मध्य पृष्ठ
|
प्रेस क्लब में लगे ब्रह्मोस के मॉडल को तोड़ा
उसमें ही छेद किया
अरुण कुमार सिंह
कुछ लोग राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक चिन्हों से इतने चिढ़ते हैं कि वे रात के अंधेरे में उन्हें तोड़ डालते हैं। ऐसा वे लोग सिर्फ अपनी विचारधारा के कारण करते हैं। एक ऐसा ही मामला उजागर हुआ है। यह मामला है दिल्ली के प्रेस क्लब का, जो संसद के बिल्कुल पास है। प्रेस क्लब के परिसर में कुछ समय पहले ही ब्रह्मोस प्रक्षेपास्त्र (मिसाइल) का मॉडल लगाया गया है। चूंकि यह भारत और रूस का संयुक्त उपक्रम है, इसलिए मॉडल के साथ दोनों देशों के झंडे भी लगाए गए हैं। प्रेस क्लब में प्रवेश करते ही ब्रह्मोस के मॉडल को देखकर हर कोई ठिठक जाता है। उसे बड़े गौर से निहारता है और भारत की सामरिक ताकत पर गर्व करता है, चर्चा करता है। शायद भारत की यही ताकत कुछ लोगों को पसंद नहीं है। ऐसे लोग किस विचारधारा या संगठन से जुड़े होते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही कुछ लोगों ने गत 15 फरवरी की रात को प्रेस क्लब के परिसर में लगे ब्रह्मोस के मॉडल को तोड़ दिया। किंतु इस घटना के प्रति प्रेस क्लब के पदाधिकारियों का रवैया ठीक नहीं रहा। उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पुलिस में शिकायत तक दर्ज नहीं कराई गई। जब बात दूर तक फैली तब सहायक कार्यालय सचिव जितेन्द्र ने संसद मार्ग थाने में अज्ञात लोगों के विरुद्ध इसकी शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद टूटे हुए मॉडल को किसी तरह उसी जगह पर खड़ा कर दिया गया है। और प्रेस क्लब के नोटिस बोर्ड पर लिखा गया है कि अगली बार ऐसा कुछ हुआ तो दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा। यानी प्रेस क्लब के अंदर आप कुछ भी पहली बार कर लें आपको माफ कर दिया जाएगा। इस घटना से आहत कुछ लोग मॉडल को तोड़ने में प्रेस क्लब की नई समिति में शामिल हुए कुछ लोगों की ओर उंगली उठा रहे हैं, क्योंकि समिति ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। इन आरोपों का आधार यह बताया जा रहा है कि प्रेस क्लब की नई समिति में अधिकांश ऐसे लोग आ गए हैं, जिनका झुकाव वामपंथ की ओर जगजाहिर है। यही वजह है कि प्रेस क्लब के अंदर कुछ लोगों ने ऐसा अपवित्र काम किया, जो राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आना चाहिए। फिर भी क्लब की ओर से उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।
प्रेस क्लब में ब्रह्मोस का मॉडल क्लब के अनुरोध पर लगाया गया है। पहले प्रेस क्लब में कोई अच्छी व्यवस्था नहीं थी। रक्षा मंत्रालय ने प्रेस क्लब का जीर्णोद्धार कराया। सभाकक्ष को सुंदर बनवाया। पीने के पानी का अच्छा प्रबंध करवाया। यानी रक्षा मंत्रालय ने प्रेस क्लब को पूरी तरह सजाया-संवारा। इसके बाद क्लब के पदाधिकारियों के आग्रह पर राष्ट्र के गौरव के प्रतीक ब्रह्मोस के मॉडल को वहां लगवाया। इसका उद्घाटन रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी ने स्वयं किया था। किंतु राष्ट्रविरोधियों को राष्ट्र के गौरव से क्या मतलब? वे तो जिस थाली में खाते हैं उसमें ही छेद करके अपने आपको “बहादुर” मानते हैं।
उल्लेखनीय है कि ब्रह्मोस भारत और रूस की तकनीक से भारत में बनी एक ऐसी मिसाइल ह,ै जो सतह से सतह तक काफी लम्बी दूरी तक दुश्मन पर मार कर सकती है। ब्रह्मोस की वजह से भारत की युद्धक क्षमता काफी बढ़ी है। इसलिए इस पर गर्व तो हर भारतीय को है। जिसको इस पर गर्व नहीं है, वही उसे तोड़ सकता है। द
