मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती-4
भारतीय समाज में व्याप्त घोर दारिद्र्य, अशिक्षा, अंधविश्वास, छुआछूत, ऊंच-नीच, अर्थहीन कर्मकांड और कठोर जाति प्रथा में से उपजे उत्पीड़न को मिटाने का संकल्प ही स्वामी विवेकानंद का मूल जीवन कार्य था। यह मनोवेदना और संकल्प ही उन्हें अमरीका खींच ले गया। अमरीका जाकर एक ओर तो वे अपने ओजस्वी वक्तृत्व, मनोहारी व्यक्तित्व और रामकृष्ण देव द्वारा उत्स्फूर्त पाण्डित्य के बल पर अमरीकी समाज की धर्म जिज्ञासा को तृप्त करते हुए भारतीय धर्म और दर्शन की श्रेष्ठता को प्रतिष्ठापित करते रहे, दूसरी ओर अमरीकी समाज के गुण-दोषों का सूक्ष्म अध्ययन कर भारत और अमरीका के बीच आदान-प्रदान का पुल तैयार कराने में लगे रहे। अपनी पहली विदेश यात्रा के दौरान उन्होंने भारत में अपने मित्रों-सहयोगियों, गुरुभाइयों को जो अनेक पत्र लिखे उनमें उनकी यह मनोवेदना तो प्रगट होती ही है, साथ ही पश्चिमी सभ्यता के भावात्मक पक्ष और गुणों का वर्णन भी उनके ही शब्दों में उपलब्ध है। स्वामी जी के पत्रों में उनका अन्तर्मन, उनका जीवन कार्य और उस जीवन कार्य को पूरा करने वाली कार्ययोजना को क्रमश:आकार ग्रहण करते हुए देखा जा सकता है। स्वामी विवेकानंद के संक्षिप्त जीवन के मर्म को समझने के लिए उनके पत्रों का बारम्बार पारायण बहुत आवश्यक है। इन पत्रों में अधिकांशत: उन्होंने कोलकाता स्थित अपने गुरुभाइयों, अपने मद्रास भ्रमण के दौरान निर्मित शिष्यमंडली के सदस्यों और अपने व्यक्तित्व से प्रभावित राजाओं, सामंतों व उच्च पदस्थ प्रतिष्ठानों को लिखे हैं।
अमरीका पहुंचने के बाद अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद (राखाल) को 19 मार्च, 1894 को पहले पत्र में स्वामी जी लिखते हैं, “दक्षिण भारत में उच्च जातियों का निम्न जातियों पर कैसा-कैसा अत्याचार मैंने देखा है। मंदिरों में देवदासियों के नृत्य की ही धूम मची है। जो धर्म गरीबों का दु:ख नहीं मिटाता, मनुष्य को देवता नहीं बनाता, क्या वह भी धर्म है? क्या हमारा धर्म धर्म कहलाने योग्य है? हमारा तो सिर्फ “छूत मार्ग” है, “मुझे मत छुओ, मुझे मत छुओ”। हे भगवन्, जिस देश में बड़े-बड़े दिमाग दो हजार साल से सिर्फ यही बहस कर रहे हों कि दाहिने हाथ से खाऊं या बाएं हाथ से, पानी दाहिनी ओर से लूं या बायीं ओर से-उसकी अधोगति न होगी तो किसकी होगी? जिस देश में करोड़ों लोग महुए के फूल खाकर दिन गुजारते हैं, जहां दस-बीस लाख साधु और दस बारह करोड़ बाह्मण उन गरीबों का खून चूस चूसकर पीते हैं, उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, वह देश है या नरक? वह धर्म है या पिशाच का नृत्य? भाई, इस बात को ध्यान से समझो। मैं भारत वर्ष को घूम-घूमकर देख चुका और इस देश (अमरीका) को भी देख रहा हूं। क्या बिना कारण के कहीं कोई कार्य होता है? क्या बिना पाप के सजा मिल सकती है?”
