इतिहास दृष्टि
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इतिहास दृष्टि
नागरिकता
एक ज्वलंत प्रश्न
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
“सृजनात्मक अल्पसंख्यक वे हैं जो भारतीय समाज के निर्माण के लिए कार्य करते हैं, जो अपनी सुरक्षा तथा आत्मनिर्भरता का ध्यान रखते हैं तथा जिनकी सोच रचनात्मक है। ध्वंसात्मक अल्पसंख्यक नागरिक वे हैं जो अपने स्वार्थों के लिए कार्य करते हैं तथा विदेशी कार्यक्रमों तथा चिंतन को अपना लेते हैं, वे समूचे राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग हो जाते हैं तथा देश की प्रगति के शत्रु बन जाते हैं।”
प्रत्येक देश की नागरिकता के साथ उसकी देशभक्ति, राष्ट्र प्रेम तथा राष्ट्रीयता का गहरा संबंध है। नागरिकता के लिए उस देश की परम्परा, धर्म, आस्था, संस्कृति तथा इतिहास के प्रति आदर का भाव महत्वपूर्ण है। नागरिकता का प्रश्न राष्ट्रीय सोच तथा विदेशी राष्ट्रों से परस्पर संबंधों को भी अभिव्यक्त करता है। अत: प्रत्येक देश के संविधान में नागरिकों संबंधी अनुच्छेद जहां नागरिकों को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, वहीं अनेक महत्वपूर्ण कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों का भी बोध कराता है। देश के नागरिक की कसौटी उस देश के प्रति निष्ठा तथा समर्पण की भावना का द्योतक है।
नागरिकता का महत्व
विश्व के विभिन्न देशों के संविधानों में नागरिकता संबंधी अनुच्छेदों में पर्याप्त एकरूपता है। विदेशियों को नागरिकता देने संबंधी अनुच्छेदों तथा देश की नागरिकता बनाए रखने के लिए अनेक प्रकार के प्रावधान हैं जिससे विदेशी अथवा देशीय नागरिकों की नागरिकता को समाप्त किया जा सकता है। उदाहरणत: ब्रिटिश संविधान के 2002 तथा 2006 के संशोधित नागरिकता अधिनियम में किसी भी विदेशी के जनहित में विरोधी होने पर अथवा इंग्लैण्ड के व्यापक हितों में बाधक होने पर उसे नागरिकता से वंचित किया जा सकता है। इसके साथ यह भी अनिवार्य है कि कोई भी विदेशी ब्रिटेन का नागरिक बनने के लिए 18 वर्ष या इससे अधिक आयु होने पर ब्रिटिश नागरिकता समारोह में भाग ले तथा शपथ ले कि वह ब्रिटिश राजा तथा ब्रिटेन के प्रति निष्ठावान रहेगा। इसी भांति संयुक्त राष्ट्र अमरीका का नागरिक बनने के लिए प्रतिवर्ष 4 जुलाई को आयोजित नागरिकता समारोह में भाग लेना अनिवार्य होता है। टर्की के संशोधित संविधान (2001) की धारा 66 में प्रत्येक विदेशी के नागरिक बनने के प्रावधानों का विस्तार से वर्णन है। इसमें समय-समय पर संशोधित कानूनों द्वारा निश्चित करने तथा मातृभूमि के प्रति निष्ठा असंगत होने पर नागरिकता से वंचित करने की बात कही गई है। इस्रायल के संविधान में नागरिकता पाने के लिए प्रत्येक नागरिक को सैनिक सेवा में कुछ दिन रहने का प्रावधान है। साथ ही किसी भी नागरिक के शत्रु देश में जाने पर या देश के प्रति वफादारी में ईमानदारी न पाए जाने पर उसकी नागरिकता समाप्त करने के नियम हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारत की नागरिकता