शहीद ढींगरा का मकान जमींदोज
मृतसर में एक महान शहीद की यादें मिट्टी में मिल गईं। सरकार ने शहीद की निशानी को संरक्षित करने का प्रयास ही नहीं किया। इसी का परिणाम है कि अंग्रेजी साम्राज्य से लोहा लेने वाले शहीद मदनलाल ढींगरा का पैत्तृक घर बिक गया और खरीदने वाले ने इसे गिरा भी दिया। ढींगरा के परिजनों ने यह मकान किस व्यक्ति को बेचा इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है। लेकिन शहर के रीजेंट चौक स्थित इस मकान को जिस भी व्यक्ति ने खरीदा, उसने शहीद मदनलाल ढींगरा के जन्म के साथ जुड़ी हुई विरासत को जमींदोज कर दिया है। ढींगरा का घर जलियांवाला बाग में शहीदों को माथा टेकने के लिए जाने वाले लोगों के लिए श्रद्धा का केन्द्र था। लस्सी वाला चौक के नाम से जाने जाते रीजेंट चौक में पर्यटक लस्सी पीने के बहाने सामने ही स्थित ढींगरा के पैत्तृक घर को नमन करते थे। बेशक घर के भीतर जाने की मनाही थी। लेकिन बाहर लकड़ी का बढ़ा हुआ छज्जा ही पर्यटकों के लिए श्रद्धा का केन्द्र था। ढींगरा के पैत्तृक घर को गिराए हुए पंद्रह दिन से अधिक का समय हो गया है। विद्यार्थी संगठनों ने इसका कड़ा विरोध किया है।
विद्यार्थियों व नौजवानों ने शहीद मदनलाल ढींगरा के निवास स्थान पर पहुंचकर उन्हें श्रद्धा सुमन भेंट किए। फिर कचहरी चौक तक एक जुलूस निकाला। उपायुक्त को एक मांग पत्र दिया गया। जिसमें मांग की गई कि सरकार व प्रशासन शहीद मदनलाल ढींगरा के घर को तुरंत अपने कब्जे में ले। सरकार घर को खरीदकर राष्ट्रीय यादगार बनाए। इस यादगार में मदनलाल ढींगरा की बहुमूल्य वस्तुएं रखी जाएं। इस राष्ट्रीय यादगार में मदनलाल ढींगरा की मूर्ति स्थापित की जाए। प्रदेश की वरिष्ठ मंत्री प्रो. लक्ष्मीकांता चावला ने कुछ माह पूर्व ही इस पूरे क्षेत्र का दौरा किया था। उन्होंने कहा कि शहीद के घर को संभालने के लिए केन्द्र व राज्य सरकार गंभीर नहीं थी। इसलिए उनके परिजनों द्वारा मकान बेचने से पहले उस पर दोनों सरकारें चुप्पी साधे रहीं। भारतीय पुरातत्व विभाग भी ऐतिहासिक महत्व के इस घर के प्रति उदासीन रहा। सरकार को चाहिए था कि वह मदनलाल ढींगरा के घर को नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का केन्द्र बनाती।
द अमृतसर से राजीव कुमार
बेटी है प्यारी मां की दुलारी
कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध जागृत हो समाज
द सोनाली मिश्रा
“आज बहुत याद आती हैं वे नन्हीं-नन्हीं उंगलियां, जिनकी छुअन मैंने बस अंदर महसूस करनी शुरू की ही थी कि उन्हें मेरे अंदर से खींच कर बाहर निकाल दिया। मैं चाहती थी कि कम से कम एक बार उस मासूम चेहरे को जी भर के देख लूं। उसकी नन्हीं कलाइयों में काली चूड़ियां पहना दूं। उसकी गुलाबी हथेलियों को अपने हाथों में लेना चाहती थी। लेकिन हाय रे भाग्य, मेरा अंश मेरी बिना रजामंदी के ही मेरे शरीर से बाहर कर दिया गया और मैं कुछ न कर सकी।” ये बातें मेरी सहेली रितु ने अपनी आंखों में आंसू लाकर मुझसे कहीं। वह व्याकुल थी। उसके अंदर की ममता पछाड़ें खा-खा कर रो रही थी। मैंने उसे अपने अंक में भर तो लिया लेकिन मुझे उस पर तरस कम और गुस्सा ज्यादा आ रहा था। मैंने उससे अपने से अलग कर कहा “बस कर अब कब तक रोएगी। क्या तू स्वयं इस स्थिति के प्रति उत्तरदायी नहीं है?” “मैं, मैं कैसे? जब पूरा परिवार ही यह चाहता था, तो मैं क्या करती? मैं एक स्त्री हूं, कमजोर हूं।” उसने कहा।
“जब तू अपने आधुनिक कपड़ों के लिए राघव से लड़ सकती है, तो फिर अपनी बेटी को जिंदगी देने के लिए तू एक भी कदम नहीं उठा सकती है?”
