बातूनी कछुआ
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बाल कहानी
एक बड़े तालाब में एक कछुआ रहता था। दो बगुलों से उसकी दोस्ती थी। वे तीनों रोज बड़ी देर तक गपशप किया करते थे।
एक बार वहां सूखा पड़ गया। वर्षा बिल्कुल नहीं हुई। ताल-तलैया सूखने लगे। खेत सूखने लगे। आदमी और जानवर प्यासे मरने लगे। चिड़ियां अपनी जान बचाने के लिए पानी की तलाश में वहां से भागने लगीं। बगुलों ने भी कहीं ऐसी जगह चले जाने का फैसला किया जहां पानी की कमी न हो।
जाने के पहले बगुले अपने मित्र कछुए से विदा लेने गए। उनके जाने की बात सुनकर कछुए ने कहा, 'मुझको मरने के लिए यहां क्यों छोड़े जाते हो? मुझको भी अपने साथ ले चलो।' बगुलों ने कहा, 'मित्र, हम तो तुमको नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन क्या किया जाए? हम तो उड़कर कहीं भी जा सकते हैं। पर तुम कैसे चलोगे?'
कछुए ने कहा 'यह सच है कि मैं तुम्हारी तरह उड़ नहीं सकता। लेकिन अगर तुम मुझको अपने साथ ले चलना चाहो तो मैं तरकीब बताऊं।'
बगुलों ने कहा, 'हां, हां, हम तुमको अपने साथ जरूर ले जाना चाहते हैं।' कछुए ने कहा, तो फिर एक मजबूत लकड़ी ले आओ। उसके दोनों किनारों को तुम अपनी-अपनी चोंच से पकड़ लेना। मैं लकड़ी को बीच में से पकड़ कर लटक जाऊंगा। इस तरह तुम मुझको अपने साथ उड़ा ले चलना।' बगुलों को तरकीब पसन्द आयी। वे कहीं से एक मजबूत लकड़ी ले आए।
बगुलों ने कहा, 'हम तुम्हें ले तो चलते हैं, पर तुम वायदा करो कि बिल्कुल मुंह नहीं खोलोगे। तुम ठहरे बातूनी। बिना बोले तुमसे रहा नहीं जाता। अगर भूल से भी मुंह खोला तो नीचे गिर जाओगे और तुम्हारी चटनी बन जाएगी।'
कछुए ने वायदा किया कि वह बिल्कुल नहीं बोलेगा।
अब लकड़ी के दोनों किनारों को बगुलों ने अपनी -अपनी चोंच में दबाया। कछुआ लकड़ी को मुंह में पकड़ कर बीच में लटक गया। बगुले लकड़ी और कछुए समेत उड़ गए।
वह ऊंचे उड़ते गए। खेतों, मैदानों और पहाड़ियों को पार करते हुए वे एक नगर के ऊपर से उड़ने लगे। उनको देखने के लिए सड़कों पर भीड़ जमा हो गयी। लोगों ने ऐसा तमाशा पहले कभी नहीं देखा था। वे लगे हंसने और तालियां पीट कर शोर मचाने 'देखो, देखो! दो चिड़ियां कछुए को कैसे उड़ाए लिए जा रही हैं!'
लोगों को हंसते देख कछुए को बड़ा गुस्सा आया। उससे बिना बोले नहीं रहा गया। उसने कुछ कहने को मुंह खोला ही था कि लकड़ी छूट गयी। वह धड़ाम से नीचे आ गिरा और उसकी हड्डी पसली चूर-चूर हो गयी।
चुन्नू–मुन्नू का कोना
शैयूष पाण्डेय
कक्षा-5वीं
पता : एफ-2/14, बुद्ध विहार फेज-1 दिल्ली-110086
'चुन्नू–मुन्नू का कोना' स्तम्भ के लिए अपने बनाये रंगीन चित्र आप भी भेज सकते हैं।
प्रकाशित चित्र पर पुरस्कार भी मिलेगा।
पता : बालमन, द्वारा सम्पादक, पाञ्चजन्य
संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग झण्डेवाला,
नई दिल्ली-110055
मिट्ठू तोता
प्यारा–प्यारा मिट्ठू तोता,
साथ मेरे वह रहता जी।
आता घर पर कोई भी तो,
नमस्कार वह कहता जी।
साथ मेरे वह खाना खाए,
कभी–कभी तो गाना गाए,
मैं नाचूं तो वह भी नाचे,
साथ मेरे झूमे इठलाए।
लाल नुकीली चोंच अनोखी,
नैना प्यारे गोल–मटोल।
सच पूछो तो अच्छे लगते,
उसके मीठे–मीठे बोल।
आशीष शुक्ला
वीर बालक
दुद्धा तो अमर है
वृद्धा एक भील बालक था। उसके पिता महाराणा प्रताप की सेना के एक वीर सैनिक थे। एक युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुए। अब केवल दुद्धा और उसकी मां ही बचे थे। उनके दिन बड़े ही कष्ट में बीत रहे थे।
एक बार उन्हें दो दिनों तक खाने को कुछ न मिला। तीसरे दिन मां ने दुद्धा के सामने दो मोटी-मोटी रोटियां और घास का साग रख दिया। दुद्धा देर तक खाने को देखता रहा। बड़ी कठिनाई से, शत्रुओं की आंख बचाकर उसकी मां थोड़ा-सा आटा लाई थी।
मां ने जैसे ही कौर मुंह में दिया, उसकी दृष्टि दुद्धा पर पड़ी। वह रो रहा था। उसकी रोटियां वैसी ही पड़ी थीं। उसने दुद्धा से पूछा, 'बेटा, क्या बात है?'
