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हरित क्रांति से निकला

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Feb 18, 2012, 12:00 am IST
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राज्यों से

दिंनाक: 18 Feb 2012 17:21:24

राज्यों से

पंजाब/राकेश सेन 

कैंसर का कहर

1960 के दशक में जब कृषि प्रधान देश भारत में लोगों का पेट भरने के लिए विदेशों से अन्न मंगवाया जाता था, उस समय देश की सेवा करने को आगे आए उत्तर भारत के किसान, खासकर पंजाब के किसानों का योगदान सर्वाधिक रहा। यहां भाखड़ा बांध बना, जिससे पानी की उपलब्धता बढ़ी। राज्य के चप्पे-चप्पे पर खेती होने लगी, बिजली से गांव रोशन हुए, परंतु जल्दी ही रोशनी अंधकार में बदलने लगी। अंधाधुंध खेती ने जमीन की उर्वरा शक्ति व भूमिगत जल लगभग समाप्त कर दिया। विज्ञान ने इसका हल निकाला रासायनिक खादों व कीटनाशकों के रूप में। शुरू में तो परिणाम अच्छा रहा, परन्तु रसायन ने जल्दी ही पंजाब के जीवन रस को चूस लिया। जंगल व वन्य जीवन तबाह हो गया। जमीन बंजर होने के मार्ग पर चल पड़ी। भूमिगत पानी से लेकर अन्न, वायु, पशुचारा, दूध तक में रसायन पाया जाने लगा। आज इसका परिणाम निकल रहा है कैंसर, चर्म रोग जैसी खतरनाक बीमारियों के रूप में।

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पंजाब का मालवा क्षेत्र पिछले कुछ सालों से बेशक “कैंसर” के नाम से जाना जा रहा है, पर यह बीमारी लोगों को पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से घेरे बैठी है। इस बीमारी का सबसे बड़ा कारण सरकार का ढीला रवैया व लापरवाही भी रहा है। इसी कारण करीब दो दशक से फरीदकोट में बाबा फरीद चिकित्सा विश्वविद्यालय को केन्द्र सरकार की तरफ से इलाज के नाम पर करोड़ों रुपयों का अनुदान मिल चुका है, पर आज तक एक भी मुहिम इसने कैंसर जैसी भयानक बीमारी को लेकर आरंभ नहीं की। उपकुलपति का कहना है कि आज तक वहां कैंसर पर एक भी खोज नहीं हुई तथा न ही उनके पास कैंसर मरीजों की जानकारी है। किन कारणों से कैंसर फैल रहा है, इस संबंध में कोई सबूत नहीं है। उपकुलपति डा.एस.एस. गिल का कहना है कि उन्हें तो कैंसर मरीज का बस तब पता चलता है जब मरीज उनके पास आता है। जागरूकता के नाम पर बड़े बड़े खर्चे तो दिखाए जाते हैं पर मरीजों में इसका ज्यादा फायदा देखने को नहीं मिलता है। सरकार व स्वास्थ्य विभाग के इस ढीले रवैये की ही मिसाल है कि मालवा क्षेत्र से बीकानेर जाने वाली रेल “कैंसर एक्सप्रेस” के नाम से जानी जाती है। मालवा में अभी तक जितने भी कैंसर पर सर्वे किए गए हैं वे गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए गए हैं। यही कारण है कि अभी तक सरकार कैंसर फैलने के मुख्य कारणों तक नहीं पहुंच सकी। इससे साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार इलाज की सुविधाओं तक जाने कब पहुंचेगी।

मालवा में कैंसर

मालवा में कैंसर का सबसे बड़ा कारण हरित क्रांति के दौरान रासायनिक खादों व फसलों पर कीटनाशकों का छिड़काव माना जाता है। इस कारण मालवा में जमीन व पानी दोनों ही जहरीले हो गए हैं। पिछले कुछ सालों के दौरान गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के भौतिक विभाग तथा समाजसेवी संस्था बाबा फरीद सेंटर फार स्पेशल चिल्ड्रन द्वारा की गई खोज में इलाके के पानी में बड़ी मात्रा में यूरेनियम तथा भारी धातुओं के अंश पाए गए हैं। इस संबंध में बाबा फरीद सेंटर के संचालक डा. प्रितपाल का कहना है कि भारी धातुएं शरीर व दिमाग दोनों के लिए नुकसानदायक हैं। इस कारण मंदबुद्धि बच्चे पैदा होने या कैंसर जैसे रोगों का फैलाव मालवा क्षेत्र में बहुत ज्यादा है। इस संबंध में पंजाब में कुदरती कृषि के प्रचार-प्रसार में लगे “खेती विरासत” के उमेन्द्र दत्त का कहना है कि जरूरत से ज्यादा खादों तथा कीटनाशकों के प्रयोग ने हमें किसी लायक नहीं छोड़ा। आज हमारी जमीन, पानी तथा हवा तीनों ही प्रदूषित हो चुके हैं। जीवन बचाने के लिए हमें कुदरती खेती की तरफ मुड़ना पड़ेगा तथा नहरों व नदियों को गंदगी से मुक्त करना पड़ेगा।

क्या होता है कैंसर?

