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जिहादियों को दुलार वैज्ञानिकों को दुत्कार

by
Feb 11, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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आवरण कथा

दिंनाक: 11 Feb 2012 22:29:25

मनमोहन सरकार का अजब व्यवहार

आलोक गोस्वामी

देश का विज्ञान जगत हैरान है। नामी-गिरामी वैज्ञानिक पसोपेश में हैं। विज्ञान-संस्थान खामोश हैं। युवा वैज्ञानिक इस सरकार के तहत देश के विज्ञान-भविष्य को लेकर ऊहापोह की स्थिति में हैं। मीडिया में बहस छिड़ी है। अखबारों में कालम दर कालम नित नए आयाम उजागर हो रहे हैं। सरकार चुप है! उसकी ओर से अपनी आधी-अधूरी जानकारी के साथ बोल रहे हैं तो बस प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री पद पर बैठे एक अदद नेता। देश के विशिष्ट भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने अंतरिक्ष- देवास संधि में कथित अनियमितताओं की जांच कर रही पांच सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति की रपट के निष्कर्ष और संस्तुतियों के अंश जारी किए और इसके साथ ही सरकार की ओर से तमाम सचिवों को चिट्ठी भेजकर फरमान जारी कर दिया गया कि इसरो के पूर्व अध्यक्ष, देश के शीर्ष वैज्ञानिकों में से एक जी. माधवन नायर सहित इसरो के तीन अन्य पूर्व अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को कोई सरकारी पद न दिया जाए। यह “एकतरफा” फैसला सरकार ने जांच दल की रपट को आधार बनाकर लिया, जिसमें सरकार के अंतरिक्ष विभाग के अनुसार, अंतरिक्ष-देवास संधि में “कायदों की अनदेखी” की गई थी। चूंकि माधवन नायर उस समय इसरो के अध्यक्ष थे अत: रपट में उन्हें व इसरो में रह चुके तीन अन्य वैज्ञानिकों को इसका जिम्मेदार ठहराया गया है। सरकार के इस फैसले से माधवन नायर न केवल आहत हैं बल्कि वह इसके पीछे इसरो के वर्तमान अध्यक्ष डा.राधाकृष्णन का हाथ बताते हैं। नायर का यह भी कहना है कि जांच समिति ने उन्हें अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया, जबकि फौजी शासन तक में आरोप मढ़ने से पहले संबंधित व्यक्ति की बात सुनी जाती है। उन्हें खेद है कि देश को चांद पर भेजने वाला पहला यान, चंद्रयान- 1 देने वाले वैज्ञानिक के साथ सरकार ऐसा बर्ताव कर रही है। ऐसी स्थिति में, नायर के अनुसार, देश में विज्ञान के भविष्य को लेकर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है।

निराधार आरोप

जिस संधि को “कायदों की अनदेखी करके देश को आर्थिक नुकसान पहुंचाने वाली” बताया जा रहा है वह इसरो के व्यापारिक प्रकोष्ठ अंतरिक्ष और देवास मल्टीमीडिया लि.के बीच 2005 में हुई थी। संधि के तहत मल्टीमीडिया ब्रॉडबैंड सेवाओं के लिए 1000 करोड़ रु. में देवास को दो खास तौर पर तैयार उपग्रह और 70 मेगा हटर््ज का एक बैंड स्पेक्ट्रम देना तय हुआ था। कुछ समय बाद मीडिया में खबरें आईं कि संधि बहुत कम कीमत पर की गई, कि यह देवास को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाने की कोशिश है, कि इससे सरकार को दो लाख करोड़ का नुकसान होगा। सरकार के कान खड़े हो गए। बात उस पर आ रही थी, क्योंकि इसरो प्रधानमंत्री कार्यालय से सीधे जुड़ा है और सीधे उसे ही रपट करता है। आरोपों की जांच के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव बी.के.चतुर्वेदी और अंतरिक्ष आयोग के सदस्य रोड्डम नरसिम्हा की जांच समिति ने संधि को खंगालना शुरू किया। अनेक वैज्ञानिकों और संबंधित अधिकारियों से पूछताछ के बाद निष्कर्ष आया कि सौदे की शर्तों में कहीं कुछ आपत्तिजनक नहीं था। समिति के अनुसार, देवास को कम कीमत पर स्पेक्ट्रम बेचने की बात निराधार है। अंतरिक्ष के स्पेक्ट्रम के लिए देवास को दूरसंचार विभाग, सूचना प्रसारण विभाग से लाइसेंस लेने जरूरी थे और ट्रांस्पोंडर लीज और ट्राई द्वारा निर्धारित की जाने वाली अन्य राशि भी देनी थी।