'कुछ नहीं मां, अभी तो हमें दो दिन ही भूखा रहना पड़ा है', वह बोला।
मां ने दुद्धा को गोद में समेट लिया। और उससे खाने का आग्रह करने लगी। अब दुद्धा से नहीं रहा गया। वह सुबकते हुए बोला, 'मां, राणा और उनके छोटे-छोटे बच्चे पिछले सात दिनों से भूखे हैं, उनका क्या हाल होगा?'
मां के पास इसका कोई उत्तर न था। उसने दुद्धा के दुख को समझा। उसके गालों पर दो आंसू ढलक पड़े।
दुद्धा ने मां के आंसू पोंछते हुए कहा, 'मां, रोओ मत। मैं अभी राणा को ये रोटियां देकर आता हूं। मैं उन्हें खिलाकर ही खुद खाऊंगा।'
मां ने पूछा, 'बेटा, तू राणा को कैसे और कहां खोज पाएगा? वह न जाने कहां भटक रहे होंगे? तू छोटा है। मैं तो तुझे देखकर ही जी रही हूं।'
दुद्धा ने कहा, 'मां, तू चिंता न कर। मुझे राणा का ठिकाना पता है। मैं अभी आता हूं।'
दुद्धा कपड़ों में रोटी छिपाकर चल दिया। मां घर में अकेली रह गई। उसने किवाड़ बंद कर लिए। वह सोचने लगी, 'क्या दुद्धा राणा तक पहुंच सकेगा? वह कब तक वापस आएगा? कहीं ऐसा न हो कि उसे बाकी जीवन अकेले ही काटना पड़े?'
उधर दुद्धा रात के अंधेरे में भागा चला जा रहा था। उसे रास्ता मालूम था। अचानक कोई चमकीली चीज उसके हाथ से टकराई और उसकी कलाई कट कर दूर जा गिरी। दुद्धा को लगा कि उसका हाथ जल रहा है।
उसने पोटली को बाएं हाथ में दबा रखा था। उसके पैरों में बिजली की सी गति थी। कलाई की चिंता न करते हुए वह तेजी से वृक्षों में कहीं गायब हो गया।
एक छोटी सी पहाड़ी पर पहुंचते-पहुंचते वह थक गया था। एक स्थान पर पहुंचकर उसने सीटी बजाई और गिर पड़ा उसका बायां हाथ उठा हुआ था। किसी के मधुर स्पर्श से उसने आंखें खोलीं, देखा, मुसकराया और बोला, 'राणा, ये रोटियां…मां ने…।' वह आगे कुछ भी न कह सका। बस, बायां हाथ आगे कर दिया।
राणा सब समझ गए। उनकी आंखों में आंसू भर आए। उन्होंने दुद्धा के हाथ से निकल रहे रक्त को अपने माथे पर लगा लिया।
कौन जानता है कि कुंभलगढ़ की विजय का सारा श्रेय दुद्धा को है। वह अमर है।
बूझो तो जानें
1. पहाड़ है पर पत्थर नहीं,
नदी है पर जल नहीं,
शहर है पर जीव नहीं,
जंगल है पर पेड़ नहीं।
2. दिन में सोए, रात में रोए,
जितना रोए उतना खोए।
3. दो दुबले कोल्हू के बैल,
दोनों पड़े कांच की जेल,
चक्कर बारह मील लगाएं,
फिर भी जेल से निकल न पाएं
4. ऊपर का हिस्सा खाकर,
बीच का हिस्सा ठुकराते हो,
सर्दियों में मुझे न पाकर
तुम उदास हो जाए हो।
उत्तर: 1. नक्शा, 2. मोमबत्ती, 3. घड़ी की सुइयां, 4. आम
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