असल में शरीर में कोशिकाएं बनतीं व खत्म होती हैं। कई बार देखा गया है कि कोशिकाएं मरती ज्यादा व बनती कम हैं। यानी जब इस प्रक्रिया में कोई कमी आ जाती है, तो कैंसर रोग शुरू हो जाता है। कैंसर की सौ से भी ज्यादा किस्में हैं जिनमें से मुख्य हैं रक्त कैंसर, फेफड़ों का कैंसर, नाक व मुंह का कैंसर, पेट का कैंसर, अंतड़ियों का कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर, बच्चेदानी का कैंसर, वक्ष कैंसर और अंडकोष का कैंसर।

हर तरह के कैंसर का 80 से 90 प्रतिशत कारण वातावरण है।

तंबाकू-तंबाकू के इस्तेमाल से 40 फीसदी से अधिक लोग कैंसर की चपेट में हैं। धुआं रहित तंबाकू चबाने से 28 फीसदी कैंसर होता है।

शराब-ज्यादा शराब पीने से इसोफेगस तथा पित्त का कैंसर होता है, रैक्टल कैंसर का खतरा होता है। शराब पीने से महिलाओं में वक्ष कैंसर, प्राइमरी लीवर कैंसर, ओवरीयन कैंसर, थाइराइड कैंसर होता है।

खुराक-“स्मोक फिश” खाने से पेट का कैंसर, खुराक में रेशे की कमी या भैंस का मांस खाने से अंतड़ियों का कैंसर तथा ज्यादा चर्बी वाली खुराक खाने से वक्ष कैंसर व मिलावटी भोजन से कई तरह का कैंसर हो सकता है।

हर तरह के कैंसर में एक से पांच फीसदी तक “आकुपेशनल एक्सपोजर” हैं जिसमें बैनजीन, आरसैनिक, कैडमियम, एसबेसटोस, पोलिसाइक्लिक तथा हाइड्रोकार्बन शामिल हैं।

वायरस-हैपेटाइटिस बी व सी से लीवर के कैंसर का खतरा, एचआईवी वायरस के साथ “कैपोसी सारकोमा” का खतरा हो सकता है। एबस्टिन बार वायरस के साथ बुरकिटस लिम्फोमा होता है। होडकिन बीमारी भी वायरस से होती है।

पैरासाइट्स-पैरासाइट्स संक्रमण से कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।

अन्य कारण

सूरज की रोशनी, किरणें, हवा व प्रदूषित पानी, दवाइयां, कीड़ेमार दवाइयां भी कैंसर के स्रोत हैं।

आनुवांशिक कारण

काफी लंबे समय से आनुवांशिक कारण भी कैंसर होने की वजह माने जाते रहे हैं, पर इन कारणों को ढूंढना कठिन है। इनसे कैंसर की संभावना कम है।

विधानसभा में भी उठा मुद्दा

विधानसभा में कैंसर मरीजों के इलाज को लेकर काफी शोर मचा था। साल 2001-09 में राज्य में 23427 मरीज दर्ज किए गए, जिनमें से 16730 की मौत हो चुकी है। राज्य सरकार साल 2009-10 में 62.50 व साल 2010-11 में 66.25 लाख रुपये खर्च कर चुकी है।

“कैंसर ट्रेन”

बठिंडा से बीकानेर जाने वाली यात्री गाड़ी “कैंसर ट्रेन” के नाम से जानी जाती है। इसी से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि राज्य में यह बीमारी कितने भयंकर रूप से फैली है। बीकानेर में कैंसर का सस्ता इलाज होने के कारण प्रतिदिन औसत 200 कैंसर मरीज बीकानेर जाते हैं और अपना इलाज करवाते हैं। बठिंडा रेलवे स्टेशन पर बैठे इन दुखियारों से जब बात की जाती है तो सभी की  कहानी का एक ही सार होता है कि कीटनाशकों ने मार डाला।