“भाई, यह सब देखकर, खासकर देश का दारिद्र्य और अज्ञानता देखकर मुझे नींद नहीं आती। मैंने एक योजना सोची है और उसे कार्यान्वित करने का मैंने दृढ़ संकल्प किया है। कन्याकुमारी में माता के मंदिर में बैठकर, भारत वर्ष की अंतिम चट्टान पर बैठकर मैंने सोचा कि हम जो इतने संन्यासी घूमते-फिरते हैं, लोगों को दर्शन शास्त्र का पाठ पढ़ा रहे हैं, यह सब निरा पागलपन है। क्या हमारे गुरुदेव नहीं कहा करते थे कि खाली पेट से धर्म नहीं होता। …कल्पना करो यदि कोई नि:स्वार्थ, परोपकारी संन्यासी गांव-गांव विद्यादान करता घूमे, भांति-भांति के उपाय से, मानचित्र, कैमरा, भूगोल आदि के सहारे चण्डाल तक सबकी उन्नति के लिए घूमें, तो क्या इससे सबका मंगल होगा या नहीं। हमारा समाज अपनी अस्मिता को खो बैठा है और यही सारी विपत्ति का कारण है। हमें उसकी खोई हुई अस्मिता वापस देनी होगी और निम्न जातियों को उठाना होगा। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि सभी ने उसको पैरों तले रौंदा है। उसको उठाने वाली शक्ति भी अंदर से अर्थात् सनातन धर्मी हिन्दुओं में से ही आएगी। इसे करने के लिए पहले लोग चाहिए, फिर धन। गुरुदेव की कृपा से मुझे हर एक शहर में दस-पन्द्रह मनुष्य मिलेंगे। मैं धन की चिंता में घूमा। पर, भारतवर्ष के लोग भला धन से सहायता करेंगे? वे तो स्वार्थ-परता की मूर्ति हैं-भला वे देंगे? इसीलिए मैं अमरीका आया हूं। स्वयं धन कमाऊंगा और तब देश लौटकर अपने जीवन के इस एकमात्र ध्येय की सिद्धि के लिए अपना शेष जीवन न्योछावर कर दूंगा।”
अमरीका क्यों गए?
जूनागढ़ के पूर्व दीवान श्री हरिदास बिहारी दास देसाई, जिन्होंने स्वामी जी का परिव्राजक काल में कई नरेशों और सामंतों से परिचय कराया था, को शिकागो से 29 जनवरी, 1894 को लिखा- “क्या कारण है कि हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुत बुद्धि और अन्य गुणों के होते हुए भी टुकड़े-टुकड़े हो गया? मैं इसका उत्तर दूंगा-ईष्र्या। कभी भी कोई जाति एक-दूसरे के प्रति हीन भाव लेकर ईष्र्या करने वाली या एक-दूसरे के सुयश से ऐसी डाह रखने वाली न होगी जैसी यह अभागी हिन्दू जाति है। भारत में तीन लोग भी एक साथ मिलकर पांच मिनट के लिए भी कोई काम नहीं कर सकते। हर एक मनुष्य अधिकार प्राप्त करने की कोशिश में लग जाता है और अंत में पूरे संगठन की दुरावस्था हो जाती है। हे भगवन्, हे भगवन्। कब हम ईष्र्या करना छोड़ेंगे?”
