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अहमदिया समुदाय के मामले में चुप्पी क्यों?

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Feb 18, 2012, 12:00 am IST
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अहमदिया समुदाय के मामले में चुप्पी क्यों?

दिंनाक: 18 Feb 2012 14:09:05


पाकिस्तानी
दैनिक 'डॉन' ने उठाया सवाल

मुजफ्फर हुसैन

पिछले दिनों पाकिस्तानी दैनिक 'डॉन' ने दो सम्पादकीय कलमबद्ध किए हैं। उनमें प्रथम सम्पादकीय का शीर्षक है 'वाय दिस कोलावरी डी' और दूसरा है जयपुर के तुरन्त बाद करांची में होने वाले साहित्य उत्सव के सम्बंध में। अहमदिया समुदाय, जिसे पाक संसद और सर्वोच्च न्यायालय ने गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया है, के सम्बंध में दैनिक 'डॉन' ने इन्हीं दिनों एक 'ब्लाग' में भारत के प्रसिद्ध गीत कोलावरी डी के शीर्षक के साथ प्रकाशित किया है। 'ब्लाग' लेखक मुर्तजा राजवी ने सवाल उठाया है कि इस्लामी देश पाकिस्तान में क्या अहमदिया लोगों के साथ किया जाने वाला बर्ताव ठीक है? उन्होंने लिखा है, 'हाल में रावलपिंडी में अहमदिया समुदाय के लोगों के विरुद्ध एक सभा में जोरदार भाषण किए गए। वहां कुछ मजदूर संगठनों और पीएमएलएन के स्थानीय नेताओं के आह्वान पर हजारों लोग एक सामुदायिक केन्द्र के बाहर जमा हुए। उन लोगों ने अहमदिया सामुदायिक केन्द्र को बंद करने के साथ अहमदिया लोगों को देश निकालने की मांग भी की। पाकिस्तान में अहमदिया लोगों के साथ हो रहे व्यवहार को लेकर हमेशा विवाद रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उक्त रैली स्वयं अल्पसंख्यक समूह के मुसलमानों ने आयोजित की थी। ये लोग पैगम्बर मोहम्मद साहब का जन्मदिन मनाने के विरोधी हैं। उनके मत के अनुसार ऐसा करने वाले लोग तालिबान के ही समान हैं। यही नहीं, ये लोग मुस्लिम विरोधी मत वाले सम्प्रदायों और उनकी मस्जिदों पर हमले भी कर रहे हैं। इन संगठनों के लोग स्कूल, कालेज की लड़कियों और महिलाओं पर भी यह कहकर निशाना साधते रहे हैं कि वे घर से बाहर क्यों निकलती हैं? मोटे तौर पर ऐसे लोगों का मानना है कि यदि कोई उनके मत का समर्थक नहीं है तो उसे मार देना न्याय-संगत है। समस्या यह है कि पाकिस्तान में और सम्भवत: पूरी दुनिया में ऐसी कट्टर सोच वाले मुसलमान बहुतायत में हैं। इससे उनकी बुद्धिहीनता और नैतिकवाद का खोखलापन प्रकट होता है कि दूसरों के मत या सम्प्रदाय के लोगों को कानूनी तौर पर अपनी बात कहने और जीने का अधिकार नहीं है। ये बातें अत्यंत खतरनाक हैं।'

दृष्टिकोण बदलेगा?

