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वामपंथियों का बौद्धिक “फासिज्म”

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Oct 29, 2011, 12:00 am IST
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मंथन

दिंनाक: 29 Oct 2011 16:15:38

इस 24 अक्तूबर को डेढ़ लाख छात्रों और 8000 से अधिक शिक्षकों वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में लगभग 150-200 छात्रों और शिक्षकों का एक संयुक्त प्रदर्शन कुलपति डा. दिनेश सिंह के कार्यालय पर पहुंच कर नारे लगाने लगा “इंकलाब जिंदाबाद”, “कुलपति मुर्दाबाद”, “विचारों की आजादी पर हमला बंद करो”। प्रदर्शनकारियों ने अपनी छाती पर कम्प्यूटरीकृत फलक लटका रखे थे जिन पर 16 छात्र और शिक्षक संगठनों के नाम अंकित थे और नारा लिखा था “शैक्षिक स्वतंत्रता की कटौती-डाउन, डाउन।” इस प्रदर्शन को जुटाने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के अतिरिक्त वामपंथी गढ़ जे.एन.यू. और जामिया विश्वविद्यालय के छात्र व शिक्षक संगठनों ने भी सहयोग किया था। इन मुट्ठी भर प्रदर्शनकारियों के आक्रोश और उत्तेजना का कारण यह था कि 1 अक्तूबर को दिल्ली विश्वविद्यालय की 120 सदस्यों वाली अकादमिक काउंसिल ने केवल नौ वामपंथी सदस्यों के विरोध को दरकिनार कर भारी बहुमत से बी.ए. आनर्स (इतिहास) द्वितीय वर्ष के छात्रों के पाठ्यक्रम में भारतीय संस्कृति-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य” नामक विषय के लिए निर्धारित पाठ्य सामग्री में से एक विवादास्पद पाठ को हटाने का निर्णय घोषित कर दिया था। इस निर्णय के विरोध में मुट्ठीभर वामपंथी बौद्धिकों ने वामपंथी पत्रकारों और कलमघिस्सुओं की सहायता से दिल्ली विश्वविद्यालय के विरुद्ध प्रचार अभियान छेड़ दिया है। अखबारों के साथ-साथ इन्टरनेट पर एक देशव्यापी आनलाइन हस्ताक्षर अभियान भी चलाया जा रहा है जिस पर अब तक केवल 1399 हस्ताक्षर प्राप्त होने की सूचना प्रकाशित हुई है। 24 अक्तूबर के प्रदर्शन को इस लम्बे प्रचार-अभियान की ही परिणति कहा जा सकता है।

गलत नीयत व दृष्टि

जिस विवादास्पद अध्याय को पाठ्यक्रम से हटाने का अकादमिक काउंसिल ने भारी बहुमत से निर्णय लिया है, उसका शीर्षक है- “300 रामायण, पांच उदाहरण और तीन विचार-बिन्दु”। उसके लेखक ए.के. रामानुजम् का 1993 में निधन हो गया है। फरवरी 1987 में रचित इस लेख को एक अमरीकी महिला पाउला रिचमैन द्वारा सम्पादित पुस्तक “मैनी रामायणाज” में सम्मिलित किया गया। “मैनी रामायणाज” पुस्तक का प्रथम संस्करण 1991 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया था, जिसका प्रथम भारतीय संस्करण आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने 1992 में प्रकाशित किया। सन् 2006 में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग, जिस पर वामपंथियों का एकछत्र वर्चस्व सर्वज्ञात है, ने इस पाठ को छात्रों के लिए अनिवार्य पाठ्य सामग्री में सम्मिलित करके विवाद को जन्म दे दिया। इस पाठ के पीछे विद्यमान नीयत और दृष्टि के कारण यह विवाद विरोध का रूप धारण कर गया जिसका उग्ररूप 2008 में विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में छात्र-आक्रोश में प्रगट हुआ। यह विवाद संसद में तो गूंजा ही सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया। न्यायालय ने विश्वविद्यालय को एक निष्पक्ष विशेषज्ञ समिति द्वारा इस लेख की शैक्षिक उपयुक्तता का आकलन कराने का निर्देश दिया। विश्वविद्यालय ने संभवत: वामपंथ नियंत्रित इतिहास विभाग के परामर्श से चार विशेषज्ञों की एक समिति नियुक्त कर दी। इस समिति की रपट के आधार पर अपने निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित समयावधि पर प्रस्तुत करने के उद्देश्य से 8 अक्तूबर को बैठक बुलायी गयी और अकादमिक काउंसिल ने विशेषज्ञ समिति की रपट का अवलोकन करके भारी बहुमत से उस विवादास्पद पाठ को हटाने का निर्णय घोषित कर दिया।