जल में जहर

राज्य के औद्योगिक माने जाने वाले नगर लुधियाना व जालंधर शहर भी कैंसर फैलाने के जिम्मेदार माने जाते हैं। यहां की औद्योगिक इकाइयों का महादूषित पानी विभिन्न नालों के द्वारा सतलुज नदी में गिरता है जो हरिकेपत्तन (जिला तरनतारन) में जाकर मिलता है। यहीं से पंजाब के मालवा व राजस्थान के बड़े हिस्सों के पानी की आपूर्ति की जाती है। स्वाभाविक है कि हजारों तरह के रसायनों ने सतलुज को गंदे पानी का नाला बना दिया है और इसी पानी को मालवा के लोग पीने को विवश हैं।

जाने-माने संत व सामाजिक कार्यकत्र्ता संत बलवीर सिंह सींचेवाल (जिला कपूरथला) ने इस दूषित पानी को बिना उपचारित किए सीधे नदी में डालने के खिलाफ काफी लंबा संघर्ष किया है और इस विधानसभा चुनाव में बड़ी प्रमुखता से इस मुद्दे को उठाया भी है। इस विषय को लेकर वे पंजाब में जनजागरण यात्रा भी निकाल चुके हैं और सतलुज नदी को प्रदूषण से बचाने के भरसक प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु अभी तक इसके वांछित परिणाम नहीं निकले हैं। संत कहते हैं कि उद्योगपतियों की लॉबी काफी मजबूत है जिसके चलते नदी को साफ रखने की सारी सरकारी घोषणाएं व चिंताएं केवल कागजों या भाषणबाजी तक ही सीमित हैं। उल्लेखनीय है कि संत सींचेवाल 500 किलोमीटर लंबी कालीबेई नदी का पुनरुद्धार कर चुके हैं। कहते हैं, इसी नदी में डुबकी लगाने के बाद गुरुनानक देव जी को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इस काम के लिए संत सींचेवाल को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे अब्दुल कलाम सम्मानित भी कर चुके हैं।

भूजल में खतरनाक पदार्थ

पंजाब का भूजल निरंतर नीचे जाने के साथ साथ प्रदूषित भी हो रहा है। मोगा, फरीदकोट, बठिंडा व मानसा जिलों में कई नलकूपों से लिए गए नमूनों में पाया गया है कि इस जल में यूरेनियम की मात्रा भी खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। सूचना के अधिकार के तहत स्वास्थ्य विभाग के निदेशक ने बताया कि घग्गर नदी के पास के गांवों से लिए गए पानी के नमूने में आर्सेनिक व फ्लोरिन मिला है।

इसके निकटवर्ती गांव धरियाना में 90 प्रतिशत लोगों को हड्डियों, दांतों व चर्मरोग से पीड़ित पाया गया है। इन गांवों में युवा भी घुटनों के दर्द से पीड़ित पाए गए हैं। लोगों के हर दुख-दर्द में शामिल होने वाले कपूर सिंह बताते हैं कि बीमारी के कारण उनकी दोनों टांगें काटी जा चुकी हैं।

सामाजिक संगठन संकल्प के अध्यक्ष श्री जितेन्द्र कुमार जैन कहते हैं कि औद्योगीकरण व खेती के कथित आधुनिकीकरण ने पंजाब को दूषित कर दिया है। कितने दुख की बात है कि जब सरकार को केन्द्रीय भण्डार भरने थे तो उसने पंजाब का खूब दोहन किया और आज जब किसान परेशानी में हैं तो उनका साथ नहीं दिया जा रहा।

बठिंडा पट्टी के गांव जज्जल व ज्ञाना का नाम लिए बिना कैंसर की कहानी पूरी नहीं हो सकती। इन गांवों में शायद ही ऐसा कोई परिवार हो जहां के सदस्य कैंसर का इलाज न करवा रहे हों। यहां तक कि एक परिवार में तीन-चार मरीज मिल जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। गांव के लोग अब निराश हैं, जज्जल गांव के निवासी बलकार सिंह कहते हैं कि कहानी लिखने, नमूने भरने व सर्वेक्षण करने वाले तो हर रोज आते हैं, परंतु वह दिन कब आएगा जब उनको राहत देने वाले आएंगे? द

