, उसके बाद भी इंदिरा हृदयेश, यशपाल आर्य और हरक सिंह रावत दावेदार बने रहे। विधायक भी दिल्ली में जमे रहे, बैठकों का दौर 12 मार्च तक जारी रहा। लेकिन नेता फिर भी तय नहीं हो पाया। 2002 में भी कांग्रेस में ऐसी ही गुटबाजी उभरी थी, तब भी सांसद नारायण दत्त तिवारी को यहां भेजा गया था, जो पांच साल सरकार चला गए। तिवारी तमाम विवादों के बावजूद इस बार भी सक्रिय हुए पर इस बार उनके करीबी ही उनका साथ छोड़ खुद दावा करने लग गए। इसी बीच बसपा नेता मायावती और सोनिया गांधी के बीच दूरभाष पर उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को समर्थन देने की चर्चा सामने आयी। बसपा ने तीनों विधायकों के लिए मंत्री पद मांगे और वंचित वर्ग के, यानी यशपाल आर्य को मुख्यमंत्री बनाने की बात कही। ये मामला राजनीतिक गलियारों में खूब गर्म रहा, जिसके बाद कांग्रेस से जुड़े निर्दलीय विधायक नाराज हो गए। फिर से नये जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हो गई। हरीश रावत लगातार आलाकमान पर ये दबाव बनाये रहे कि उनके बिना उत्तराखंड में कांग्रेस नहीं। बगावत के डर से कांग्रेस आलाकमान सहमी- सहमी रही। उन्होंने केन्द्रीय राज्यमंत्री की कुर्सी छोड़ सड़क पर बगावती तेवर दिखाए।
विधानसभा चुनाव में दूसरे राज्यों विशेषकर उ.प्र. में जो करारी शिकस्त मिली और सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका की फजीहत के बाद कांग्रेस उत्तराखंड को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। लिहाजा वो हर कदम फूंक-फूंक कर उठाना चाहती थी। उत्तराखंड की राजनीति में ठाकुरों का दबदबा है इसलिए वह हरीश रावत के दबाव में बार-बार दिखी। कांग्रेस आलाकमान के नेता गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल, चौधरी वीरेन्द्र सिंह के मुख्यमंत्री के नाम पर सहमति बनाने में पसीने छूट गए। पार्टी को जितना वक्त 36 का आंकड़ा जुटाने में नहीं लगा उससे कहीं ज्यादा वक्त उसे विधायकों के बीच 36 का आंकड़ा दूर करने में लग गया। उत्तराखंड का जनमानस बार-बार यही सोचने पर विवश हुआ कि काश, भाजपा को एक-दो सीटें और मिल जातीं तो खंडूरी के मुख्यमंत्री बनने की राह आसान हो जाती। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में भाजपा ने चुनावों से पूर्व ही श्री खंडूरी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर दिया था। भाजपा बहुमत के पीछे और श्री खंडूरी की हार के बावजूद आखिर तक उन्हीं के नेतृत्व में सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाश रही थी। कांग्रेस की इस नौटंकी का अंत आखिरकार 13 मार्च को हुआ, जब दिल्ली में दस जनपथ से विजय बहुगुणा के नाम का ऐलान उत्तराखंड के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में हुआ। स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा सोनिया गांधी की पहली पसंद तो बन गए पर विधायकों की पसंद न बन सके। उत्तराखंड में कांग्रेस की नयी सरकार निर्दलीयों और दूसरे दलों की बैसाखियों पर टिकी है, जो कभी भी धराशायी हो सकती है। ऐसे में नये मुख्यमंत्री को अपनी सरकार चलाने में कितनी मुसीबतों को झेलना पड़ेगा, यह बात अब जगजाहिर हो चुकी है, क्योंकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हरीश रावत धड़ा भौहें ताने खड़ा है।द
तलवार की धार पर सरकार
उत्तराखंड के 7वें मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उ.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र हैं। 65 साल के विजय बहुगुणा की बहन श्रीमती रीता बहुगुणा उ.प्र.कांग्रेस की अध्यक्षा हैं। इलाहाबाद और मुम्बई उच्च न्यायालय में जज रह चुके विजय बहुगुणा को अगले छह महीने में सांसद पद छोड़कर विधायक बनने की परीक्षा से गुजरना होगा, जहां उन्हें भाजपा से कड़ी चुनौती मिलेगी। भाजपा को कांग्रेस से एक सीट छीनकर आगे निकलने का एक अवसर मिलेगा। संभवत: इस उप चुनाव में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूरी से मुकाबला करना पड़े। श्री खंडूरी और विजय बहुगुणा रिश्ते में ममेरे-फुफेरे भाई लगते हैं। विजय बहुगुणा संभवत: टिहरी से उप चुनाव लड़ें जहां निर्दलीय दिनेश धनेय ने उनके लिए अपनी विधानसभा सीट छोड़ने की पेशकश की है। बहरहाल, विजय बहुगुणा को कांग्रेस के भीतर उपजे विरोध से जूझते हुए तलवार की धार पर उत्तराखंड की सरकार चलानी होगी। द
थ् बहुगुणा सरकार के भविष्य पर लटका सवालिया निशान
थ् निर्दलीयों के हाथ में रहेगी कमान
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