“तो क्या मैं एक लड़की के लिए अपने शादीशुदा जीवन को स्वाहा कर देती? माना मेरी ममता को चोट पहुंची लेकिन इसके लिए मैं अपने जीवन को दांव पर नहीं लगा सकती? मैं एक शादीशुदा महिला हूं। मैं अपने बेटे का जीवन अंधकारमय कैसे कर देती?” उसने अपने आंसू पोंछते हुए कहा।
इसके बाद वह डबडबाई आंखों के साथ वहां से चली गई। वह तो चली गई लेकिन मेरे लिये छोड़ गई सवालों की अंतहीन श्रृंखला जो कि मेरे दिलो दिमाग को बुरी तरह मथ रही थी। मेरी सहेली रितु कहने के लिये पढ़ी-लिखी है, आधुनिक है, खुले विचारों वाली है, अच्छे संस्थान में नौकरी करती है, पति व्यवसायी है। मुझे हमेशा से ही उसके पति खुले और सुलझे विचारों वाले लगे थे। यही कारण था कि मैं अपनी सहेली के नितांत करीबी पलों में भी बेझिझक झांक लेती थी। इस घटना के बाद मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा “मन तो मेरा भी था लेकिन हमारे यहां पर लड़कियों को जन्म देने की परंपरा नहीं है। हम सिर नहीं झुका सकते किसी के भी सामने। फिर जो व्यापार हमने खड़ा किया है वह दूसरे के परिवार में न चला जाए, यही सोच कर….”
छी:, ऐसी सोच वाले अभी भी हमारे देश में मौजूद हैं, यही सोच-सोच कर मुझे रोना आता रहा। मुझे ऐसे लोगों की दुर्बुद्धि पर गुस्सा और तरस दोनों ही आ रहा था, क्योंकि वे प्रकृति की उस रचना को असमय ही नष्ट कर रहे थे जो कि उन्हें एक नई पहचान दे सकती थी। मुझे आज तक यह समझ नहीं आ पाया है कि महिलाएं यूं तो छोटी-छोटी निरर्थक बातों को बड़ा मुद्दा बनाकर लड़ाई करती हैं, उन्हें नारी अस्मिता का विषय बनाकर महिला संगठनों की भी मदद लेने से नहीं हिचकती हैं, लेकिन जब मुद्दा आता है कि वे अपनी कोख से एक लड़की को जन्म लेने दें या नहीं, तो यह निर्णय वे समाज और पति पर छोड़ देती हैं। क्यों?