असम/ मनोज पाण्डेय

उल्फा ने दिखाए तीखे तेवर

कांग्रेसी दावों की खुली पोल

असम में शांति लाने व उल्फा विद्रोहियों को मुख्यधारा में शामिल करने की बातें कांग्रेसी नेता व राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई पिछले कई वर्षों से कर रहे हैं। लेकिन उल्फा के सैन्य कमांडर परेश बरुआ ने एक बार फिर अपनी स्थिति साफ करते हुए कांग्रेसी सरकार के दावों की पोल खोल दी है। हाल ही में एक स्थानीय अखबार व टेलीविजन चैनल के पत्रकारों को दिए उल्फाध्यक्ष के साक्षात्कार ने राज्य सरकार व कांग्रेस आलाकमान को झकझोर कर रख दिया है। परेश बरुआ ने सरकार से शांतिवार्ता कर रहे गुट को “असंवैधानिक” बताते हुए शांति वार्ता को अर्थहीन करार दिया है। उसने साफ शब्दों में कहा कि उल्फा आज भी अपने विद्रोही विचारों पर कायम है और वे सरकार के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहते। उसने अपनी विद्रोही मांगों को फिर से दोहराया। निजी चैनल द्वारा दिखाए गए दृश्यों में उल्फा के लंबे-चौड़े शिविर और अत्याधुनिक हथियारों से लैस कैडरों को देखा जा सकता था। यहां तक कि परेश बरुआ भी साक्षात्कार में निश्चिंत दिखा और बेखौफ होकर साक्षात्कार देता नजर आया। उल्फा शिविर में फुटबाल मैच होते भी दशार्या गया जिसमें परेश बरुआ भी खेलता दिखाई दिया। इस साक्षात्कार के चलते, प्रश्न यह उठता है कि केन्द्र सरकार के साथ शांति वार्ता कर रहा उल्फा गुट सही मायने में कितना महत्व रखता है। क्या इस गुट से वार्ता करके उल्फा को रास्ते पर लाया जा सकेगा? यदि नहीं, तो फिर राज्य सरकार वार्ता के नाम पर असम की आम जनता का लाखों रुपया वार्ता कर रहे गुट के भरण-पोषण के नाम पर क्यों खर्च कर रही है? कहीं इस सबके बीच कांग्रेसी नेता अपने स्वार्थ तो पूरे नहीं कर रहे, कहीं वे जनता को बरगलाकर अपनी जेबें तो नहीं भर रहे? असम में शांति वार्ता के सही रास्ते पर बढ़ने की स्थिति क्या तब मानी जाए, जब बातचीत उल्फा के सैन्य कमांडर और विद्रोही गुट पर खासा प्रभाव रखने वाले परेश बरुआ से होगी, न कि अरविंद राजखोवा गुट से, जिसे अलग होने के बाद बरुआ ने “असंवैधानिक” कहा है?

उल्लेखनीय है कि पाञ्चजन्य ने तीन वर्ष पहले ही वार्ता की पहल कर रहे गुट के मंसूबों को साफ कर दिया था। फिर भी राज्य सरकार शांति वार्ता की आड़ में उल्फा को सुदृढ़ होने का समय व अवसर देती रही, जिसके कारण एक बार फिर उल्फा एक खतरनाक विद्रोही गुट के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। उल्फा के सैन्य कमांडर परेश बरुआ ने एक बार फिर अपने मंसूबों को जाहिर कर सरकार को अप्रत्यक्ष रूप से धमकाया ही है।

बहरहाल, राज्य की कांग्रेस सरकार व उसके मुख्यमंत्री गोगोई परेश बरुआ की इस नई चेतावनी के बाद सकते में हैं और उनसे मीडियाकमिर्यों के सवालों के जवाब देते नहीं बन पा रहे हैं। लेकिन इस सबके बीच राज्य के उन नागरिकों की आस का क्या, जो वर्षों की मारकाट-हिंसा व विस्फोटों के माहौल से त्रस्त असम जैसे खूबसूरत प्रदेश में शांति की राह देख रहे हैं? गोगोई सरकार कोरे वायदों की बजाय धरातल पर कोई सकारात्मक कदम कब उठाएगी?द

सर्व शिक्षा अभियान धुंधलके में

गरीब बच्चों पर भारी सरकारी नीति

बच्चों को अपने माता-पिता की अंगुली थामे विद्यालय जाते हुए आपने कई बार देखा होगा। लेकिन जरा इस रपट के साथ छपी तस्वीर को देखिए। ये वे गरीब बच्चे हैं जो अधजली किताबों की राख छान रहे हैं। जी हां, डिब्रूगढ़ शहर के थाना चाराली क्षेत्र में गत दिनों लगी भयावह आग के बाद दुकानों की सफाई के दौरान स्थानीयजन को यह नजारा कई दिनों तक देखने को मिला। लगभग सभी की जुबान पर एक ही बात थी कि क्या ये बच्चे ही हैं देश का भविष्य?