लोकतंत्रीय मूल्यों में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बहुमत के इस निर्णय का स्वागत करना चाहिए। इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा. एस.जेड.एच. जाफरी की तत्काल सार्थक प्रतिक्रिया थी कि असहमत होते हुए भी बहुमत के इस निर्णय को मैं शिरोधार्य करता हूं। पर, अन्य वामपंथियों ने यह लोकतांत्रिक उदारता नहीं दिखलायी। वे अपने अल्पमत को बहुमत पर लादने पर तुले हुए हैं। और मजा यह है कि वे बहुमत के निर्णय को फासिस्टी और अपने अल्पमतीय दुराग्रह को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का नाम दे रहे हैं। लोकतंत्र बनाम फासिज्म के इस व्याख्यात्मक उलटफेर के समर्थन में उन्होंने निम्न तर्क जाल बुना है-

थ् यह इतिहास पर हमला है थ् यह अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का गला घोटना है थ् यह भारतीय संस्कृति के वैविध्य पूर्ण वैशिष्ट्य को नकारना है थ् ए.के. रामानुजम् जैसे उद्भट विद्वान की कृति को पाठ्यक्रम से निकालना “विद्वानों के चिंतन और अध्ययन की आजादी” को छीनना है। थ् छात्रों को ज्ञानार्जन के मौलिक अधिकार से वंचित करना है।

सबसे पहले इस तर्क पर विचार करें कि क्या सचमुच रामानुजम् के विवादस्पद लेख को पाठ्यक्रम से निकाल कर भारतीय संस्कृति में व्याप्त विविधता और रामकथा के अनेक प्रवचनों को नकारा जा रहा है? यदि ऐसा है तो 1950 में प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा मान्य एवं प्रकाशित बेल्जियम देश के जेसुईट ईसाई मिशनरी फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रंथ “रामकथा की उत्पत्ति और विकास” को लेकर कभी विवाद क्यों नहीं खड़ा हुआ? विवाद तो दूर, इस शोध ग्रंथ को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और 1950 से अब तक उसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। 666 पृष्ठों के इस विशाल ग्रंथ में भारत की क्षेत्रीय बोलियों और सम्प्रदायों में प्रचलित रामायण पाठों की विविधता का वर्णन-विवेचन किया गया है। भारत के बाहर दक्षिण पूर्वी एशिया एवं अन्य देशों में रामायण की लोकप्रियता और स्थानीय विशेषताओं का भी आकलन हुआ है। बौद्ध और जैन सम्प्रदायों में रामकथा के अनेक रूपों के रचना काल और हेतु का विवेचन भी वहां उपलब्ध है। कामिल बुल्के की इस शोधकृति को एक अधिकारी ग्रंथ माना जाता है।

चिन्तित वामपंथी इतिहासकार

भारत की शीर्ष बौद्धिक संस्था साहित्य अकादमी ने दिसम्बर 1975 में “एशिया में रामायण परंपरा” विषय पर एक पांच दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया, जिसमें भारत और विदेश के अन्य श्रेष्ठ व प्रतिष्ठित विद्वानों ने शोधपत्र प्रस्तुत किये। रामायण पर अनेक शोध ग्रंथों के रचयिता डा. वी. राघवन द्वारा संपादित और साहित्य अकादमी द्वारा 1980 में प्रकाशित 727 पृष्ठों के इस महाकाय ग्रंथ में भारत के सभी क्षेत्रों, भाषाओं और बोलियों को तथा भारत के बाहर के देशों में रामायण के प्रभाव और कथा रूप पर 44 शोध निबंध उपलब्ध हैं, जिनसे रामायण परम्परा में विविधता प्रमाणित होती है। किन्तु इस ग्रंथ पर किसी ने आज तक उंगली नहीं उठायी।