गर्भ में ही कन्या को मारने का पाप करने वाली स्त्री कितनी विवश होती है? क्या यह वास्तविकता में ही विवशता होती है? या फिर यह विवशता उनकी ओढ़ी हुई होती है? यह विवशता आखिर क्यों होती है? क्या यह सदियों से चली आ रही कुप्रथाओं का ही एक रूप नहीं होती है? आखिर ऐसी क्या बाध्यताएं होती हैं? इन्हीें सवालों के झंझावात में एक महिला से मिली जिसने एक पुत्र की चाह में 3 बार कन्या भ्रूण को अपने शरीर से बाहर फेंक दिया था। उन्होंने बताया कि चूंकि उनके पति एक बहुत ही बड़े व्यवसायी हैं, अरबों का व्यवसाय है, एक से ज्यादा सन्तानों में खानदानी व्यापार बंटने की आशंका हो जाती है, जबकि एक ही संतान के रूप में वे लड़की को तो प्राथमिकता नहीं दे सकतीं। अत: उन्होंने यह काम 3 बार किया, फिर कहीं जाकर लड़के का मुंह देख पाईं। मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें कोई अपराधबोध नहीं होता? उनका जवाब था कि पहली बार में तो खराब लगा था। फिर उन्होंने अपने पति के व्यापार के हित को देखते हुए मन पक्का कर लिया।
ऐसा ही दूसरा दिल दहला देने वाला वाकया मेरी डाक्टर ने मुझे बताया। उन्होंने बताया कि उनके मित्र के पास ब्रिटेन में रह रही एक प्रवासी महिला आई थी। चूंकि उसके गर्भ में पुत्री थी और वह उसका पहला बच्चा था तो वह लड़की नहीं चाहती थी। वह यह कार्य वहां पर नहीं करा सकती थी, अत: उसने भारत का रुख किया। इस महिला का पति इस घृणित कार्य के विरुद्ध था। अत: वह अकेले ही आ गई। जब उसने यहां के प्रख्यात चिकित्सकों से सम्पर्क किया तो एक स्वर में सभी ने मना कर दिया क्योंकि भ्रूण काफी बड़ा और विकसित हो चुका था। किन्तु उस आधुनिक महिला को तो लड़की चाहिए नहीं थी। अत: उसने अपने धन का प्रयोग कर उस भ्रूण से तो छुटकारा पा लिया। किन्तु उस गर्भपात की वजह से खून इतना अधिक निकला कि उसे खून तो चढ़ाना ही पड़ा साथ ही गर्भाशय में विकृति आने की वजह से गर्भाशय को भी निकालना पड़ा। अब वह महिला जिंदगी में दोबारा कभी मां नहीं बन सकती। अब जरा पूछिये कि उसने ऐसा क्यों किया? इसका कोई जवाब नहीं है। मैं बहुत बार सोचती हूं कि क्या इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं का कलेजा नहीं कांपता है कि “नहीं ये मेरी ही संतान है, मैं इसे नहीं मार सकती।”
समय आ गया है कि जब इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं की स्वतंत्रता बाह्य स्वतंत्रता बन कर न रह जाए, इसके लिए हम उन्हें जागरूक करें। हम उन्हें बताएं कि जब भी उनकी कोख पर कुप्रथाओं के नाम पर डाका डाला जाए, तो विवश न हों। कम से कम एक आवाज तो उठाएं, अपनी आधुनिकता का प्रदर्शन वहां पर करें। द
कमाल की हैं निर्मला दीदी
सच ही कहा गया है- मेहनती और साहसी को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है। यही बात पटना (बिहार) जिले के फुलवारी प्रखंड के मैनपुरा गांव की रहने वाली निर्मला देवी के साथ लागू होती है। इनकी मेहनत, लगन और साहस ने आज सैकड़ों महिलाओं के लिए एक फलदायी वृक्ष का रूप ले लिया है। निर्मला देवी ने सन् 2004 में “लक्ष्मी स्वावलंबन महिला विकास समिति” नामक स्वयं सहायता समूह की आधारशिला रखी थी। तब उन्हें महज पांच रुपए से अपने कार्य का शुभारंभ करना पड़ा था। घरेलू जिम्मेदारियों के चलते शुरू-शुरू में उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली, परन्तु फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। धीरे-धीरे उन्होंने बेसन व सत्तू बेचने का व्यवसाय प्रारंभ किया। इससे उनकी आमदनी में अशातीत बढ़ोतरी होती गई। फलत: उनके साथ गांव की महिलाएं जुड़ती गईं। अब निर्मला देवी अपने कार्यों द्वारा ग्रामीण महिलाओं में निर्मला दीदी के नाम से लोकप्रिय हैं। वर्तमान में वे फुलवारी प्रखंड की नई दिशा नामक फेडरेशन की अध्यक्षा हैं। फेडरेशन के माध्यम से उन्होंने अब तक बैंक में 370 महिलाओं का खाता खुलवाया है। लगभग 419 महिलाएं उनके मार्गदर्शन में कार्य कर रही हैं। एक समय था जब फेडरेशन को 31,25,000 रुपए का ऋण लेना पड़ा था लेकिन निर्मला देवी की कार्यकुशलता से फेडरेशन की महिलाओं द्वारा आज बैंक में 29,40,000 रुपए तक की राशि जमा हो चुकी है। द संजीव कुमार
टिप्पणियाँ