उक्त सम्पादकीय के लिखे जाने के एक सप्ताह के  भीतर ही दैनिक 'डॉन' ने एक दूसरा सम्पादकीय 'लिटरेचर फेस्टीवल' के शीर्षक से लिखा है। 'डॉन' ने लिखा है, 'इस मेले में दुनिया भर के लेखक, कवि, पत्रकार और बुद्धिजीवी जुटते हैं। इस वर्ष यह मेला अपने तीसरे वर्ष में प्रवेश कर गया है। अब इसे 'कल्चरल केलेंडर' में एक महत्वपूर्ण जगह दी जाने लगी है। साहित्य से जुड़े मेले अनके देशों में आयोजित किए जाते हैं। लेकिन पाकिस्तान जैसे देश में इसका आयोजन करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इस बार इस मेले में कई सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर चर्चाओं का कार्यक्रम रखा गया है। और यहां कलाओं के प्रति लोगों में एक रुझान पैदा करने के लिए कुछ म्युजिकल प्रस्तुतियां कराने की योजना है। इस मेले की सबसे बड़ी सफलता यह है कि विक्रम सेठ और हनीफ कुरैशी जैसे दिग्गज शामिल हैं। पाकिस्तान में सुरक्षा की जो स्थिति है उसे देखते हुए इतने लोगों का आना एक बड़ी बात है। विदेशी लोग, जिनमें विशेषकर लेखक अपनी सुरक्षा के कारण से ही पाकिस्तान आने में हिचकिचाते रहे हैं। इस प्रकार के आयोजन से न केवल पाकिस्तान के बारे में लोगों का दृष्टिकोण बदलेगा, बल्कि विभिन्न मामलों पर पाकिस्तान की आवाज भी सुनी जाएगी। आशा है कि इस प्रकार के आयोजन पाकिस्तान के अन्य नगरों में भी हो सकेंगे।'

दयनीय स्थिति

दैनिक 'डॉन' ने अपने प्रथम सम्पादकीय में पाकिस्तान की सामाजिक स्थिति कितनी दयनीय है इसका एक चित्र प्रस्तुत किया है। जबकि दूसरे सम्पादकीय में 'लिटरेचर फेस्टीवल' को इस प्रकार के रोगों से मुक्ति दिलाने वाली दवा बताया है।  किन्तु 'डॉन' के सम्पादक खुल्लम-खुल्ला अपना यह मत व्यक्त नहीं कर सके कि साहित्य का सृजन समाज के लिए होता है। वास्तव में दोनों एक-दूसरे के लिए दर्पण का काम करते हैं। पाकिस्तान की सामाजिक स्थिति पर कट्टरवाद छाया हुआ है। यदि भारत के विभाजन के समय भारत के इस दर्द को पाकिस्तान के नेताओं ने समझा होता तो आज यह  नौबत नहीं आती। भारत हो या पाकिस्तान, वहां के  मुस्लिम कट्टरवादियों का  मजहब से कोई लेना-देना नहीं है। उनके लिए कट्टरवाद सत्ता तक पहुंचने की एक सीढ़ी है। इसलिए उन्हें अपना यह हथियार हमेशा धारदार बनाए रखने की आवश्यकता पड़ती है। वे कभी रुशदी प्रकरण को लेकर, तो कभी अहमदिया मामले को सुलगा कर अपना उद्देश्य पूरा करने का प्रयास करते हैं।

जयपुर साहित्य उत्सव हो या फिर कराची महोत्सव दोनों के सम्मुख यह सवाल महत्व का था कि साहित्य जिस प्रकार का समाज बनाना चाहता है, क्या इन दिनों इसका कोई प्रयास हो रहा है? जयपुर महोत्सव रुश्दी की भेंट चढ़ गया और कराची अहमदियों को लेकर विवाद के घेरे में है। भारत में तो प्रेस की आजादी के कारण यह मुद्दा गर्माया भी, लेकिन अहमदिया सम्प्रदाय के लिए 'डॉन' ने जो लिखा है उसकी वहां चर्चा भी हुई या नहीं यह कह पाना कठिन है। कराची के आयोजकों के लिए सन्तोष का विषय है। जयपुर में भी आयोजक पल्ला झाड़ रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि साहित्य में जो कुछ लिखा जाता है यदि समाज का बड़ा वर्ग उसे स्वीकार कर लेता है तब तो वह उसकी पूंजी है और जब विरोध दर्शाया जाता है तो यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि उनका उससे कोई लेना-देना नहीं। इस प्रकार के सम्मेलन अपना प्रचार बटोर सकते हैं लेकिन जिस समाज की पैरवी के लिए वे एकत्रित हुए हैं उसका भला नहीं कर सकते ।

