मंथन
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स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती-1
यंत्र मात्र थे विवेकानंद?
देवेन्द्र स्वरूप
12 जनवरी, 2013 को स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती होगी, जिसे मनाने के लिए देश में बहुत उत्साह जागृत हुआ है। स्वयं स्वामी जी द्वारा मई, 1897 में बेलूर में स्थापित रामकृष्ण मिशन इस दिशा में अग्रणी है। देश-विदेश में उसकी सैकड़ों शाखाएं हैं, उसके द्वारा दीक्षित संन्यासियों एवं ब्रह्मचारियों की संख्या हजारों में है। रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित विद्यालयों एवं सेवा संस्थानों का जाल भी पूरे देश में बिखरा हुआ है। सामान्यतया रामकृष्ण मिशन एवं अद्वैत आश्रम को ही स्वामी जी का सीधा उत्तराधिकारी माना जाता है। सामान्य लोगों को यह पता नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर, जो श्री गुरूजी के नाम से विख्यात हैं, स्वामी विवेकानंद के गुरु भाई स्वामी अखण्डानंद के दीक्षित शिष्य थे और यदि 6 फरवरी, 1937 को उनका महाप्रयाण न हुआ होता तो संभवत: श्री गुरूजी भी रामकृष्ण मिशन के दीक्षित संन्यासी होते। श्री गुरूजी ने संघ कार्य के माध्यम से ही स्वामी विवेकानंद के स्वप्न को साकार करने का मन बनाया था, इसलिए स्वाभाविक ही, संघ उनके मार्गदर्शन में स्वामी विवेकानंद को अपने प्रेरणा पुरुष के रूप में देखता रहा है।
विवेकानंद का विचार-परिवार
श्री गुरूजी के निर्देश पर ही 1963 में स्वामी विवेकानन्द की जन्म शताब्दी के अवसर पर संघ के एक अति वरिष्ठ कार्यकत्र्ता श्री एकनाथ रानडे सरकार्यवाह के दायित्व से मुक्त होने के पश्चात स्वामी जी के प्रेरक उद्धरणों का एक संकलन “उत्तिष्ठत जाग्रत” नाम से संकलित करके कन्याकुमारी में समुद्र के बीच शिला पर एक अति भव्य “विवेकानंद शिला स्मारक” की स्थापना में जुट गये। यह शिला स्मारक भारत की राष्ट्रीय एकता के एक पवित्र तीर्थ के रूप में देश-विदेश से सहस्रों-सहस्रों तीर्थयात्रियों को प्रतिवर्ष आकर्षित करता है। एकनाथ जी केवल इस शिला स्मारक की स्थापना पर ही नहीं रुके बल्कि 1972 में शिला स्मारक का औपचारिक उद्घाटन पूर्ण होने के तुरंत बाद 1973 में स्वामी जी के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए विवेकानंद केन्द्र नाम से रामकृष्ण मिशन के पूरक के तौर पर एक गैरसंन्यासी मिशन आरंभ कर दिया। इस समय विवेकानंद केन्द्र के द्वारा अनुप्राणित सैकड़ों पूर्णकालिक जीवनव्रती कार्यकत्र्ता कन्याकुमारी से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक लोक शिक्षण और सांस्कृतिक जागरण के कार्य में लगे हुए हैं। स्वाभाविक ही, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विवेकानंद केन्द्र भी उनकी 150वीं जयंती को उतने ही उत्साह से मनाकर स्वामी जी के संदेश को घर-घर तक पहुंचाने की योजनाएं बना रहे हैं।