23 जून, 1894 को शिकागो से मैसूर के महाराजा के नाम पत्र में भी वे अपनी अन्तर्वेदना को उड़ेलते हैं- “भारत वर्ष में सब अनर्थों की जड़ है-जन साधारण की गरीबी। पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे पशु हैं, उनकी तुलना में हमारे यहां के गरीब देवता हैं। इसीलिए हमारे यहां के गरीबों की उन्नति करना अपेक्षाकृत सरल है। सब ओर से देखने पर हमारे गरीब हिन्दू लोग किसी भी पाश्चात्य देशवासी से लाखों गुना अधिक नीति परायण हैं। अपने से निम्न श्रेणीवालों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य है उनको शिक्षा प्रदान करना, उन्हें सिखाना कि इस संसार में तुम भी मनुष्य हो, तुम लोग भी प्रयत्न करके अपनी सब प्रकार की उन्नति कर सकते हो। अभी तो वे लोग यह भाव ही खो बैठे हैं। पुरोहिती शक्ति और विदेशी विजेतागण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलस्वरूप भारत के गरीब बेचारे यह तक भूल गए हैं कि वे भी मनुष्य हैं। बहुत समय से यही विचार मेरे मन में काम कर रहा है। भारत में मैं इसे कार्यरूप में परिणत न कर सका, इसीलिए मैं इस देश में आया। अपने देश में सहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी तब मैं महाराज की सहायता से इस दूर देश में आया।”
इस पत्र में भी स्वामी की अपनी लोकशिक्षण की कार्य योजना को प्रस्तुत करते हैं, “हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं जो गांव-गांव में धर्म की शिक्षा देते हैं। यदि उनमें से कुछ लोग योजनापूर्वक संगठित होकर ऐहिक विषयों के भी शिक्षक बन जाएं तो गांव-गांव, द्वार-द्वार जाकर वे केवल धर्म शिक्षा ही नहीं देंगे बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे। कल्पना कीजिए कि उनमें से एक दो सायंकाल साथ में एक मैजिक लेन्टर्न, एक गोलक और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गांव में जाएं। इनकी सहायता से वे अनपढ़ लोगों को काफी कुछ गणित, ज्योतिष और भूगोल आदि सिखा सकते हैं। जितनी जानकारी वे गरीब जीवन भर पुस्तकें पढ़ने से न पा सकेंगे, उससे सौ गुना अधिक इस तरह बातचीत द्वारा प्राप्त हो सकेगी। ईश्वर आपके महान हृदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिए गहरी सहानुभूति पैदा कर दे जो अज्ञान में डूबे हुए दुख झेल रहे हैं यही विवेकानंद की प्रार्थना है।”
कार्य-योजना
इस प्रकार अनेक लोगों को स्वामी जी अमरीका से पत्रों द्वारा प्रेरणा देते रहे, किंतु उनकी कार्य योजना का मुख्य आशाकेन्द्र कोलकाता में उनके गुरुभाई और मद्रास में उनकी उत्साही शिष्य मंडली ही थी। 1894 के ग्रीष्मकाल में स्वामी ब्रह्मानंद को स्वामी श्री रामकृष्ण देव की प्रतिमा पूजन से आगे बढ़कर दरिद्र नारायण की उपासना का आह्वान करते हुए उन्होंने लिखा, “मुझे सबसे अधिक भय ठाकुर घर का है। ठाकुर घर स्वयं में बुरी बात नहीं है, परंतु उसी को सब कुछ समझकर पुराने ढर्रे पर काम करने की जो वृत्ति है, उससे मैं डरता हूं। जीवों के लिए जिसमें इतनी करुणा होती है कि उनके लिए स्वयं भी नरक में जाने को तैयार रहता है, वही श्री रामकृष्ण का पुत्र है। जो इस समय पूजा की महासंधि मुहूत्र्त में कमर कस कर खड़ा हो जाएगा, जो बंगाल के घर-घर में उनका संवाद देता फिरेगा, वही