साहित्य सम्मेलन की निरर्थकता

जयपुर में रुश्दी का कोई मसला था ही नहीं। अप्रवासी भारतीय होने के कारण उन्हें भारत आने से नहीं रोका जा सकता था। यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव नहीं होते तो सरकार हाथ झटक सकती थी। लेकिन वोट बैंक के लिए उसने रुश्दी को अपने यहां नहीं आने देने में ही अपनी भलाई समझी। पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के साथ जो कुछ हो रहा है उसकी तो दुनिया भर्त्सना कर ही रही है। यदि मानवता के आधार पर कराची साहित्य सम्मेलन इस पर अपने तेवर दिखाता तो निश्चित ही कुचली मानवता को इससे राहत मिलती। दैनिक 'डॉन' ने तो अपना दायित्व पूरा किया है लेकिन देश-विदेश से आए साहित्यकार अब भी कटघरे में खड़े हैं। सम्मेलन में अपनी किसी कृति को प्रस्तुत कर देना या फिर कुछ लोगों को सम्मानित करके वाहवाही हासिल कर लेना ही इनका एकमात्र उद्देश्य है तो फिर इस प्रकार के सम्मेलनों को साहित्य की परिभाषा देना कहां तक ठीक है? इस प्रकार के बड़े साहित्य सम्मेलन स्वयं के अहं को शांत कर लेने के लिए तो पर्याप्त हो सकते हैं, लेकिन जो साहित्य सृजन का उद्देश्य होता है उस पर तो वे कदापि खरे नहीं उतरते हैं।

वे गैर–पाकिस्तानी नहीं हैं

दैनिक 'डॉन' ने सम्मेलन प्रारम्भ होने से पहले अपना सम्पादकीय लिखकर अपना दायित्व निभाया, लेकिन पाकिस्तान में एकत्रित हुए साहित्यकारों ने अपना धर्म किस हद तक निभाया यह आत्म मंथन करने का सवाल है। गैर-इस्लामी घोषित कर देने के बाद भी अहमदिया सम्प्रदाय पाकिस्तान में आए दिन अत्याचारों का शिकार होता है। पाक सरकार उन्हें अपने पासपोर्ट में अपना मजहब इस्लाम नहीं लिखने देती है। उनके प्रार्थना स्थल मस्जिद नहीं कहलाते हैं। यानी मजहबी आधार पर उन्हें मुसलमान होने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। लेकिन सरकार के सामने मजहब ही सब कुछ नहीं है। इस्लामी देश होने के कारण पाकिस्तान के मुस्लिम नेता उन्हें गैर-इस्लामी तो मान सकते हैं, लेकिन गैर-पाकिस्तानी नहीं। जब वे पाकिस्तान के नागरिक हैं तो सरकार उन्हें सुरक्षा देने से किस प्रकार मुंह मोड़ सकती है? जुल्फिकार अली भुट्टो ने जब अहमदिया सम्प्रदाय के विरुद्ध मुनीर आयोग स्थापित किया, उस समय उन्हें गैर-मुस्लिम होने का प्रमाण पत्र दे दिया गया। लेकिन अब तक उन्हें गैर-पाकिस्तानी नहीं कहा गया है। मानव अधिकार आयोग में आज भी उनके लिए स्थान है। यदि अहमदिया सम्प्रदाय राष्ट्र संघ के मानव अधिकार आयोग में अपनी शिकायत करता है तो उन्हें सुरक्षा देना पाक सरकार का दायित्व हो जाता है। दैनिक 'डॉन' ने कराची साहित्य सम्मेलन के अवसर पर अहमदिया समुदाय की आवाज बुलंद करके उनकी समस्याओं की तरफ दुनिया का जो ध्यान आकर्षित किया है, वह इसके लिए निश्चित ही बधाई का पात्र है। 'डॉन' ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य समारोह के अवसर पर यह मुद्दा उठा कर मानवता का सिर ऊंचा किया है, इसमें दो राय नहीं हो सकती हैं। अहमदियों का प्रश्न होने के बावजूद वहां की जनता ने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर यह दर्शा दिया है कि वह आने वाले समय को पहचानती है।।

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