इतिहास दृष्टि
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और नए “माई-बाप”
शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा जिसने स्वतंत्रता के पश्चात ऐसे भारत की कल्पना की होगी जैसी वर्तमान में स्थिति है। स्वतंत्रता के पश्चात सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तो पहले से ही उपेक्षा की गई। अब आर्थिक मोर्चे पर भी देश अपने नेताओं के कुकृत्यों तथा भ्रष्ट आचरण के कारण बर्बादी के कगार पर खड़ा दिख रहा है। इतनी लूट तो लुटेरे पठानों, मुगलों और यहां तक कि अंग्रेजों ने भी नहीं की थी। उनकी फिजूलखर्ची तथा विलासी जीवन के बाद भी भारत की सम्पत्ति देश में ही रही। पर ये आधुनिक लुटेरे तो भारत की अरबों-खरबों रुपए की सम्पत्ति को काला धन बनाकर विदेशी बैंकों में जमा कर रहे हैं। अकेले स्विस बैंक में, वहां के निदेशक के अनुसार, भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपया है। इतने धन से भारत के आने वाले 30 सालों का बजट बिना कर (टैक्स) के बनाया जा सकता है अथवा देश में 60 करोड़ नए रोजगारों का सृजन हो सकता है।
भारत के ये नये “माई बाप”
ब्रिटिश शासनकाल में प्राय: जिले के “डिप्टी कमिश्नर” को “माई बाप” कहा जाता था। देश स्वतंत्र हुआ, पुराने “माई बाप” चले गए। स्वतंत्रता के पश्चात 562 रियासतें भी समाप्त हो गईं। प्रिवी पर्स (रियासतों के विलय पर राजाओं-महाराजाओं को सरकार की ओर से दिया जाने वाला खर्च) भी खत्म कर दिया गया। परंतु अब नये करोड़पति-अरबपति “माई बाप” बन गए हैं। 110 करोड़ की जनसंख्या वाले देश पर कुल मिलाकर 300 औद्योगिक घरानों तथा कुछ राजनेताओं ने अपना राज चलाना शुरू कर दिया है। देश की वर्तमान संसद में कम से कम 235 सांसद ऐसे हैं जो करोड़पति हैं। कर की चोरी, जनता का शोषण, अनियमित तरीके से धन बटोरने की लालसा और अरबा-खरबों रुपयों के काले धन के सामने बेचारी बनी सरकार में हिम्मत ही नहीं कि उनके नाम भी बता सके। कम से कम 76 सांसद तो ऐसे हैं जिन पर गबन, हत्या, बलात्कार, डकैती जैसे गंभीर अपराधों में मुकद्मे दर्ज हैं। राज्यों की विधानसभाओं में तो ऐसे सदस्यों की संख्या और भी अधिक है। इतना ही नहीं, व्यावहारिक रूप से यह भी पूरा प्रयत्न है कि भारत का कोई भी सीमित आय वाला, पढ़ा-लिखा आम आदमी संसद या विधानसभा में न पहुंच सके। चुनावों में सीमा से अधिक खर्च करने वालों को सजा देने की बजाय अब चुनावों के लिए निर्धारित धनराशि की सीमा बढ़ाकर विधानसभा के लिए दस लाख रुपए तथा संसद के लिए चालीस लाख रुपये कराने का सुझाव दिया जा रहा है। यानी अब चुनाव लड़ने के लिए पढ़ाई में अंगूठा छाप होने पर भी, करोड़पति नहीं तो कम से कम लखपति होना आवश्यक होगा।
भारत का आम आदमी
यद्यपि आम आदमी की कोई परिभाषा नहीं है। पर राजनेताओं ने इसे दो भागों में बांट दिया है-साधारण तबका तथा प्राथमिकता वाला तबका। गरीब की रेखा से ऊपर के व्यक्तियों का साधारण तबका तथा उसके नीचे वालों को प्राथमिकता वाला तबका बताया जा रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात गरीब व्यक्ति के बारे में नई-नई भ्रामक शब्दावली का प्रयोग किया जाता रहा है। गरीब वहीं खड़ा है, परंतु उसके विशेषण बदल गये हैं। एक व्यंग्य चित्रकार ने स्वतंत्रता के पश्चात पचास वर्षों में आम आदमी की गरीबी की अभिव्यक्ति इस प्रकार की है-पहले दशक में गरीब व्यक्ति कहता है, “मुझे बताया गया है कि मैं गरीब हूं। दूसरे दशक में वह कहता है, “मुझे बताया गया है कि मैं गरीब नहीं, जरूरतमंद हूं।” तीसरे दशक में उसे बताया गया कि वह जरूरतमंद नहीं बल्कि सुविधाओं से वंचित है। चौथे दशक में उसे बताया गया कि वह सुविधाओं से हीन है। पांचवें दशक में वह स्वयं कहता है कि, “मेरे पास अभी तक धन नहीं है, लेकिन मेरी जानकारी समृद्ध है।” सच तो यह है कि नेहरू की कांग्रेस से लेकर वर्तमान सोनिया कांग्रेस तक गरीबों और गरीबी पर सैकड़ों प्रस्ताव, अनेक सूत्री कार्यक्रम बने तथा पारित हुए, पर बेचारा आम आदमी वहीं का वहीं खड़ा है।
गरीबी की रेखा से नीचे और ऊपर का चक्कर
विश्व बैंक के अनुसार विकासशील देशों में जो व्यक्ति दो डालर अर्थात लगभग सौ रुपया दैनिक पाता है, वह गरीबी की रेखा से ऊपर है। इसके लिए संतुलित भोजन, स्वास्थ्य या शिक्षा की अनिवार्यता नहीं है। इस संदर्भ में दो प्रकार के प्रयास हुए हैं। भारत के योजना आयोग ने गरीबी की रेखा निश्चित करने के लिए सामान्यत: 13 वस्तुओं को सूचक माना है। जैसे- यदि व्यक्ति शिक्षित है, बैंक में उसका खाता है, पक्का शौचालय है, 500 रुपये का पंखा, 150 रुपये का रेडियो, आधा हेक्टेयर जमीन (चाहे बंजर हो) आदि है, तो वह गरीबी की रेखा से ऊपर है। दूसरे ढंग में योजना आयोग का कथन है कि जो पुरुष 2400 कैलोरी या महिला 2100 कैलोरी खाते हैं, वह गरीबी की रेखा से ऊपर हैं।
राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने गरीबी की रेखा के नीचे व्यक्तियों का नाम बदलकर “प्राथमिकता वाला तबका” कर दिया है। विश्व भूख सूचकांक (अक्तूबर, 2010) की रपट के अनुसार भारत में भूख की अवस्था को चिंताजनक स्तर पर बताया गया है। 84 विकासशील देशों में भारत को 67वें स्थान पर रखा गया है तथा भूख के मामले में उसकी स्थिति सूडान व रवांडा जैसे विश्व के गरीब देशों से भी निम्न बतलाई गई है। एक अन्य आंकड़े के अनुसार दुनिया के 40 प्रतिशत गरीबों की आबादी भारत में है। करीब एक तिहाई आबादी की प्रतिदिन की आमदनी एक डालर से भी कम है जबकि 80 प्रतिशत लोगों की प्रतिदिन की आय दो डालर से भी कम है। अत: भारत में गरीब और अमीर के बीच आर्थिक विषमता की खाई तेजी से चौड़ी होती जा रही है। गंभीर प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता के 64 वर्षों के बाद भी हम भारतीयों को भुखमरी से मुक्ति क्यों नहीं दिला सके हैं?द
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