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मेरे हिस्से आई अम्मा

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Feb 11, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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साहित्यिकी

दिंनाक: 11 Feb 2012 15:53:08

साहित्यिकी

गवाक्ष

शिवओम अम्बर

हिन्दी गजल में मां को केन्द्र में रखकर बहुत अच्छे अशआर पिछले दिनों अनेकानेक कवियों ने कहे। इन सबके मध्य युवा कवि आलोक श्रीवास्तव की मां के व्यक्तित्व को व्याख्यायित करती एक पूरी गजल अपनी सहजता, आत्मीयता और मार्मिकता के कारण एक अलग ही छाप छोड़ती है। प्राय: गजल के विविध अशआर विभिन्न विषयों पर टिप्पणियां करते चलते हैं किन्तु इधर हिन्दी में ऐसी गजलें भी खूब कही जाने लगी हैं जो एक ही विषय के विविध पक्षों पर नजर डालती हैं। आलोक को अपने समग्र जीवन पर मां की छाया ही नजर नहीं आती, घर के कोलाहल और सन्नाटे में भी मां ही समाहित दीखती है-

चिन्तन, दर्शन, सर्जन, जीवन, रूह, नजर पर छाई अम्मा,

सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तनहाई अम्मा।

भारतीय दर्शन की मान्यता है कि समग्र सृष्टि पांच तन्मात्राओं से निर्मित है। पंचतत्वों की इस सच्चाई को कवि मां में मूर्तित पाता है। जैसे ये पंचतत्व विविध आकारों में समन्वित हो उनकी विशिष्टिता की सृष्टि करते हैं उसी प्रकार मां भी अपने को खोकर अपनी सन्तति में समा जाती है-

उसने खुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है,

धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा।

धरती की सहिष्णुता, आकाश की अनन्तता, अग्नि की तेजस्विता, वायु की संवेदनशीलता और जल की आद्र्रता मिलकर मां की रूपरेखा बनाती हैं और फिर मां की ममता ही विस्तृत होकर पारिवारिकता की सृष्टि करती है, जिसमें आने वाली हर उलझन का समाधान भी उसी की सरलता और तरलता के पास रहता है-

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,

चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा।

गजल के समस्त इतिहास में “तुरपाई” शब्द का इतना सार्थक और कलात्मक उपयोग शायद ही पहले कहीं हुआ हो! झीने रिश्तों को तुरपाई करके बचाये रखना और किसी को घर की किसी भी टूटन की खबर तक न होने देना, किसी भी समर्पिता गृहिणी की परिपक्वता की निशानी है। मातृ-चेतना की इसी कठिन साधना ने भारतवर्ष में उस पारिवारिक आत्मीयता और संबंधों की ऊष्मा को बचाए रखा है जो पश्चिम की आत्मकेन्द्रित मानसिकता के लिए अलभ्य है। कवि इसी मां की आद्र्रा छवि को विविध बिम्बों के माध्यम से व्याख्यायित करते हुए कहता है-

सारे रिश्ते जेठ दुपहरी, गर्म हवा, आतिश, अंगारे,

झरना, दरिया, झील, समन्दर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा।

जहां दूसरे रिश्तों में कभी न कभी स्वार्थ की टकराहट अंगारों की जलन पैदा कर देती है, वहीं मां अपनी अगाध करुणा के साथ निर्झर की निर्मलता, नदी की प्रवाहशीलता, झील की शान्ति और समुद्र की गहराई लिये पुरवाई के सहज स्फूर्तिप्रद संस्पर्श की संजीवनी समेटे साकार स्वस्ति ही बनी रहती है। कवि की वयस्गत लघुता का यह सौभाग्य है कि उसे मां की विराटता पर सहज स्वत्व प्राप्त हो जाता है-

बाबू जी गुजरे, आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-

मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा।

कवि आलोक के इस शेर के चन्द्रानन को कुछ देर काली घटाओं ने भी घेरा। एक बड़े शायर के वैश्विक व्यक्तित्व ने इस शेर के भाव को हर मंच पर प्रसिद्ध किया। स्वभावत: युवा कवि पर अनुकरण का आरोप लग गया। किन्तु धीरे-धीरे यह तथ्य संज्ञान में आया कि अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध युवा रचनाकार का यह शेर बहुत पहले लिखा और पढ़ा गया है। एक बड़े शायर की प्रसिद्धि के कारण एक युवा कवि की सिद्धि का महत्व कम नहीं हो जाता। अब तो खैर आलोक भी पर्याप्त प्रसिद्ध हो चुके हैं। उनकी गजलों को जगजीत सिंह, शुभा मुद्गल जैसे कलावन्तों ने स्वर दिया है, अपने गजल संग्रह पर उन्हें प्रसिद्ध रूसी पुश्किन पुरस्कार प्राप्त हुआ है और अब वह कवि सम्मेलनों तथा मुशायरों के मंच के भी एक समादृत हस्ताक्षर हैं। किन्तु उनकी हस्ताक्षर कविता जैसी है ये मां को समर्पित गजल- कभी न मुरझाने वाले परिजात-पुष्प जैसी।

