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साहित्यिकी
… बंदनवार लगे
द योगेन्द्र वर्मा “व्योम”
नई बहू घर में आई है
बन्दनवार लगे
चीजों से जुड़ना बतियाना
पीछे छूट गया
पहली बारिश की बूंदों-सा
सब कुछ नया-नया
कुछ महका-सा कुछ बहका-सा
यह संसार लगे
संकेतों की भाषा नूतन
अर्थ गढ़े पल-पल
मूक-बधिर अंखियां भी करतीं
कभी-कभी बेकल
गंध नहाई हवा सुबह की
भी अंगार लगे
परीलोक की किसी कथा-सा
आने वाला कल
ऊबड़-खाबड़ धरा कहीं पर
और कहीं समतल
कोमल मन में आशंकाओं
के अंबार लगे
गवाक्ष
थ् शिवओम अम्बर
होलिकोत्सव पर विशेष
सब देह पे गीत गोविन्द लिख्यो है
फाल्गुनी पूर्णिमा रस और रंग के महोत्सव होलिकोत्सव से सम्बद्ध है। अपनी निष्ठा पर दृढ़ रहने वाले भक्त प्रवर प्रह्लाद को प्रणति निवेदन करने का पर्व है। होली और है अनन्त ब्राह्माण्ड नायक शाश्वत उत्सव-पुरुष श्रीकृष्ण के वन्दन का लोकोत्सव। वातास में उड़ते गुलाल से पट-परिवर्तन के छन्द रचती प्रकृति आनन्द की सहज अभिव्यञ्जना बन जाती है और उसके हर स्पन्दन को अपने अन्तस् में महसूस करने वाली कविता गुनगुना उठती है-
दहकी-दहकी दोपहर बहकी-बहकी रात,
फागुन आया गांव में लेकर ये सौगात।
चढ़ा गांव दर गांव यूं ये सैलाबी फाग,
राज-राग है रात हर प्रात पराग-पराग।
मौसम की हर श्वास में है महुए की गन्ध,
आज रहेंगे टूटकर संयम के तटबन्ध।
है चन्दन के लेप-सी ये सीने की आंच,
सखि, पाती बिन बैन की नैन मूंदकर बांच।
मानवीय रागात्मक चेतना की रंगभूमि है होली। अन्तरतम का उल्लास जब इन्द्रधनुष के रंगों को वातास में आरेखित कर देता है, होलिकोत्सव आकारित हो जाता है। ऐसे ही परिवेश में पद्माकर की रसान्वेषिणी नायिका नटनागर कृष्ण की “बांह गह कर कहीं भीतर ले जाती है और उन्हें अबीर से सराबोर करके अपने नेत्रों को चंचल बनाकर मोहिनी मुस्कान के साथ पुन: होली खेलने को आने का आमंत्रण प्रदान करती है।”
नैन नचाइ कही मुसकाय,
लला फिर आइयो खेलन होरी।
इसी परिवेश में बिहारी की गोपी वार्तारस की अभिलाषा में कृष्ण की बांसुरी को छिपाकर रख देती है। कृष्ण के प्रश्नों के उत्तर में बांसुरी वापस करने की बात कहकर भी अन्तत: मुकर जाती है और इस प्रकार कृष्ण को खिझा-खिझा कर उनपे रीझती चली जाती है-
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ,
सौंह करे भौंहनु हंसै दैन कहै नटि जाय।
इस रागरंजित उन्मादी परिवेश का स्वागत करते हुए कैलाश गौतम के दोहे आदिम उद्वेगों के प्रभावी प्रवेगों में बदल जाते हैं, जब आंखों ही आंखों में दिल का सौदा होने लगता है और बड़े ही कलात्मक ढंग से पक्की रसीद भी कटने लगती है, होली का शुभागमन अभिनन्दिन हो जाता है-
फागुन आया गांव में गई
गांव की नींद,
आंखों में सौदे हुए
होटों कटी रसीद।
गोरी-धूप कछार की
हम सरसों के फूल,
जब-जब होगी सामने
तब-तब होगी भूल।
सौन्दर्य का निवास दर्शक की दृष्टि में विशेष रूप से होता है। जो जितना सुन्दर होता है वह उतना प्रिय लगता है-यह बात सत्य हो न हो किन्तु यह बात निश्चित रूप से प्रमाणित है कि जो हमें जितना प्रिय होता है वह उतना ही सुन्दर प्रतीत होता है। सही कहते हैं कविवर उदय प्रताप जी-
दूर-दूर रहकर भी
हम सदा तुम्हारे हैं,
जैसे गहरी झीलों में
आसमां के तारे हैं।
हुस्न पे जो दौलत है इश्क की बदौलत है,
आप उतने सुन्दर हैं जितने हमको प्यारे हैं।