हमने स्वामी जी से अनुप्राणित केवल तीन संगठनों का नामोल्लेख किया है, किन्तु सच तो यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधाओं की लम्बी सूची में स्वामी विवेकानंद का स्वर सबसे सशक्त है। 4 जुलाई, 1902 को स्वामी जी के महाप्रयाण के समय से अब तक भारतवासियों की चार पीढ़ियों में शायद ही कोई अंत:करण होगा जो स्वामी जी के शब्दों को पढ़कर, उनकी जीवनगाथा को सुनकर स्पंदित न हो उठता हो। उनकी ओजस्वी वाणी सभी भारतीयों के अंत:करणों को झंकृत करती है, भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति नई आशा और विश्वास प्रदान करती है। क्षेत्र, भाषा, जाति, सम्प्रदाय और वर्ग की दीवारों को लांघकर स्वामी विवेकानंद राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक जागरण के प्रतीक बन गये हैं। इसलिए भारतभक्ति से ओतप्रोत प्रत्येक मंच, संस्था, संगठन और व्यक्ति उनकी 150वीं जयंती मनाने का यथाशक्ति प्रयास अवश्य करेगा। वैसे भी हम भारतीय उत्सव प्रिय हैं। हम उत्सव मनाने का अवसर खोजते रहते हैं। देश में हजारों- लाखों संस्थाएं तो महापुरुषों की जयंतियां मनाकर ही अपने अस्तित्व को सार्थक समझती हैं। यह भी एक संयोग ही है कि इन दौ-तीन वर्षों में अनेक महापुरुषों की 150वीं जयंती है-गुरुवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, हिन्दू रसायन शास्त्र के पुनरोद्धारक प्रफुल्ल चन्द्र राय इनमें प्रमुख हैं।
पुण्य स्मरण का उद्देश्य
लगता है कि 1857 की महाक्रांति की विफलता से मूर्छित भारत की कोख ने ऐसे महापुरुषों की श्रृंखला को जन्म दिया जिन्होंने सांस्कृतिक पुनर्जागरण का शंख बजाया और पाश्चात्य सभ्यता के प्रतिनिधि ब्रिटिश शासकों के हाथों भारत की सैनिक-राजनीतिक पराजय को सांस्कृतिक विजय में परिणत करने का बीड़ा उठाया। उनकी 150वीं जयंती हमें आत्मालोचन का अवसर प्रदान करती है। हम पूर्ण तटस्थता के साथ स्वाधीन भारत की 63 वर्ष लम्बी यात्रा का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करें कि क्या सचमुच हम इन महापुरुषों के सपनों को साकार करने की दिशा में आगे बढ़े हैं या अनेक अर्थों में पीछे ही हटे हैं। सामान्यतया हमारे यहां महापुरुषों की जयंतियों का स्वरूप खोखले शब्दाचार तक सीमित रह जाता है। एकाध पुस्तिका या स्मारिका का प्रकाशन, एकाध सभा का आयोजन, जिसमें कई बड़े लोग भाषण झाड़कर चले जाते हैं। अधिक हुआ तो स्कूलों-कालेजों में वाद-विवाद या निबंध प्रतियोगिताओं का आयोजन। इन आयोजनों से शब्द तो पैदा होते हैं, पर कर्म नहीं आगे बढ़ता। इसलिए आवश्यक लगता है कि हम स्वामी विवेकानंद की वेदना और कार्य योजना का पुन:स्मरण करें।
भारत की नियति का यह कैसा चमत्कार है कि जगदगुरु शंकराचार्य और युगाचार्य स्वामी विवेकानंद भारत के सांस्कृतिक उन्मेष के दो प्रकाश स्तंभ-एक ने 32 वर्ष की अल्पायु में अपनी जीवनलीला पूर्ण की और दूसरे ने 39 वर्ष की अल्पायु में। विश्वास नहीं होता कि केरल में जन्मे शंकराचार्य जी ने कश्मीर तक पूरे भारत की पैदल यात्रा की होगी। वेद-वेदांत के विशाल वाङ्मय का आलोड़न करके शास्त्रार्थ में बौद्ध विद्वानों और कर्मकांडी-मीमांसकों को परास्त करके अद्वैत दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित की होगी, चार कोनों पर चार धामों की स्थापना कर भारत की सांस्कृतिक