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इतिहास दृष्टि
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
भारतीय राष्ट्र का चिंतन तथा विकास भारतीय इतिहास की एक अत्यंत रोमांच- कारी, हृदयस्पर्शी तथा गौरवपूर्ण यश-गाथा है। जब विश्व में सभ्यता का अभ्युदय हुआ, तब भारत ने अपने को प्राचीनतम राष्ट्रों में खड़ा पाया। विश्व का पहला ग्रन्थ ऋग्वेद यहीं लिखा गया, जो पहले हजारों वर्षों तक ऋषियों-मनीषियों द्वारा कंठस्थ करके पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। वेदों में भारतीय राष्ट्र के विकास तथा विशिष्ट गुणों का अद्वितीय वर्णन है। यह वह काल था जब न ईसा मसीह का जन्म हुआ था और न ही इस्लाम का उदय। प्राय: ईसाई तथा इस्लाम जगत में अपने “रिलीजन” या मजहब के पूर्व के काल को अन्धकारमय बताया गया है। इतना ही नहीं, एक हजार ईस्वी तक अनेक यूरोपीय राष्ट्रों का जन्म भी नहीं हुआ था। इंग्लैण्ड सरीखा राष्ट्र भी यूरोप के अन्य राष्ट्रों की भांति पिछड़ा हुआ था। एक आधुनिकतम खोज के अनुसार वहां के शाही परिवार के लोग अठारहवीं शताब्दी तक मानव का मांस खाते थे।
भारत को विश्व का पुरातन तथा सनातन राष्ट्र माना जाता है। यह वह काल था जब विश्व में अनेक सभ्यताओं का जन्म भी नहीं हुआ था। पाश्चात्य जगत में यूरोप का प्राचीनतम देश यूनान भी अपनी अहंकारपूर्ण वाणी में सभ्यता का प्रारम्भ 4004 वर्ष ईसा पूर्व मानता है। पश्चिमी जगत भी इसे स्वीकार करता है। यह वह काल था जब समूचे भारत में अनेक राज्यों का विकास हो गया था। स्पष्ट है कि भारत विश्व का एक प्राचीन राष्ट्र है जिसका जन्म तथा निर्माण एकाएक किसी राजनीतिक घटना या युद्ध से नहीं हुआ, बल्कि इसका शनै: शनै: विकास हुआ।
वैदिक साहित्य में राष्ट्र चिंतन
नि:संदेह वैदिक साहित्य विश्व के इतिहास में मानव की अमूल्य धरोहर है, जिसमें मानव जीवन के आदर्शों, जीवन मूल्यों तथा जीवन प्रणाली का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। वैदिक साहित्य में समान्यत: चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) एवं ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, वेदांग, षष्ठ-दर्शन तथा उपवेद आते हैं। वैदिक साहित्य के विभिन्न मंत्रों में “राष्ट्र” का वर्णन है। विश्व में “राष्ट्र” शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में किया गया है। आदर्श राष्ट्र जीवन की संकल्पना में व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन का बोध तथा आदर्श गुणों का वर्णन किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर राष्ट्र पुरुषों, राजाओं, सेनापतियों तथा विद्वानों को श्रेष्ठतम गुणों की वृद्धि तथा कर्तव्य का बोध कराया गया है। राजा हो अथवा प्रजा, सभी से राष्ट्र के प्रति कर्तव्य की पूर्ति का आह्वान है, न कि अधिकारों के अहंकारों की अभिव्यक्ति का। यदि वेदों के कुछ मंत्रों का ही अवलोकन करें तो वैदिक राष्ट्रवाद का सर्व कल्याणकारी बोध होता है।
ऋग्वेद के मंत्र
वेदों में आदर्श मानव समाज रचना का वर्णन है। इसका आधार समाजोन्मुख परिवार को बताया गया है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अंतिम 191 वें मंत्र में समूचे राष्ट्र हेतु संगठन मंत्र दिया गया है। इसमें कहा गया है-