होलिकोत्सव सौन्दर्य के अर्चन का, प्रीति के वन्दन का पर्व है। “रसो वै स:” की वैदिक उद्घोषणा को “सा तु अस्मिन परमप्रीतिरूपा” वाली नारदीय भक्ति सूत्र की व्याख्या से संयुक्त कर दें तो होलिकोत्सव के आध्यात्मिक स्वरूप के दर्शन उपलब्ध होते हैं। कविवर आत्मप्रकाश शुक्ल अपने एक छन्द में ऐसी ही एक औत्सविक रूपश्री का अभिनन्दन करते हैं जो उन्हें अज्ञेय परमात्मा के द्वारा लिखे गए सौन्दर्यपरक आलेख सी प्रतीत होती है, जिसकी दृष्टि के संकेतों में पराप्रकृति के गूढ़ संकेतों का अध्ययन करने वाले सन्तगण जिसके लिए बौद्धिक व्याख्या के प्रबंध की नहीं हार्दिक प्रणति के अनुबन्ध को ही काम्य मानते हैं, जो नख से शिख तक निर्दोष कलात्मकता की सजीव प्रतिमा है तथा जिसके रोम-रोम में अनुराग के अमृत-सिन्धु की लहरों का सान्निवेश है-
राम रे राम, जो रूप की का कहैं
नेति ने जैसे निबन्ध लिख्यो है,
नैनन के गुन औगुन देखि कै
सन्तन ने अनुबन्ध लिख्यो है,
नख ते सिख लौं धनि ऐसी लगैं,
जैसे बैठि बिहारी ने छन्द लिख्यो है,
हम कौन ते अंग की बात करैं
सब देह पे गीत गोविन्द लिख्यो है।
होलिकोत्सव अनंग की अर्चना के उपक्रम की तरह देखा जाता है किन्तु यह ध्यातव्य है कि चेतना के तल के बदलते ही शब्द की अर्थध्वनियों परिवर्तित हो जाती हैं। पौराणिक शब्दावली में जो अनंग कामदेव का पर्याय है वही उपनिषद् की आश्रम-सीमा में प्रवेश करते ही, अध्यात्म के आरण्यक में आते ही परात्पर ब्रह्म का वर्णन अध्याय बन जाता है और भक्ति के निभृत निकुंज के प्रसंग का स्पर्श करते ही अव्याख्येय अमृत की उपलब्धि का उपाय हो जाता है, बाहर के सारे रंग भीतर के अनुराग के अभिसंग में समाहित हो जाते हैं और होलिकोत्सव लोक और वेद के मध्य स्वर्णिम सेतु बन जाता है। तभी व्यक्ति बाह्य व्यवहारों से अविचलित हो अपने अन्त:स्वर से निर्देशित हो पाता है। माणिक वर्मा जी के शब्दों में-
कीचड़ उसके पास था मेरे पास गुलाल,
जो कुछ जिसके पास था उसने दिया उछाल।
महीयसी की देशना
फाल्गुनी पूर्णिमा महीयसी महादेवी की जन्मतिथि भी है। छायावाद की अप्रतिम कवियित्री के रूप में महादेवी जी को पर्याप्त ख्याति मिली, “यामा” पर ज्ञानपीठ पुरस्कार भी। किन्तु उनका गंभीर चिन्तन, उनकी समसामयिक चेतावनी और उनकी चिरन्तन देशना भी पुन: पुन: स्मरणीय और मननीय है। एक समय जब तथाकथित प्रगतिवादी विचारकों ने सांस्कृतिक प्रश्नों को बौद्धिक विलास की संज्ञा दी थी और मात्र रोटी, कपड़ा और मकान को अथ तथा इति बताया था, महादेवी ने इस मानसिकता का कठोर प्रतिवाद किया था। उन्होंने निभ्र्रान्त स्वर में घोषणा की थी- “यदि हमारा शरीर चलता है और मन उसका साथ नहीं देता तो हम विक्षिप्त कहे जाएंगे और यदि मन चलता है पर शरीर उसका साथ देने में असमर्थ है तो हम पक्षाघात के रोगी कहे जाएंगे। स्वस्थ शरीर और मन के समान ही राष्ट्र का मानसिक और भौतिक विकास साथ चलता है।”
महादेवी ने जीवन की हर परिस्थिति में शब्द की शक्ति के प्रति अपनी निष्ठा को बरकरार रखा। अपने अन्तिम भाषण में उन्होंने आस्था व्यक्त की थी कि कविता हमारे बाद भी हमारा काम करती रहेगी। उनका अभिप्राय था कि साहित्यकार किसी समाज के स्वप्नों और संकल्पों के स्वर्णिम कोष हुआ करते हैं। उनके माध्यम से युग की वाणी ही प्राप्त नहीं होती, कल्याणी दिशा भी उपलब्ध होती है। उनकी दृढ़ मान्यता थी- “हमारा देश निराशा के गहन अन्धकार में साधक साहित्यकारों से ही आलोक-दान पाता रहा है। जब तलवारों का पानी उतर गया, शंखों का घोष विलीन हो गया, तब भी तुलसी के कमण्डल का पानी नहीं सूखा और सूर के एकतारे का स्वर नहीं खोया।” महादेवी की यह त्रासद अनुभूति थी कि हमारे राजनीतिक स्वातन्त्र्य के साथ हमारी मानसिक परतंत्रता का ग्रन्थिबन्धन सा हो गया है। इसे न खोला जा पा रहा है, न काटा जा रहा है। उनकी मान्यता थी कि हमारे समग्र विकास पर इस मानसिक परतंत्रता की अवसादमयी छाया पड़ रही है! होलिका की अग्नि हमें हिम्मत दे कि इस अग्नि तत्व की साधना कर सकें और हमारा ज्योतिर्मय संकल्प अन्धकार का उच्छेद बन जाए।द
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