एकता को भौगोलिक आधिष्ठान प्रदान किया होगा, अनेक सम्प्रदायों में बिखरे विशाल संन्यासी वर्ग का ग्यारह श्रेणियों में पुनर्गठन किया होगा, ब्रह्मसूत्र, एकादश उपनिषद और भगवद्गीता की प्रस्थान त्रयी का कालजयी भाष्य किया होगा। परम्परा का विश्वास है कि यह सब उन्होंने 32 वर्ष की आयु में ही संभव कर दिखाया। पर परम्परा के इस विश्वास की पुष्टि के लिए उनके जीवन के बारे में ठोस समकालीन साक्ष्यों के अभाव में पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से शंकराचार्य जी के काल और जीवनवृत्त को लेकर विद्वान किसी एक मत पर नहीं पहुंच पा रहे हैं। पर विवेकानंद के साथ ऐसा नहीं है। उनके जीवनकाल से ही पिछले सौ-सवा सौ वर्षों में उनके बारे में विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। उनके भाषण, पत्राचार, देसी और विदेशी शिष्यों व गुरु भाईयों के उनके बारे में संस्मरण, अमरीका, इंग्लैण्ड, यूरोप और भारत के विभिन्न भाषाओं के समकालीन समाचार पत्रों में उनकी गतिविधियां, भाषण, वात्र्तालाप और संस्मरण- सब कुछ उपलब्ध हैं। अमरीका में ही उनकी गतिविधियों के बारे में आठ खंड प्रकाशित हो चुके हैं। छोटी-बड़ी अनेक जीवनियां लिखी जा चुकी हैं। उनकी 39 वर्ष लम्बी जीवन यात्रा के प्रत्येक वर्ष, प्रत्येक मास की गतिविधियों का प्रामाणिक वर्णन प्राप्त है। इसलिए जहां तक स्वामी विवेकानंद के शब्द शरीर का संबंध है, उसका पुनरुच्चारण ही हो सकता है, उसमें नया जोड़ने के लिए अब शायद ही कुछ बचा हो।
इस विशाल शब्द सागर में अवगाहन करने पर जो एक महत्वपूर्ण सत्य उभरकर सामने आता है वह यह है कि स्वामी विवेकानंद की जिस वाणी और कर्तृत्व ने अमरीका, इंग्लैण्ड, यूरोप और भारत को झंकृत कर दिया, उन्हें युगाचार्य के रूप में प्रस्थापित कर दिया, वह केवल सात साल का यानी 1893 से 1900 तक का कर्तृत्व है। सन् 1900 में उन्होंने घोषणा कर दी कि मेरा जीवन कार्य पूरा हो चुका अब मुझे कुछ करना शेष नहीं है, और 1893 के पूर्व का जीवन विश्व रंगमंच पर उनकी भूमिका की तैयारी का कालखंड था। दूसरा सत्य यह उभरकर सामने आता है कि स्वामी विवेकानंद ने कभी स्वयं को कत्र्ता नहीं माना, उन्होंने स्वयं को रामकृष्ण परमहंस के संदेशवाहक और उपकरण के रूप में ही देखा।
नरेन्द्र नाथ से विवेकानंद
12 जनवरी, 1863 को जन्मे नरेन्द्र नाथ दत्त उन्नीस वर्ष की आयु तक ऐसे गुरु की खोज में भटकते रहे जो दावा कर सके कि ईश्वर को मैंने प्रत्यक्ष देखा है, जो साक्षात्कारी हो। 1881-82 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आये, चार वर्ष तक उनकी तरह-तरह से परीक्षा लेकर उन्होंने काली मां को स्वीकार किया। 