दृष्टिपात
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दृष्टिपात
द आलोक गोस्वामी
कश्मीरियों को नैतिक, सियासी समर्थन जारी रखने की कसमें
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने 5 फरवरी को इस्लामाबाद में जो तकरीर की वह उनके सद्बुद्धि की राह पर बढ़ने का इशारा है या भारत, या कहें कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी सियासतदानों के मन में भरी दुर्भावना को मुलम्मे के पीछे छुपाने की नाकाम कोशिश? गिलानी ने तकरीर में कहा कि “आज 21वीं सदी में पाकिस्तान भारत से एक और युद्ध करना गवारा नहीं कर सकता।” पाकिस्तान पहले ही कश्मीर पर चार लड़ाइयां (1947-48, 1965, 1971 और 1999) लड़ चुका है और चारों में उसे मुंह की खानी पड़ी है। गिलानी ने दार्शनिकी अंदाज में यह भी कहा कि “कश्मीर मुद्दा बातचीत, कूटनीति और राष्ट्रीय आम सहमति के जरिए सुलझाना चाहिए। कश्मीर मुद्दे पर चार लड़ाइयों के बाद भी यह बड़ा मुद्दा बना हुआ है। पर अब हम एक और लड़ाई गवारा नहीं कर सकते।” बातचीत और कूटनीति की मीठी-मीठी बातें करने के बाद अगले ही पल यूसुफ ने पैंतरा बदलते हुए कहा, “हम कश्मीरियों को नैतिक, सियासी और कूटनीतिक समर्थन देते रहने को प्रतिबद्ध हैं।” यह वही भाषा है तो जिहादी जनरल (मुशर्रफ) बोला करते थे। वही जनरल जिन्होंने वाजपेयी सरकार की दोस्ताना पहल के जवाब में कारगिल रचा था।
गिलानी के शब्दों में, “तमाम सियासी दलों सहित पूरा देश कश्मीर के सवाल पर एक है।” “कश्मीर सम्मेलन” में गिलानी ने अपने परमाणु देश होने की बाबत भी जुमले गढ़े और पाकिस्तान को एक “जिम्मेदार” देश बताया। भारत के विदेश मामलों, खासकर पाकिस्तान मामलों के जानकार गिलानी के इस भाषण को बारीकी से परखते हुए कह रहे हैं कि मीठी-मीठी बातों की आड़ में उनकी असली सोच से ध्यान नहीं हटना चाहिए। पाकिस्तानी हुक्मरानों की यह फितरत रही है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के आगे खुद को नेकनीयत वाला दिखाकर पीठ पीछे कट्टरवादी मंसूबों को अंजाम देते हैं। कश्मीर हमेशा से पाकिस्तानियों को चुभता रहा है। लेकिन भारत को तो कश्मीर पर बस दो टूक बात करनी चाहिए और पाकिस्तान द्वारा कब्जाए कश्मीर को वापस लेना चाहिए, यही भारतीय संसद ने भी सर्वसम्मति से कहा है।थ्
चीन में
गुस्साए तिब्बतियों का आत्मदाह
चीन में रह रहे तिब्बतियों में सरकारी दमन के खिलाफ बेहद आक्रोश है और पिछले दिनों सिचुआन प्रांत में चीनी सुरक्षाकर्मियों ने तिब्बतियों पर जैसा निर्मम प्रहार किया उसने तिब्बतियों को भीतर तक आहत किया है। इस गुस्से का ताजा प्रकटीकरण सिचुआन में तीन तिब्बतियों द्वारा आत्मदाह की कोशिश के रूप में हुआ। बीजिंग में रहने वाले तिब्बतियों और तिब्बती मानवाधिकार समूह के अनुसार, उन तीनों ने चीन सरकार के राजनीतिक और पांथिक दमन के विरुद्ध यह कदम उठाया। इसे मिलाकर चीन में आहत तिब्बतियों द्वारा आत्मदाह करने की बीते साल में 19 घटनाएं हो चुकी हैं।