आज भी देश की एक बड़ी आबादी निरक्षरता के अंधेरे तले दबी हुई है, जिसे शिक्षा की ज्योति से जगमगाने के प्रयास के तौर पर सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया गया और शिक्षा को मौलिक अधिकार की संज्ञा दी गयी। इसके तहत स्कूली किताबें, मध्याह्न भोजन व अब वर्दी भी मुहैया करवायी जा रही है। पर जमीनी सच्चाई तो यह है कि अभी भी यह अभियान गरीब तबके के बच्चों से काफी दूर है, जिसके कारण शहर व विभिन्न क्षेत्रों में कूड़ा बीनते व होटल-दुकानों में काम करते बच्चे आसानी से देखे जा सकते हैं। वहीं, दूसरी तरफ राज्य के शिक्षा मंत्री हिमंत विश्व शर्मा शिक्षा विभाग में आमूल परिवर्तन लाने की बात कहते नहीं थकते। पर वास्तविकता तो यह है कि उनके “आमूल परिवर्तन” के कारण बहुत से माध्यमिक स्कूलों के बच्चे आज भी पुस्तकों के लिए तरस रहे हैं। शिक्षकों व अभिभावकों को चिंता है कि बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी। जहां राज्य के शिक्षामंत्री एक तरफ हर किलोमीटर पर एक प्राथमिक व तीन किलोमीटर पर एक अंग्रेजी विद्यालय का निर्माण कराने की बातें कह रहे हैं, वहीं वर्षों से चल रहे विद्यालय पुस्तकों को तरस रहे हैं। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि माध्यमिक विद्यालयों की पुस्तकें सिर्फ सर्व शिक्षा अभियान के तहत ही उपलब्ध हैं, खुले बाजार में ये उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही, अगर कोई बाजार में ये पुस्तकें बेचते हुए पाया जाता है तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जाती है। प्रश्न उठता है कि अन्य विद्यालयों में पढ़ रहे गरीब व मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों का भविष्य क्या होगा? क्या सिर्फ विज्ञापनों व भाषणों से ही देश से निरक्षरता समाप्त हो जायेगी? यदि नहीं तो जो बच्चे अन्य विद्यालयों में पढ़ रहे हैं उन्हें पुस्तकों से वंचित कर देना कहां तक जायज है? क्या यह सरकार द्वारा बच्चों के मौलिक अधिकार का हनन है?द

उड़ीसा/ पंचानन अग्रवाल

जहरीली शराब या जहरीली दवा?

कटक जिले के महिधरपाड़ा एवं खुर्दा जिले के भिंगारपुर में जहरीली शराब पीने से 33 लोगों की मौत हो गई है, 27 का विभिन्न अस्पतालों में इलाज चल रहा है। कटक में मरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। हालांकि कई लोग जहरीली शराब के बजाए एक जहरीली दवा के इस्तेमाल को भी मौतों का जिम्मेदार मान रहे हैं। बहरहाल, जांच जारी है।

जहरीली शराब कांड के मुख्य आरोपी मृतक बाइधर भोई की पत्नी एवं दोनों बेटों को पुलिस हिरासत में लेकर पूछताछ कर रही है। सूचना के मुताबिक, देशी शराब व्यापारी बाइधर भोई से आम दिनों की तरह 6 फरवरी की रात को कुछ मजदूरों ने देशी शराब खरीदी थी। बाईधर खुद भी शराब पिए हुए था। बताते हैं, शराब पीने के कुछ घंटों बाद सीने में जलन होने लगी। 7 फरवरी को बाईधर की मौत हो गई। अन्य प्रभावित लोगों को अस्पताल ले जाया गया, जहां हर दो घंटे बाद मौत का आंकड़ा बढ़ता गया। 8 फरवरी तक 33 लोगों की मौत हो चुकी थी।

इस घटना को लेकर भुवनेश्वर में रसूलगढ़ औद्योगिक क्षेत्र स्थित ईस्टर्न फारमास्यूटिकल लेबोरेटरी के दवा कारखाने को सील कर दिया गया है। संदेह है कि इस कंपनी की दवा की शीशी में शराब बेची जा रही थी। कटक जिलाधीश एवं भुवनेश्वर पुलिस आयुक्त विजय कुमार शर्मा ने शराब से हुई मौतों को गंभीरता से लेते हुए जांच शुरू कर दी है। द

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