16 अगस्त, 1886 को अपनी महासमाधि के कुछ समय पूर्व मार्च, 1886 में स्वामी रामकृष्ण ने नरेन्द्र को कुछ क्षणों के लिए निर्विकल्प समाधि में भेजकर वापस बुला लिया और महासमाधि के पूर्व उन्हें अपनी शिष्य मंडली की देखभाल करने का दायित्व सौंप दिया। तभी से नरेन्द्र नाथ दत्त स्वामी रामकृष्ण की शिष्य मंडली को एक मठ में संगठित करने और उनके बौद्धिक आध्यात्मिक विकास की साधना में जुट गये। जनवरी, 1887 में विराज होम करके सब गुरू भाईयों ने संन्यास का व्रत लेकर संन्यासी नाम धारण कर लिये और वे सभी परिव्राजक बनकर भारत की यात्रा पर अलग-अलग दिशाओं में निकल पड़े। इसी क्रम में नरेन्द्र ने पहले सच्चिदानंद और फिर विविधीशानंद नाम धारण कर पूरे भारत का भ्रमण किया, जगह-जगह शिष्य मंडली खड़ी की। दिसंबर, 1992 में कन्याकुमारी में समुद्र की शिला पर बैठकर भारत माता का संदेश सुना, मद्रास के शिष्यों के आग्रह पर अमरीका यात्रा का निश्चय किया और खेतड़ी नरेश अजीत सिंह की प्रार्थना पर विवेकानंद नाम धारण कर उनकी आर्थिक सहायता से 31 मई, 1893 को बम्बई बंदरगाह से चीन, हांगकांग और जापान होते हुए पूर्वी मार्ग से अमरीका पहुंच गये। सितम्बर, 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के पूर्व उनके गुरु भाईयों एवं छोटी-सी शिष्य मंडली के बाहर मुट्ठीभर लोग भी उनका नाम नहीं जानते थे। विवेकानंद ने स्वयं पदे-पदे स्वीकार किया है कि यदि नियति ने उन्हें अमरीका नहीं भेजा होता तो वे अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस का कार्य कदापि पूरा नहीं कर पाते।
3 मार्च, 1890 को वाराणसी के एक बड़े विद्वान श्री प्रमदा दास मित्र को लिखा, “मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि रामकृष्ण के बराबर दूसरा कोई नहीं है। वैसी अपूर्व सिद्धि, वैसी अपूर्व अकारण दया, जन्म-मरण से जकड़े हुए जीव के लिए वैसी प्रगाढ़ सहानुभूति इस संसार में और कहां?…इस अद्भुत महापुरुष, अवतार या जो कुछ भी समझिये, ने अपने अन्तर्यामित्व गुण से मेरी सारी वेदनाओं को जानकर स्वयं आग्रहपूर्वक बुलाकर उन सबका निराकरण किया।” उसी वर्ष 26 मई को प्रमदा बाबू को वे लिखते हैं, “मैं श्री रामकृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण करके उनका गुलाम हो गया हूं। मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता…मेरे लिए उनकी आज्ञा थी कि उनके द्वारा स्थापित त्यागी मंडली की मैं सेवा करूं। इस कार्य में मुझे निरन्तर लगे रहना होगा, चाहे जो हो-स्वर्ग, नरक, मुक्ति या और कुछ-सब मुझे स्वीकार करना होगा। उनका आदेश था कि उनकी सब त्यागी मंडली एकत्रित हो और उसका भार मुझे सौंपा गया था। अतएव उनकी आज्ञा के अनुसार उनकी संन्यासी मंडली वराहनगर के एक जीर्ण-शीर्ण मकान में एकत्रित हुई है…यदि आप कहें कि “आप संन्यासी हैं, आपको ये सब वासनायें क्यों?”- तो मैं कहूंगा कि मैं श्रीरामकृष्ण का सेवक हूं और उनके नाम को उनके जन्म और साधना की भूमि में चिर प्रतिष्ठित रखने के लिए और उनके शिष्यों को उनके आदर्श की रक्षा में सहायता पहुंचाने के लिए मुझे चोरी और डकैती भी करना पड़े तो उसके लिए भी मैं तैयार हूं। कितने दु:ख की बात है कि जिन महापुरुष के जन्म से हमारी बंग जाति एवं बंग भूमि पवित्र हुई है, पृथ्वी पर जिनका जन्म हम भारतवासियों को पश्चिमी सभ्यता की चमक-दमक से बचाने के लिए हुआ, इसीलिए जिन्होंने अपनी त्यागी मंडली में अधिकांश विश्वविद्यालयों के छात्रों को लिया, उनका इस बंग देश में, उनकी साधना भूमि के सन्निकट कोई स्मरण चिन्ह स्थापित न हो सका।”
मैं यंत्र मात्र!