भारतवर्ष में प्राचीन काल से राष्ट्र के प्रति नागरिकों की मातृभूमि के प्रति अटूट भक्ति तथा सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की रक्षा को, व्यावहारिक रूप से नागरिकता का महत्वपूर्ण सूत्र कहा जा सकता है। भारत में समय-समय पर अनेक विदेशी घुसपैठिए (ईरानी, यूनानी, शक, कुषण, हूण आदि) आये परंतु वे भारतीय जनजीवन में आत्मसात हो गये, समरस हो गये, उन्होंने अपना जीवन तत् रूप ढाल लिया। पर दिल्ली सल्तनत पर मुगल बादशाहों का मजहब प्रभावित राज स्थापित होने के बाद नागरिकता के उदात्त विचारों में शिथिलता आयी। अलाउद्दीन खिलजी के समय बियाना के काजी मुगीसउद्दीन से इस संबंध में लम्बा वार्तालाप, बलबन की हिन्दुओं के प्रति क्रूर नीति, फिरोज शाह तुगलक की विस्तृत गुलाम व्यवस्था, सिकंदर लोदी की हिन्दुओं के प्रति कठोर दमनकारी नीति, बाबर के समस्त हिन्दुओं को 'काफिर' कहने, शाहजहां तथा औरंगजेब की नागरिकता के संदर्भ में निरंकुश तथा घोर साम्प्रदायिक नीतियों को सहज ही समझा जा सकता है। अनेक इतिहासकारों ने माना है कि मुगलकाल में हिन्दुओं को दूसरी अथवा तीसरी श्रेणी का नागरिक माना जाता था। उन्हें 'जिम्मी' या 'काफिर' कहा जाता था। उन पर जजिया जैसा अपमानजनक टैक्स लगाया जाता था। मुस्लिम शासकों ने देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम के स्थान पर बादशाह के प्रति भक्ति को स्थान दिया था। परंतु इसी काल में महाराजा कृष्णदेव राय, वीर शिवाजी तथा महाराजा रणजीत सिंह जैसे शासकों ने भारत में रहने वाले सभी नागरिकों के प्रति समान तथा उदात्त नीतियां अपनाईं, जिसकी चर्चा व प्रशंसा देश-विदेश के सभी विद्वानों ने मुक्त कंठ से की है।
इसके बाद ब्रिटिश राज में अंग्रेज शासकों के प्रति भक्ति-भाव वाले भारतीय राजाओं को पुरस्कार तथा अंग्रेजी राज के विरोधियों, स्वतंत्रता सेनानियों के बहिष्कार की नीति अपनाई। अंग्रेजी राज के वफादारों को सर, रायसाहब, रायबहादुर, खान बहादुर, सरदार बहादुर आदि पद तथा जागीरें दी गईं। अंग्रेजी राज के विद्रोहियों को देशद्रोही, चोर, डाकू, बलवा करने वाले आदि नामों से पुकारा गया तथा उनको कठोर यातनाएं दी गईं।
उल्लेखनीय है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम का उद्देश्य भी प्रारंभ में भारत में एक अंग्रेज भक्तों की टोली निर्माण करना था तथा कांग्रेस का सदस्य बनने की पहली तथा अनिवार्य शर्त किसी भी सदस्य के लिए 'संदेह से ऊपर राष्ट्रभक्ति' थी।
गदर पार्टी का विचार
अमरीका में बनी गदर पार्टी के श्री भगवान सिंह ज्ञानी (1884-1962) के विचारों पर मंथन करना यहां उपयुक्त होगा जो गदर पार्टी के पहले अध्यक्ष (1914 से 1920) रहे। आजादी के बाद उन्होंने अपने प्रसिद्ध 38 व्याख्यानों द्वारा भारत की अनेक समस्याओं, विशेषत: भारत में नागरिकता के प्रश्न पर जागृति पैदा की। (देखें-'प्राब्लम्स आफ इंडियन नेशनलिज्म'-2009, पृ.87-94) उन्होंने भारत की राजनीति में प्रचलित अल्पसंख्यक के विचार को पूर्णत: अस्पष्ट तथा भ्रामक बतलाया। उनका मत है कि यदि ये विचार हैं भी, तो उसे दो भागों में बांटा जाना चाहिए-सृजनात्मक तथा ध्वंसात्मक। सृजनात्मक अल्पसंख्यक वे हैं जो भारतीय समाज के निर्माण के लिए कार्य करते हैं, जो अपनी सुरक्षा तथा आत्मनिर्भरता का ध्यान रखते हैं तथा जिनकी सोच रचनात्मक है। ध्वंसात्मक अल्पसंख्यक नागरिक वे हैं जो अपने स्वार्थों के लिए कार्य करते हैं तथा विदेशी कार्यक्रमों तथा चिंतन को अपना लेते हैं। वे समूचे राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग हो जाते हैं तथा देश की प्रगति के शत्रु बन जाते हैं।'