मेरा भाई है, वही उनका पुत्र है। यही परीक्षा है। जो श्री रामकृष्ण का पुत्र है, उसे अपना भला नहीं चाहिए, प्राण निकल जाने पर भी वह दूसरों की भलाई चाहेगा। उनका चरित्र, उनकी शिक्षा इस समय चारों ओर फैलाते जाओ, यही साधना है। यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है। जो-जो उनकी सेवा के लिए, उनकी नहीं बल्कि उनके पुत्रों, दीन-दरिद्रों, पापियों, कीड़े-पतंगों तक की सेवा के लिए तैयार होंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा। उनके मुख पर सरस्वती बैठेगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति विराजित होंगी। जो नास्तिक हैं, अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, दिखाऊं हैं,ै वे अपने को उनका शिष्य क्यों कहते हैं। वे चले जाएं।”
“तुम्हें एक युक्ति बताऊं। सब मिलकर एक कार्यक्रम बनाओ। कुछ कैमरे, थोड़े से नक्शे, ग्लोब और कुछ रासायनिक पदार्थ आदि जमा करो। इसके बाद कुछ गरीबों को इकट्ठा कर लेना है। फिर उन्हें ज्योतिष, भूगोल आदि के चित्र दिखाओ और श्री रामकृष्ण देव के उपदेश सुनाओ। वहां जितने गरीब-अनपढ़ रहते हैं, सुबह-शाम उनके घर जाकर उनकी आंखें खोल दो। फिर धीरे-धीरे अपने केन्द्र बढ़ाते जाओ। क्या यह कर सकते हो? या सिर्फ घंटी बजाना आता है?आओ उठकर काम में लग जाओ तो सही। अजी, गप्पें लड़ाने और घंटी बजाने का समय गया समझो। अब काम करना होगा। …चरित्र संगठन हो जाए, फिर मैं तुम लोगों के बीच आता हूं समझे। दो हजार, दस हजार, बीस हजार संन्यासी चाहिए-स्त्री पुरुष दोनों, समझे। चेले चाहिए, गृहस्थ चेलों का काम नहीं, त्यागी चाहिए-समझे। तुममें से प्रत्येक सौ-सौ बार सिर घुटवा डालो तो कहूं कि तुम बहादुर हो। शिक्षित युवक चाहिए, मूर्ख नहीं। उथल-पुथल मचा देनी होगी। कमर कसकर लग जाओ। मद्रास और कोलकाता के बीच बिजली की तरह चक्कर लगाते रहो। जगह-जगह केन्द्र खोलो। केवल चेले मूंडो, स्त्री-पुरुष जिसमें भी यह भाव जगे, उसे मूंड लो। फिर मैं आता हूं।”
पत्र में स्वामी जी संकेत देते हैं कि, “मैं अनुभव कर रहा हूं कि कोई मेरा हाथ पकड़कर यह पत्र लिखवा रहा है। जो-जो मेरा यह पत्र पढ़ेंगे, उन सबमें मेरा भाव भर जाएगा, विश्वास करो।”
दरिद्र नारायण की सेवा ही साधना
इसी बीच स्वामी जी के गुरुभाई स्वामी अखंडानंद ने खेतड़ी पहुंचकर डेरा जमाया और दरिद्र नारायण की पूजा आरंभ कर दी। यह सूचना पाकर स्वामी जी को बहुत आनंद हुआ। 1894 में ही उन्होंने अमरीका से स्वामी अखंडानंद को पत्र लिखा, “खेतड़ी नगर की दरिद्र एवं निम्न जातियों के द्वार द्वार जाओ और उन्हें धर्म का उपदेश दो। उन्हें भूगोल तथा इसी प्रकार के अन्य व्यावहारिक विषयों पर मौखिक पाठ पढ़ाओ। जब तक दरिद्रों के लिए कोई काम न करो तब तक खाली बैठे राजभोग खाकर “हे प्रभु रामकृष्ण” कहने से कोई लाभ नहीं होगा। कभी-कभी दूर के गांवों में भी जाओ तथा लोगों को जीवन-कला की शिक्षा से, धर्मोपदेश भी करो। जब गुणनिधि आ जाए तब राजपूताना के प्रत्येक गांव में दरिद्र और कंगालों के द्वार-द्वार घूमो। यदि लोग तुम्हारे भोजन को निषिद्ध बताएं तो वैसे भोजन को तुरंत त्याग दो। दूसरों के हित के लिए घास खाकर जीना अच्छा है। गेरुआ वस्त्र भोग के लिए नहीं है, यह वीर भाव की पताका है। अपने शरीर, मन और वाणी को जगद् हिताय अर्पण करना होगा। अब तक तुमने पढ़ा है- “मातृ देवो भव”, पितृ देवो भव परंतु मैं कहता हूं “दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवोभव।” जान लो कि इन्हीं की सेवा करना धर्म है।”