अमरीका पहुंचने के बाद 29 जनवरी, 1894 को शिकागो से एक पूर्व दीवान श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को स्वामी जी लिखते हैं, “यदि मैं संसार त्याग न करता तो जिस महान आदर्श का मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस उपदेश करने आये थे, उसका प्रकाश न होता और वे नवयुवक कहां होते जो आजकल के भौतिकतावाद और भोग विलास की उत्ताल तरंगों को दीवार बनकर रोक रहे हैं? उन्होंने भारत का बहुत कल्याण किया है, विशेषत: बंगाल का। अभी तो काम आरंभ हुआ है, परमात्मा की कृपा से ये लोग ऐसा काम करेंगे जिससे जगत युग-युग तक इन्हें आशीर्वाद देगा।..दर्शन, विज्ञान या अन्य किसी भी विधा की थोड़ी भी सहायता न लेकर इस महापुरुष ने विश्व इतिहास में पहली बार इस सत्य की घोषणा की कि सभी धर्म मार्ग सत्य हैं।” अंग्रेजी शिक्षा के अभिमान में डूबे लोगों को फटकारते हुए स्वामी जी ने कहा, “ऐ पढ़े लिखे मूर्खो! अपनी बुद्धि पर वृथा गर्व न करो। कभी मैं भी करता था, किन्तु विधाता ने मुझे ऐसे व्यक्ति के चरणों में अपना जीवन मंत्र पाने को बाध्य किया जो निरक्षर महाचार्य, घोर मूर्तिपूजक और दीखने में पागल जैसा था।”
1895 में अमरीका से अपने गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानंद को स्वामी जी लिखते हैं, “वेद-वेदांत तथा अन्य अवतारों ने जो भूतकाल में किया, श्री रामकृष्ण ने उसकी साधना एक ही जीवन में कर डाली। उनके जन्म की तिथि से सत्य युग आरंभ हुआ है, इसीलिए सब प्रकार के भेदों का अंत निश्चित है- पुरुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चण्डाल, इन सब भेदभावों को समूल नष्ट करने के लिए ही उनका जीवन व्यतीत हुआ था। वे शांति के दूत थे। कभी-कभी उनकी भविष्य दृष्टि चमत्कारिक लगती है।” 9 जुलाई, 1897 को अल्मोड़ा से अमरीका की कुमारी मेरेहेल को वे लिखते हैं, “मैं जानता हूं कि मेरा कार्य समाप्त हो चुका है। अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष आयु के और बचे हैं।” वे एक क्षण के लिए भी नहीं भूले कि, “मैं रामकृष्ण देव का दास हूं। मैं एक साधारण-सा यंत्र मात्र हूं।” 18 अप्रैल 1900 को कैलीफोर्निया से वे अपनी शिष्या जोसेफाईन मैकलियाड को लिखते हैं, “मैंने अपनी गठरी बना ली है और महामुक्तिदाता की बाट जोह रहा हूं।…मैं वही बालक हूं जो निमग्न और विस्मृत भाव से दक्षिणेश्वर में पंचवटी के नीचे बैठकर श्री रामकृष्ण के अद्भुत वचनों को सुनता था। यही मेरा सच्चा स्वभाव है। अब मैं फिर उनकी मधुरवाणी को सुन रहा हूं, वही चिर-परिचित कंठस्वर जो मेरे अंत:करण को रोमांचित कर देता था। बंधन टूट रहे हैं, प्रेम का दीपक बुझ रहा है, कर्म रसहीन हो रहा है। जीवन के प्रति आकर्षण भी मन से दूर हो गया है। अब केवल प्रभु की गंभीर मधुर आवाज सुनाई दे रही है। “मैं आया। प्रभु मैं आया, वे कह रहे हैं, “मृत को स्वयं ही दफनाने दो और तुम मेरे पीछे चले आओ। “मैं आता हूं, मेरे प्राण वल्लभ। मैं आता हूं…” “वह पहला मनुष्य चला गया, सदा के लिए चला गया और कभी वापस नहीं आएगा। शिक्षा दाता, गुरू, नेता, आचार्य विवेकानंद चला गया है, केवल वही बालक, प्रभु का चिर शिष्य, चिर पदाश्रित दास।” अगस्त, 1900 में अपने गुरुभाई स्वामी तुरीयानंद को लिखते हैं, “मेरा शरीर एवं मन मग्न हो चुके हैं, विश्राम की आवश्यकता है..मेरा कार्य मैं समाप्त कर चुका हूं। बस गुरु महाराज का मैं ऋणी था। प्राणों की बाजी लगाकर मैंने उस ऋण को चुकाया है।” (क्रमश:) 15 दिसम्बर, 2011
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