सं गच्छध्वं स वदध्वं,
सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे
सञ्जानाना उपासते।
(ऋग्वेद 10/191/2)
अर्थात् पग से पग (कदम से कदम) मिलाकर चलो, स्वर में स्वर मिलाकर बोलो, तुम्हारे मनों में समान बोध हो। पूर्व काल में जैसे देवों ने अपना भाग प्राप्त किया, सम्मिलित बुद्धि से कार्य करने वाले उसी प्रकार अपना अभीष्ट प्राप्त करते हैं।
और इसी मंत्र से आगे कहा है-
समानो मंत्र: समिति: समानी,
समानं मन: सहचित्तमेषाम्।
समानं मंत्रमभिमंत्रये व:
समानने वो हविषा जुहोमि।।
(ऋग्वेद 10/191/3)
अर्थात् इन (मिलकर कार्य करने वालों) का मन्त्र समान होता है अर्थात् ये परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहुंचते हैं। इनकी सभा एक होती है, चित्त सहित इनका मन समान होता है। मैं तुम्हें मिलकर समान निष्कर्ष पर पहुंचाने की प्रेरणा (या परामर्श) देता हूं, तुम्हें समान भोज्य प्रदान करता हूं।
इसी मंत्र में आगे कहा-
समानी व आकूति:
समाना हृदयानि व:
समानमस्तु वो मनो
यथा व: सुसहासति।।
(ऋग्वेद 10/191/4)
अर्थात् तुम्हारी भावना या संकल्प समान हो, तुम्हारे हृदय समान हों। तुम्हारा मन समान हो, जिससे तुम लोग परस्पर सहकार कर सको।
संक्षेप में ऋग्वेद में एक ऐसे सशक्त राष्ट्र की कल्पना की गई है जहां केवल कुछ गिन-चुने तत्वों में ही एकरूपता तथा समानता न हो बल्कि राष्ट्र के सदस्यों के मन, चित्त, हृदय सभी समान विचारों से ओत-प्रोत हों तथा समाज जीवन में सभी एक-दूसरे के सहायक तथा सहयोगी हों।
यजुर्वेद तथा सामवेद में राष्ट्र
ऋग्वेद की भांति यजुर्वेद में भी सभी प्रकार के मानवीय गुणों की वृद्धि करते हुए राष्ट्र को समृद्ध करने को कहा गया है। राष्ट्र की उन्नति के लिए ब्रह्मवर्चस से युक्त ब्राह्मण, पराक्रमी राजपुरुष, कार्यकुशल तथा शीलवती महिला तथा वीर सन्तान की कामना की गई है। आदर्श राष्ट्र के निर्माण के लिए ज्ञान बल और शरीर बल की आवश्यकता बताई गई है। यजुर्वेद में राष्ट्र यज्ञ की चर्चा है तथा राजा के अनेक गुणों की आवश्यकता पर बल दिया गया है। अध्याय पांच में राजा को राक्षस वृत्तियों तथा शत्रुओं का संहार करने को कहा गया है (यजुर्वेद 5/22)। शासक को प्रजा की “पीठ का आधार” तथा “विद्वानों का आश्रय” बतलाया गया है। (यजु. 11/29) उसे मंगल कार्यों से युक्त होकर, सिंहासन पर बैठकर, न्यायपूर्वक कार्य करने को कहा गया है। (यजुर्वेद, 12/17)
सामवेद में भी राष्ट्रनायक अथवा शासक व सेनापति के कर्तव्यों का बार-बार बोध कराया गया है। 19वें अध्याय के 49वें मंत्र में कहा है, “हे राजा और सेनापति! आप जब विजय श्री करने वाले युद्ध रथ को जोतते हो तो हमारे राष्ट्र को धृतादि मधुर पदार्थों से परिपूर्ण करते हो। हमारी सेनाओं को अन्नादि पदार्थों और तेज बल के पुष्ट कर दो, जिससे हम युद्धों में विजयी होकर धन प्राप्त करें (सामवेद 19/49)।
अथर्ववेद में राष्ट्र वन्दना
अथर्ववेद राष्ट्रोत्थान की सर्वोत्तम कृति मानी जाती है। मातृभूमि के प्रति इतनी प्रगाढ़ भक्ति की अभिव्यक्ति विश्व के किसी भी अन्य ग्रन्थ में दुर्लभ है। इसे राष्ट्र निर्माण का ग्रन्थ माना जाता है। राष्ट्र कैसा हो? राजा-प्रजा के सम्बंध कैसे हों? अधिकारियों के कर्तव्य क्या हों, इसमें इसका विवरण दिया गया है।