भगवान सिंह ज्ञानी ऐसे ध्वंसात्मक अल्पसंख्यकों को किसी भी प्रकार की विशेष सुविधाएं देने की आलोचना करते थे। वे उन्हें मातृभूमि के लिए 'लड़खड़ाते आवरण' मानते थे। उनका कथन है कि जब तक यह रुकावट दूर न होगी, देश का भविष्य दागी, अस्पष्ट तथा भ्रमित रहेगा। संक्षेप में देश की नागरिकता के लिए सभी का राष्ट्र के प्रति, राष्ट्रीय संविधान के प्रति तथा राष्ट्रीय ध्वज के प्रति पूर्ण समर्पण तथा निष्ठा आवश्यक है। इसके अभाव में उसकी नागरिकता समाप्त कर देनी चाहिए।
संविधान में नागरिकता
भारतीय संविधान के भाग दो में अनुच्छेद 5 से 11 तक नागरिकता के संदर्भ में विस्तार से चर्चा की गई है। इस संबंध में अनेक संशोधन क्रमश: 1955, 1986, 2003 तथा 2005 में किये गये हैं। इनमें नागरिकता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया है। परंतु चुनाव तथा वोट की राजनीति के कारण नागरिकता के प्रश्न पर संविधान की मूल भावनाओं के विपरीत उदासीनता तथा उपेक्षा का भाव सहज रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान की भावना के विपरीत नागरिकता का विचार अल्पसंख्यकवादी राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनता जा रहा है। अत: सर्वप्रथम भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक की निश्चित परिभाषा होना नितांत आवश्यक है। इसकी आड़ में नागरिकों के कर्तव्य बोध के स्थान पर तुष्टीकरण की नीति हावी होती जा रही है, जो संविधान की भावना के विपरीत है।
अब सरकारी नौकरियों में एवं अन्य क्षेत्रों में मुसलमानों के आरक्षण की घोषणा की गई है। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को भी तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। असम में लागू आईएमडीटी कानून को उच्चतम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने के बाद भी सरकार नया कानून बनाने या विदेशी नागरिक कानून में फेर-बदल की बात करती आ रही है। हजारों बंगलादेशी तथा पाकिस्तानी घुसपैठिए भारत के नागरिक बन गए हैं। लाखों-करोड़ों लोग राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अब विशिष्ट पहचान पत्र (आधार कार्ड) बनवाकर भारत के नागरिक बन बैठे हैं। विचारणीय प्रश्न है कि क्या भारत की नागरिकता से ऐसे हत्यारों, आर्थिक लुटेरों, बलात्कारियों तथा देशद्रोहियों को वंचित नहीं कर देना चाहिए? आखिर देश के गरीबों के धन से करोड़ों रुपया इन अवांछित नागरिकों पर क्यों व्यय होता है? आखिर क्यों भारत विदेशी मुसलमान घुसपैठियों का सैरगाह बनता जा रहा है?
यह सर्वविदित है कि भारतीय संविधान में देश की प्रभुसत्ता जनता में निहित है। इसका प्रकटीकरण भारत की न्यायपालिका, लोकसभा तथा कार्यपालिका के परस्पर संतुलित संबंधों से प्रकट होता है। पर आज यह संतुलन तेजी से बिखरता दिख रहा है। विशेषकर समय-समय पर न्यायपालिका के आदेशों की अवहेलना दिखलाई देती है। सत्ता केन्द्रित राजनीति अल्पसंख्यकवाद और तुष्टीकरण की नीति का भाग बन रही है। अल्पसंख्यकों के हित के नाम पर अपने चहेतों को स्थान दिया जा रहा है और देश के बहुसंख्यकों की उपेक्षा की जा रही है। ऐसे में नितांत आवश्यकता है कि नागरिकता के प्रश्न पर राष्ट्रव्यापी गंभीर चर्चा हो। यह देश की आंतरिक तथा बाहरी सुरक्षा, एकता-अखंडता तथा समृद्धि के लिए बहुत आवश्यक है। नागरिकता के प्रश्न को व्यक्ति की देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम तथा पूर्ण समर्पण की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। नागरिकता के चिंतन का मुख्य आधार राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति होना SÉÉʽþB*n
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