साहित्यिकी
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गवाक्ष
शिवओम अम्बर
मैं गीत बेचकर घर आया
पिछले दिनों हिन्दी के अप्रतिम गीतकार भारत भूषण की इहलीला समाप्त हुई। अपने उत्तर जीवन में उन्होंने ऐसे गीत रचे जो भावमय भजन भी कहे जा सकते हैं। शायद कविता जब प्रभु-प्रार्थना की स्वर-लहरी बन जाती है तो वह अपनी परिपूर्णता को प्राप्त होती है, शब्द तब सफल भी होता है, सार्थक भी। उनका एक गीत उनकी उत्तरकालीन मन:स्थिति का प्रभावी चित्र प्रस्तुत करता है-
हर ओर कलियुग के चरण,
मन स्मरण कर अशरण-शरण।
धरती रंभाती गाय-सी
अन्तोन्मुखी की हाय-सी
संवेदना असहाय-सी
आतंकमय वातावरण।
प्रत्येक क्षण विषदंश है
हर दिवस अधिक नृशंस है
व्याकुल बहुत मनुवंश है
जीवन हुआ जाता मरण।
सब धर्म गंधक हो गये
सब लक्ष्य तन तक हो गये
सद्भाव बंधक हो गये
असमाप्त तम का अवतरण।
हमारे समय के एक अति समर्थ गीतकार का परम्परागत शिल्प से अलग हटकर लिखा गया यह गीत मात्र वैयक्तिक वेदना का गान नहीं है अपितु समग्र समाज में व्याप्त विडम्बनाओं के परिहार के लिए सम्पूर्ण युग की तरफ से प्रभु की करुणा का आह्वान है। हिन्दी काव्य मंच पर भारत भूषण करुणा के उद्गाता कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। हरिवंश राय बच्चन के बाद सर्वश्री नीरज-नेपाली-रमानाथ अवस्थी-सोमठाकुर-वीरेन्द्र मिश्र-भारत भूषण और किशन सरोज जैसे गीतकारों ने रसज्ञ सामाजिकों के समक्ष एक से बढ़कर एक गीत प्रस्तुत किए और जिस तरह कभी शिशु जी और रंग जी की क्रमश: प्रस्तुतियां परिवेश में आग और राग का अद्भुत संयोजन बनकर उभरती थीं उसी प्रकार उपर्युक्त गीतकारों की विविध मंचों पर उपस्थिति आकाश से छिटकती चांदनी को घनीभूत कर मंच पर रूपायित कर देती थी, वातास में गीत के क्षीरसागर की लहरें लहराने लगती थीं। इनमें भारत भूषण जी के श्रृंगारिक गीतों का बिम्ब-विधान उदात्तता का संविधान-सा रच देता था-
सीपिया बरन मंगलमय तन
जीवन दर्शन बांचते नयन,
संस्कृत सूत्रों जैसी अलकें
है भाल चन्द्रमा का बचपन।
हल्के जमुनाए होठों पर
दीये की लौ-सी मुसकानें
धूपिया कपोलों पर रोली से
शुभम् लिख दिया चंदनिया ने।
सम्मुख हो तो आरती जगी
सुधि में हो तो चंदन-चंदन।
मानवीय प्रेम दिव्यता के जिस ज्योति वलय से वलयित हो सकता है, पूजा की जिस सुवास से आपूरित हो सकता है, और कामना को आराधना में बदलने के जिस रसायन से आप्लावित हो सकता है, वह सब भारत जी में सहज सन्निविष्ट है-
मेरे अपराधी अधरों पर सिर्फ तुम्हारा नाम बचा है
माटी की गागर में जैसे गंगाजल भर रही ऋचा है
अगर तुम्हारे स्वर मिल जाएं मेरे गीत मंच बन जाएं
जीवन हो पूजा की थाली फूल बनें संस्मरण तुम्हारे।
देह को वैदेही बना देने वाली उनकी अनुराग दृष्टि ऐसे प्रणय गीतों की सृष्टि कर सकी जिनको गुनगुनाकर चेतना गोकुली हो जाती है-
जैसे पूजा में आंख भरे
झर जाय अश्रु गंगाजल में
ऐसे ही मैं सिसका सिहरा
बिखरा तेरे वक्षस्थल में…
मैं राग हुआ तेरे मन का
यह देह हुई वंशी तेरी,
जूठी कर दे तो गीत बनूं
वृंदावन हो दुनिया मेरी।
फिर कोई मनमोहन दीखा
बादल से झीने आंचल में।