3 फरवरी को सिचुआन की सेडा काउंटी के सुदूर गांव में घटी आत्मदाह की उस घटना की जानकारी दो दिन बाद ही बीजिंग पहुंच पाई, क्योंकि सरकार ने कभी बौद्ध अध्ययन का केन्द्र रहे उस इलाके की टेलीफोन और इंटरनेट की लाइनें काटी हुई हैं। आत्मदाह करने वालों में से एक की मौत हो गई जबकि दो गंभीर रूप से झुलसे थे। चीन सरकार ने उस इलाके के कई क्षेत्र सील करके चौकसी बढ़ा दी है ताकि तिब्बतियों का आक्रोश सड़कों पर न फूट पड़े। अभी जनवरी में, सेडा में ही तिब्बतियों का प्रदर्शन घातक बन गया था। पुलिस से मुठभेड़ में कई प्रदर्शनकारियों की जानें गई थीं। तिब्बतियों में काफी हताशा है क्योंकि चीन में उनकी सुनने वाला कोई नहीं है, सरकार भी उनकी मांगों पर चुप्पी साधे बैठी है।
उधर चीन के विदेश विभाग के प्रवक्ता लियु वीमिन का कहना था कि “उन्माद भड़काने की हर कोशिश से सख्ती से निपटा जाएगा। पिछले महीने तिब्बतियों और पुलिस के बीच सिचुआन प्रांत में हुई झड़पों के पीछे “अपराधियों” का हाथ है जिसे तिब्बती स्वतंत्रता की पैरवी करने वाले विदेशी गुटों ने हवा दी थी।” यह चीनी अधिकारी इस मामले में भी दलाई लामा का नाम लेना नहीं भूला।थ्
मालदीव में
नाशीद गए, हसन आए
मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद को आखिरकार कुर्सी छोड़नी पड़ी। वहां एक बड़े वाले जज की गिरफ्तारी के बाद धरना-प्रदर्शनों ने ऐसा तूफान खड़ा कर दिया कि पुलिस तक प्रदर्शनकारियों के पाले में जा खड़ी हुई और नाशीद के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ती गई। अंतत: टेलीविजन पर देश से बात करते हुए मोहम्मद नाशीद ने कुर्सी छोड़ दी। इस्तीफे के बाद सड़क पर जुलूस निकालते हुए नाशीद ने बताया कि उनसे बंदूक की नोक पर इस्तीफा मांगा गया था। “यूनीसेफ” के एक बड़े अधिकारी के रूप में काम कर चुके मोहम्मद वाहिद हसन को तुरन्त राष्ट्रपति बना दिया गया और जज को रिहा कर दिया गया। आपराधिक अदालत के मुख्य न्यायाधीश अब्दुल्ला मोहम्मद की गिरफ्तारी ही दरअसल नाशीद के हटने की तात्कालिक वजह बनी। न्यायाधीश अब्दुल्ला ने नाशीद की निष्ठावान पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए विपक्षी राजनेता को रिहा कर दिया था, इससे नाराज नाशीद ने अब्दुल्ला को जेल में डलवा दिया था, उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे।
2008 में लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए मैमून अब्दुल गयूम के 30 साल के राज को खत्म करके लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे नाशीद पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपने कामों से खासे चर्चित रहे थे। उनके सत्ता में आने पर टापू के लोगों ने खुशियां मनाई थीं। लेकिन इस सुन्नी मुस्लिम देश में बीते साल से नाशीद के खिलाफ मोर्चे निकाले जाने लगे थे। आम लोग महंगाई के खिलाफ सड़कों पर उतरे तो इस्लाम-बरदार रूढ़िवादी नीतियां बनाने की मांग करने लगे। पुलिस नाशीद की थी, सो प्रदर्शनकारी पकड़े जाते और सरकार के वफादार खुलकर मजमा लगाते। लेकिन तीन हफ्ते पहले मुख्य न्यायाधीश की गिरफ्तारी नाशीद को भारी पड़ी। पुलिस ने साथ छोड़ दिया और इस्तीफे की मांग तेज हो गई और इस तरह लोकतंत्रवादी नाशीद को हटना पड़ा।थ्
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