सरस्वती-सुमन का मुक्तक-उपवन

समकालीन हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में विविध साहित्यिक पत्रिकाएं उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। समय-समय पर इनके अंक किसी रचनाकार विशेष अथवा विधा-विशेष को समर्पित होकर प्रस्तुत होते हैं और साहित्यकार, साहित्यानुरागी तथा शोधार्थी सभी के लिये पर्याप्त उपयोगी प्रमाणित होते हैं। देहरादून से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिकी “सरस्वती सुमन” (सारस्वतम्, 1- छिब्बर मार्ग, आर्यनगर, देहरादून-248001) का मुक्तक विशेषांक (अतिथि सम्पादक- श्री जितेन्द्र जौहर) विशेषांकों की श्रृंखला में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। समग्र अंक के हर पृष्ठ पर सम्पादकीय श्रम, निष्ठा और कुछ सार्थक सामने लाने की प्रतिश्रुति के दर्शन होते हैं। वेदवाणी, मेरी बात, सम्पादकीय, अमर काव्य, विनम्र श्रद्धांजलि, विविध भाषा-वाटिका, पर्यावरण, दूर देश से, हाइकू एवं दोहा मुक्तक, हास्य-व्यंग्य, मुक्तक-कत्आत, रुबाइयां, आलेख जैसे शीर्षकों में समाहित 280 पृष्ठों की पत्रिका को पलटते हुए लगता है कि जैसे सब कुछ महत्वपूर्ण आरेखित कर दिया गया है। सारे उल्लेख बिन्दु सर्जना के आकाश को अपनी जगमगाहट से भर रहे हैं। सबसे पहले विविध भाषा-वाटिका के अन्तर्गत समाहित श्री तुलीचन्द फकीर के एक पंजाबी मुक्तक को उद्धृत कर रहा हूं-

पंज दरियावां च मेरी जान है, मेरी मां बोली मेरी पहचान है,

अग्गे-अग्गे खड्ग है पंजाब दी, पिच्छे-पिच्छे कुल्ल हिन्दुस्तान है।

दूर देश से आये मुक्तों में से सिंगापुर की श्रद्धा जैन की पंक्तियां अनायास ध्यान आकृष्ट करती हैं-

वो सारे जख्म पुराने बदन में लौट आये,

गली से उनकी जो गुजरे थकन में लौट आये।

गये जो ढूंढने खुशियां तो हारकर “श्रद्धा”

उदासियों की उसी अंजुमन में लौट आये।

आलेखों में मुक्तकों, रुबाइयों आदि की छान्दसिक विवेचना है, मुक्तक, कत्अ, रुबाई की साम्यता-विषमता की चर्चा है, कसौटियां हैं और ये सब बातें शोधार्थियों तथा रचनाकारों के लिये पर्याप्त उपयोगी हैं। एक सामान्य साहित्यानुरागी के लिये तो संकलित मुक्तकों का महत्व है। जीवन के विविध आयामों, चिन्तन की अलग-अलग भंगिमाओं और अनुभूति के अनूठे क्षितिजों का संस्पर्श करने वाली पंक्तियां उसे मुग्ध करती हैं, उसके भाव-जगत को समृद्ध करती हैं। वरिष्ठ रचनाकारों में से एक वरेण्य हस्ताक्षर चन्द्रसेन विराट जी को उद्धृत कर रहा हूं-

यातना के विधान जैसा है, विष के घूंटों के पान जैसा है,

गीत लिखना हो या गजल कहना, अग्नि-सरिता में स्नान जैसा है।

वरिष्ठ कवयित्री ज्ञानवती सक्सेना के एक मुक्तक में कमजोर निगाहों में जन्म लेने वाली क्रांति की चमक से सत्ता की जन्मकुण्डली के बदल जाने का सुन्दर चित्रण हुआ है-

उम्र के साथ सभी साज बदल जाता है,

बात करने का भी अन्दाज बदल जाता है।

जबकि कमजोर निगाहों में चमक आती है,

राज रह जाये मगर ताज बदल जाता है।

प्रधान सम्पादक डा. आनन्द सुमन सिंह “सरस्वती सुमन” को साहित्य एवं संस्कृति के सारस्वत अभियान की संज्ञा देते हैं। अभी तक इस त्रैमासिक पत्रिका के 49 अंक प्रकाशित हुए हैं, जो इस अभियान के पीछे स्थित संकल्प और समर्पण का साक्ष्य हैं। द

 

राजा के छापा पड़ा

द डा. मनोहर अभय

स्वच्छ प्रशासन की लगी शासन में क्या होड़।

रंग स्याही के बदल दिये नाजुक कलमें तोड़।।

 

पारदर्शिता पर सखे बहस हुई जब तेज।

पार कर दिये हलफिया खुफिया दस्तावेज।।

 

केवट अकचक देखता द्वार खड़े “युवराज”।

चले अयोध्या लूटने संग निषाद महाराज।।

 

रतन जड़ाऊ जूतियां द्वार तलक कालीन।

पुश्तैनी जागीर के ये वारिस शालीन।।

दृष्टिहीन धृतराष्ट्र है गांधारी का राज।

पुन: पितामह मिल गये दुर्योधन से आज।।

 

राजा के छापा पड़ा मंत्री खाये मार।

जालिम जेलर हंस रहा बड़े ठहाके मार।।

 

हम समरथ होने लगे आया है पैगाम।

हक रोटी का मिल रहा रोजी लगी लगाम।।

 

राजा आखिर क्या करे किसका मुंह मिठलाय।

भाड़े की पोशाक है पहने या धुलवाय।।

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