इधर स्वामी जी अपने गुरुभाइयों को मूर्ति के सामने घंटा बजाने से आगे बढ़कर प्रत्यक्ष जीवित दरिद्र नारायण की पूजा करने की प्रेरणा दे रहे थे दूसरी ओर मद्रास की अपनी शिष्यमंडली के माध्यम से देश की युवा पीढ़ी को दारिद्र्य और अशिक्षा के विरुद्ध कर्मक्षेत्र में उतरने का आह्वान कर रहे थे। आलासिंगा को एक पत्र में वे लिखते हैं, “भारत के करोड़ों पद दलितों के लिए- जो दारिद्र्य, पुरोहिताई छल तथा बलवानों के अत्याचारों से पीड़ित हैं, दिन-रात प्रत्येक आदमी प्रार्थना करे। मैं धनवान और उच्च श्रेणी की अपेक्षा इन पीड़ितों को ही धर्म का उपदेश देना पसंद करता हूं। बीस करोड़ नर-नारी, जो सदा गरीबी और मूर्खता में फंसे रहे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उनके उद्वार का क्या उपाय है? कौन उनके दु:ख में दु:खी है? उन्हें शिक्षा का प्रकाश कौन देगा? कौन उनके द्वार-द्वार घूमेगा? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं। ये ही तुम्हारे देवता बनें, ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरंतर इनके लिए सोचो, इनके लिए काम करो, इनके लिए निरंतर प्रार्थना करो। प्रभु तुम्हें मार्ग दिखाएंगे। मैं उसे ही महात्मा कहता हूं जिसका हृदय गरीबों के लिए पिघलता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। जब तक करोड़ों लोग मूर्ख और अशिक्षित हैं तब तक उस हरेक आदमी को विश्वासघाती समझूंगा जो उनकी कीमत पर शिक्षित हुआ है पर अब उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। वे लोग, जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाठ-बाट से अकड़ कर चलते हैं, वे उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए यदि कुछ न करें, जो इस समय मूर्ख और असभ्य बने हुए हैं, तो ऐसे लोग घृणा के पात्र हैं।
28 मई, 1894 को शिकागो से आलासिंगा एवं अन्य मद्रासी शिष्यों को लिखते हैं, “तुम लोग संघबद्ध होकर हमारे उद्देश्य को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करो। शिक्षित युवकों पर प्रभाव डालो। उन्हें इकट्ठा कर एक संघ बनाओ। याद रखना बहुत से तिनकों को इकट्ठा लाकर रस्सी बन जाती है, जिससे मतवाला हाथी भी बंध सकता है। तुम लोग थोड़ा धन इकट्ठा कर शहर के उस भाग में, जहां गरीब से गरीब लोग रहते हैं, मिट्टी का एक घर बनाओ। कुछ मैजिक लेन्टर्न, थोड़े से नक्शे, ग्लोब और रासायनिक पदार्थ इकट्ठा करो। हर रोज शाम को वहां गरीबों, यहां तक कि चण्डालों को भी एकत्रित करो। पहले उनको धर्म का उपदेश दो फिर ज्योतिष, भूगोल आदि को बोलचाल की भाषा में सिखाओ एक अति तेजस्वी युवक दल गठित करो और उनमें उत्साह की अग्नि प्रज्ज्वलित कर दो। धीरे-धीरे इस दल को बढ़ाते रहो।”
संक्षेप में यह है स्वामी विवेकानन्द का जीवन कार्य,जिसको पूरा करने के लिए ही वे अमरीका गये थे और जिसे पूरा करने की एक कार्य योजना उनके मन में उभर रही थी। क्रमश:
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