काव्य-मंचों पर मूल्यों के क्षरण का दौर उनके सामने ही प्रारंभ हो गया था। गीत को निरंतर हाशिये पे धकेले जाने के षड्यंत्रों से वह बहुत व्यथित रहा करते थे। उन्मत्त अट्टहासों के नौबतखाने में गीत की तूती की आवाज अनसुनी की जाने लगी और तब मंच पर उपस्थित रहना उनके चित्त में अपराध बोध उत्पन्न करने लगा। गीतव्रता लेखनी जब संधिपत्रों की भाषा पढ़ने लगी, वह भीतर-भीतर टूटने लगे। जब मंच पर आत्मविस्तार के लिए नहीं, मात्र अर्थ व्यवहार के लिए जाने की विवशता उनके सामने आई, उनका भावप्रवण अन्तस् आत्र्तनाद-सा करते हुए अपने प्रभु के चरणों से लिपट गया-
मैं गीत बेचकर घर आया
सीमेंट ईंट लोहा लाया
कवि-मन माया ने भरमाया
हे ईश्वर, मुझे क्षमा करना।
जनमा था आंसू गाने को
खोया झूठी मुसकानों में,
भीतर का सुख खोजता फिरा
बाहर से सजी दुकानों में।
मैं अश्रु बेचकर घर आया
प्लास्टिक के गुलदस्ते लाया
अपनी आत्मा को बहकाया
हे ईश्वर, मुझे क्षमा करना।
मानवीय जीवन की यह त्रासदी है कि वह अधूरा रहने को अभिशप्त है। यहां हर इन्द्रधनुष अंतत: दृष्टिभ्रम सिद्ध होता है और हर तस्वीर अधूरी रह जाती है। अपनी सर्वाधिक चर्चित गीति रचना “राम की जल समाधि” के पाठ के पूर्व वह प्राय: उसकी भूमिका के रूप में जिस रचना को पढ़ा करते थे उसकी कुछ पंक्तियां एक शाश्वत सत्य का करुणापूर्ण उद्घाटन हैं-
इच्छाओं के उगते बिरवे
सब के सब सफल नहीं होते
हर कहीं लहर के जूड़े में
अरुणारे कमल नहीं होते।
माटी का अंतर नहीं मगर
अंतर तो रेखाओं का है,
हर एक दीप के हंसने को
शीशे के महल नहीं होते।
दर्पन में प्रतिबिम्बित काया
दीखे तो पर अनछुई रहे,
सारे सुख-सौरभ की मुझसे
ऐसी ही दूरी रहनी थी-
तस्वीर अधूरी रहनी थी।
महाप्राण निराला की “राम की शक्ति पूजा” और भारत भूषण जी की “राम की जल समाधि” दो ध्रुवांतों को जीती कालजयी रचनाएं हैं। शक्तिपूजा के मानवीय राम यदि सामयिक पराजय के दंश से उभरकर शक्ति की आराधना के द्वारा “होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन” का आशीर्वाद प्राप्त कर दिव्यता में प्रतिष्ठित हो जाते हैं तो जल समाधि के दिव्य राम अंतत: एक मानवीय चीत्कार में परिणत होते हुए सीता की खोज में सरयू में विलीन हो जाते हैं। राम की यह त्रासदी कवि भारत भूषण की भी त्रासदी है, हर संवेदनशील चित्त की भी। द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
जनकवि स्व.अदम गोंडवी के चंद अशआर
भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो,
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।
जो गजल महबूब के जलवों से वाकिफ हो गई,
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे,
कमीशन दो तो हिन्दुस्थान को नीलाम कर देंगे।
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।
हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को,
उनको लगा कि इससे है खतरा निजाम को।
-डा.अजय पाठक
पोर-पोर टूटे मिले
कुसुम शुक्ला
टूटा आकर जब कभी, टुकड़ों में विश्वास
धरती बौनी हो गई, छोटा सा आकाश।
उनकी शुभ संकल्पना, उनके शुभ संदेश
सुनने पर लगते सदा, गीता के उपदेश।
जिसके पांव बिवाइयां, उसने समझी पीर
समझेगा वह क्या भला, जिसमें बचा न नीर।
गलियों से संवेदना, के भी टूटे छोर
पगडंडी जब गांव से, चली शहर की ओर।
खाली आतें पेट की, पहले से बेहाल
नींद न आई रात को, बेटा करे सवाल।
इसको ना भायी कभी, उसकी रोटी दाल
सदा यही यह चाहता, उसकी निकले खाल।
कुछ की अपनी बेबसी, कुछ के लघु सिद्धान्त
पोर-पोर टूटे मिले, सदा यहां दृष्टान्त।
पीड़ा को पीड़ा मिली, मिली धूप को धूप
अपनों से छाया नहीं, मिलती है अनुरूप।
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