अथर्ववेद के एक पूरे अध्याय (12वां उपसर्ग) के प्रथम 63 मंत्र तो राष्ट्र भावना को पूर्णत: समर्पित हैं। इसे पृथ्वी सूक्त अथवा भूमि सूक्त भी कहा गया है। प्रत्येक मंत्र राष्ट्र की जाग्रत भावना का द्योतक है, यह राष्ट्र वन्दना का मधुरतम संगीत है, जो हृदयंगम करने वाला है।
वेदों में राजा को पृथ्वी या राष्ट्र का शासक या पालक नहीं कहा गया है और न ही वर्तमान काल की तरह कुछ देशों में प्रयुक्त संज्ञा-राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्रपिता, राष्ट्र संस्थापक आदि कहा गया है, अपितु उसकी सबसे सम्मानजनक उपाधि “राष्ट्रपुत्र” या “राष्ट्र सेवक” दी गई है। अथर्ववेद में पृथ्वीमाता या मातृभूमि अपना राष्ट्रमाता के प्रति कर्तव्यों का विश्लेषण बार-बार किया है। पृथ्वीसूक्त के प्रथम मंत्र में ही सत्यनिष्ठा, परम सत्य व्यवस्था, तेजयुक्त दक्षता, तप और साधना, ब्रह्मज्ञान तथा याज्ञिक व्यवहार, पृथ्वी को धारण करने वाले तत्व बतलाये गए हैं। यह कहा गया है कि यह पृथ्वी न केवल भूतकाल या भविष्य जनों को व्यक्त करती है बल्कि वर्तमान में समस्त राष्ट्रजनों की चिंता करती है।
इसके दूसरे मंत्र में कहा है कि जिस भूमि के ऊंचे-नीचे और समतल, अनेक स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों की विविधता में भी एकता है और जो अनेक शक्तिवर्धक औषधियों से भरी है, वह पृथ्वी हमें विस्तृत स्थान दे और हमारे अन्न-धन और यश में वृद्धि करे (अथर्ववेद-12/1/3-4)। 12वें मंत्र में राष्ट्रजनों ने पृथ्वी से अपना नाता मां-पुत्र का बतलाया है। अथर्ववेद में भारत की विविध भाषाओं और बोलियों वाले मनुष्यों के बारे में कहा है, “जिस भूमि पर विविध भाषाओं और बोलियों में मनुष्य गाते और नाचते हैं, जिस पर शूरवीर हुंकारों के साथ युद्ध करते हैं; जिस पर युद्ध की दुन्दुभी बजती है, वह भूमि हमारे शत्रुओं को दूर भगा दे और हमें शत्रु रहति कर दे।” (12/1/41)
पृथ्वी माता के प्रति उदात्त भाव प्रकट करते हुए यह भी कहा, “हे मातृभूमि! जो ग्राम, नगर, वन, सभा-समितियां, युद्ध अथवा वार्ता या चर्चा के स्थान हैं, उन सभी स्थानों पर हम तेरा यशोगान करें।” (12/1/56) मातृभूमि से सब कामनाएं पूर्ण करने की बात करते हुए पृथ्वी सूक्त के अंतिम मंत्र में कहा है कि “हे मातृभूमि! मुझे कल्याण के साथ उत्तम प्रतिष्ठा प्रदान कर। हे सृजनशील! मुझे प्रकाश से संयुक्त, प्रशंसामुक्त, सम्पत्ति और विभूति प्रदान कर (12/1/63)। अत: वेदों में उद्धृत अनेक पवित्र मंत्रों के आधार पर राष्ट्रमाता का स्वरूप तथा वैशिष्ट्य समझा जा सकता है। पृथ्वी माता रूपी भारत राष्ट्र को माता रूपी पृथ्वी द्वारा अनन्त-अमूल्य देन को कौन पुत्र भूल सकता है? इसके पुत्रों में अतीत, वर्तमान तथा भविष्य की संतति जुड़ी है। भारतीयों के लिए यह केवल भूमि का निर्जीव टुकड़ा नहीं है बल्कि श्रेष्ठतम जननी है। मां का यही यशोगान आदिकाल से वर्तमान तक भारतीय जन करते आये हैं, जो विश्व के किसी भी अन्य भाग में दुुर्लभ तथा अप्राप्य है। द
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