साठ बरस की प्रगति

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साहित्यिकी

दिंनाक: 22 Nov 2011 14:00:34

साहित्यिकी

डा.दयाकृष्ण विजयवर्गीय 'विजय'

 

डुबा ही दे बढ़ती बाढ़ भ्रष्टाचार की,

हिली है चारदीवारी नये आगार की।

जिन्हें दी शक्ति थी वे ही धराशायी हुए,

रचे भी कौन बोलो योजना प्रतिकार की।

खड़े भूमाफिये देखो गड़ाये दांत हैं,

खुले विस्तारवादी घूमते संसार में।

दिया क्या मंत्र भौतिकवाद ने उपभोग का,

गई है टूट सीमा लोभ के विस्तार की।

प्रतिष्ठा से बड़ी है आज धन की लालसा,

बनी काली कमाई बात शिष्टाचार की।

हुई है साठ वर्षों में प्रगति इतनी ही,

बनी छवि देवता से दानवी आकार की।

हर हाथ में खंजर

राजेन्द्र निशेश

आईना जब भी मुझे अक्स दिखलाता है,

गुजरा हुआ माजी मुझे याद आता है।

लहूलुहान अपने शहर को देखता हूं,

हर हाथ में मुझे खंजर नजर आता है।

नहीं गवाह मिलता सरेराह वाकये का,

हर कोई अपनी जुबां से मुकर जाता है।

सेंकने वाले रोटियां सेंक लेते हैं,

उनके हर यकीन से दिल घबराता है।

उफ इस भीड़ में हर शख्स अब अकेला है,

क्या है माजरा समझ में नहीं आता है।

वक्त की सीढ़ियां चढ़ते हुए देखा है,

हमारा साया आगे को निकल जाता है।

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