एक और समिति

लेकिन बात वहीं पर खत्म नहीं हुई। 2009 में माधवन नायर के इसरो का अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद देश के इस शीर्ष अंतरिक्ष संस्थान के अध्यक्ष बने डा.राधाकृष्णन ने संधि में खामी होने की बात एक बार फिर उठानी शुरू कर दी। उन्होंने सरकार को, नायर के अनुसार, गलत तथ्य दिए और एकतरफा बातें बताईं। लिहाजा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 31 मई 2011 को पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय उच्च स्तरीय जांच दल गठित कर दिया। हैरानी की बात तो यह है कि इस जांच दल में खुद डा.राधाकृष्णन को भी शामिल कर लिया गया, जिन्होंने संधि पर उंगली उठाई थी। बहरहाल, जांच दल को अंतरिक्ष-देवास के बीच विवादित संधि का अध्ययन करने की जिम्मेदारी दी गई। जनवरी 2012 के दूसरे हफ्ते में समिति ने अपनी रपट दी जिसमें “गंभीर प्रक्रियाजन्य खामियों” की बात तो की गई, पर इससे “सरकार को कोई आर्थिक नुकसान न होने” की भी पुष्टि की गई। जांच समिति ने इस बाबत माधवन नायर सहित तीन अन्य वैज्ञानिकों के खिलाफ कार्रवाई की संस्तुति की, जो हैं इसरो के पूर्व वैज्ञानिक सचिव के.भास्कर नारायण, अंतरिक्ष के पूर्व प्रबंध निदेशक के.आर.श्रीधरमूर्ति और इसरो उपग्रह केन्द्र के पूर्व निदेशक के.एन.शंकर। 13 जनवरी को ही सरकार की ओर से उक्त चारों वरिष्ठ वैज्ञानिकों को भविष्य में कोई भी सरकारी पद न दिए जाने की ताकीद करते हुए सचिवों को चिट्ठी भेज दी गई।

माधवन की उपलब्धियां

सरकार के इस हैरान कर देने वाले निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अंतरिक्ष वैज्ञानिक माधवन नायर ने कहा कि कौन जा रहा है सरकार के पास कोई पद मांगने। यह उसका अपना फैसला है, वह जो चाहे कहे। उन्होंने कहा कि 2003 से 2009 के बीच इसरो के अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने जो देश के लिए किया है उसे दुनिया जानती और मानती है। नायर का यह कहना सही है, क्योंकि अंतरिक्ष विज्ञान में भारत के बढ़ते कदमों और क्षमताओं को पहचानते हुए ये नायर ही थे जिन्होंने चांद पर भारत का अपना पहला यान भेजने का पूरा खाका तैयार किया था। नवम्बर 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसरो के नेतृत्व में इसके निर्माण और प्रक्षेपण को अपना पूरा समर्थन देते हुए यान को “चन्द्रयान” नाम दिया था। “चंद्रयान-1” 22 अक्तूबर 2008 को श्रीहरिकोटा से छोड़ा गया था, जिसने विज्ञान जगत के लिए नए अनुसंधानों का मार्ग खोलते हुए नायाब जानकारियां उपलब्ध कराई हैं। उनके अध्यक्ष पद पर रहते हुए भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में कितनी उपलब्धियां हासिल की थीं, वह किसी से छुपा नहीं है। नायर के नेतृत्व में मात्र 6 साल के दौरान इसरो ने 25 अभियानों को अंजाम दिया था, जिनमें से प्रमुख हैं-इंसेट-3 ई, एडूसेट, इंसेट-4 ए, पीएसएलवी सी-5, सी-6, सी-7, सी-8, सी-9, सी-10, सी-11, सी-12, सी-14, जीएसएलवी एफ-04, चंद्रयान-1 आदि।

एकतरफा रपट

रपट को एकतरफा बताते हुए नायर ने कहा, किसी भी जांच में आमतौर पर एक आरोप पत्र या खामियों वगैरह का निर्धारण किया जाता है और उनकी सफाई मांगी जाती है। इस मामले में यह नहीं किया गया। कोई भी जांच समिति दोषी पाए लोगों को नोटिस भेजकर उनके जवाब पाने के बाद ही कोई कदम उठाती है। इन सब प्रक्रियाओं की अनदेखी की गई है। देवास से संधि को निरस्त करने से लेकर अब तक की गई पूरी कवायद आधे-अधूरे सच पर आधारित है जो सरकार को गुमराह करने जैसा ही है। नायर ने प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री नारायणसामी के उस बयान, कि अंतरिक्ष-देवास संधि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर निरस्त की गई है, स्पेक्ट्रम बेचने से अनुमानित नुकसान के कारण नहीं, पर कहा कि नारायणसामी का ही बयान विरोधाभासी है। अगर वे (नारायणसामी) जो कह रहे हैं, वही सच है तो फिर दोषारोपण करने की जरूरत ही कहां थी? आखिर कोई यह क्यों नहीं बताता कि सिन्हा समिति उन निष्कर्षों पर कैसे पहुंची? आखिर सरकार के स्तर पर लिए गए फैसले के पीछे असल में है कौन? कोई सामने क्यों नहीं आता?

नायर का सीधा इशारा डा.राधाकृष्णन की तरफ है। अंतरिक्ष विभाग के सचिव राधाकृष्णन का कहना है कि प्रत्यूष सिन्हा समिति के “विस्तृत” पत्र में लिखे आरोपों, खामियों और अनियमितताओं को देखते हुए एक जांच की गई थी। इसे एक और झूठ बताते हुए नायर कहते हैं कि उस पत्र में देवास का वही इतिहास है जो अंतरिक्ष विभाग की आंखों से देखा गया है। आखिर राधाकृष्णन ऐसा क्यों करेंगे? इसके जवाब में नायर का कहना था, उन्होंने शायद इसरो में अपने पूर्व वरिष्ठ अधिकारी एम.जी.चन्द्रशेखर (जो अब देवास मल्टीमीडिया के अध्यक्ष हैं) के अधीन कुछ झेला होगा, जिसका बदला लेने की गरज से उन्होंने (राधाकृष्णन ने) यह सब बखेड़ा खड़ा किया है। हो सकता है उन्होंने पूरी कहानी गढ़कर सरकार को किसी तरह गुमराह करके उसे किसी तय फैसले के लिए राजी कर लिया हो। नायर ने आरोप लगाया, राधाकृष्णन पूरी तरह मनमानी पर उतर आए हैं। वे तो यहां तक कहते हैं कि राधाकृष्ण रहे तो इसरो का भगवान मालिक है। इस देश में विज्ञान के भविष्य को लेकर चिंता पैदा हो गई है।

वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए चिंताजनक

यह सच है कि भारत को विज्ञान जगत में अंतरिक्ष की ऊंचाइयों पर ले जाने वाले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान यानी इसरो को लेकर देश में जो बवाल खड़ा किया गया है वह विज्ञान और उसके साधकों को पीड़ा पहुंचा रहा है। आखिर सच है क्या, यह सामने कैसे आएगा? इस सवाल पर माधवन नायर का कहना था कि एक सही तरीके से गठित जांच समिति के द्वारा एक स्वतंत्र और निष्पक्ष सार्वजनिक जांच हो। समिति में तकनीकी विशेषज्ञों का होना बेहद जरूरी है। सच सामने लाने का और कोई उपाय नहीं है।

राजनीतिक नेताओं का राजनीतिक पैंतरेबाजी में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना अक्सर देखने-सुनने में आता है, पर विज्ञान जगत में इस तरह के विवाद खड़े होना या किए जाना भीतर तक चुभता है। देश के वरिष्ठ वैज्ञानिक हैरान हैं कि सरकार के कथित दखल से अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक संस्थानों में भी ओछी राजनीति की घुसपैठ कराई जा रही है। नायर खुद कहते हैं कि वैज्ञानिकों को आजादी से काम करने देना चाहिए और उन्हें राजनीति से अलग रखना चाहिए। भारत को प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास करना है तो ये दो चीजें बेहद जरूरी हैं। नायर जैसे कद का वैज्ञानिक कुछ कहता है तो उसके मायने समझने चाहिए। सरकार का सिन्हा समिति की रपट पर एकाएक फतवा जैसा दे देना समझ से परे है। यह वही सरकार है जो देश की सबसे बड़ी अदालत से फांसी की सजा पाए संसद पर हमले के आरोपी जिहादी अफजल को बचाने के लिए तो सिर के बल खड़ी हो जाती है और बेसिरपैर के तर्क गढ़कर आहत देशवासियों के जख्मों पर नमक छिड़कती है, लेकिन देश को दुनिया में सम्मान दिलाने वाले वैज्ञानिकों की बात आती है तो तड़ से फरमान ठोक देती है। “क्या मैं आतंकवादियों से भी बदतर हूं”-नायर को ये शब्द कहते हुए कितनी मानसिक पीड़ा हुई होगी, जरा कल्पना कीजिए।द

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