रामकथा पर शोध की इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए साहित्य अकादमी ने जनवरी 1981 में एक और तीन दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया जिसका विषय रखा, “एशिया में रामायण में विविधताएं: उनका सांस्कृतिक, सामाजिक और मानव शास्त्रीय महत्व”। इस संगोष्ठी में भी देश, विदेश के अनेक लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों ने सहभाग और शोध पत्र प्रस्तुत किये। इस सामग्री का संपादन शीर्ष विद्वान के.आर. श्रीनिवास आयगार ने किया और साहित्य अकादमी ने 1983 में प्रकाशित किया। इसके भी कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और वह कभी भी विवाद का केन्द्र नहीं बनी।

इन तीन उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारतीय परम्परा ने सांस्कृतिक वैविध्य को कभी अस्वीकार नहीं किया, उल्टे उसका सम्मान किया है। यह भी उसे स्वीकार है कि देश, काल और भाषा के अनुसार रामकथा की प्रस्तुति की शैली बदलती रही है। किन्तु इस शैली परिवर्तन के पीछे रामायण का मूल संदेश कभी नहीं बदला। आदिकवि वाल्मीकि ने रामकथा का जो चौंखटा बनाया, उसके माध्यम से व्यक्ति, परिवार और समाज के जीवन में जिन आदर्शों और मर्यादाओं की स्थापना की, उनसे कोई नयी प्रस्तुति कभी नहीं भटकी। रामकथा की यह आदर्शोंन्मुखता ही उसकी शाश्वत लोकप्रियता और प्रभावोत्पादकता का कारण है। रामकथा की यह लोकप्रियता ही पाउला रिचमैन, रोमिला थापर और रामानुजम् जैसे बौद्धिकों की चिन्ता का कारण बन गयी। पाउला रिचमैन अपनी सम्पादित रचना “मैनी रामायणाज (अनेक रामायण) की भूमिका में स्वीकार करती हैं कि जनवरी 1987 में टेलीविजन चैनल दूरदर्शन प्रत्येक रविवार की प्रात: रामानन्द सागर के “रामायण” धारावाहिक की अपार लोकप्रियता ने वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर और स्वयं उसे बहुत चिन्तित कर दिया। क्यों 8 करोड़ लोग आतुरता से रामायण की प्रतीक्षा करते हैं? क्यों इस धारावाहिक के समय सड़कों पर रफ्तार थम जाती है? क्यों दूरदर्शन द्वारा इस धारावाहिक के प्रसारण के अधूरा रोक देने पर उद्वेलित हो उठते हैं, हड़ताल करके सरकार को उसका प्रसारण पूरा करने के लिए बाध्य कर देते हैं? रोमिला थापर को रामायण की इस लोकप्रियता में वाल्मीकि रामायण की सर्वमान्यता कारण लगा। अत: वाल्मीकि रामायण के मुकाबले ऐसी रामकथाओं को खोजना आवश्यक है जो उससे विपरीत दिशा में जाती हैं। रिचमैन अपने आमुख में स्वीकार करती हैं कि वह तमिल पृथकतावाद के प्रचारक और उत्तर भारत के विरोधी रामास्वामी नायकर की रामकथा से बहुत प्रभावित थीं और ऐसी ही रामकथाओं को खोजकर सामने लाना चाहती थीं। ऐसे में उसे रामानुजम् का लेख पढ़ने को मिला। वह उसका मनचाहा लेख था। उसने अपनी पुस्तक के प्रत्येक लेखक को रामानुजम् का लेख पढ़ने को भेजा और वह मानती हैं कि इस पुस्तक में संकलित सभी लेखों को रामानुजम् के लेख का प्रतिसाद कहा जा सकता है।

जीवन-मूल्यों से चिढ़

इस लेख के पीछे रामानुजम् की दृष्टि, नीयत और प्रेरणा उसके शीर्षक से ही स्पष्ट है। वे शीर्षक देते हैं- “300 रामायण, पांच उदाहरण और तीन विचार-बिन्दु”। तीन सौ रामायणों की बात तो कामिल बुल्के ने भी की है। पर, ईसाई मिशनरी होते हुए भी वे रामकथा के मूल आदर्श से नहीं भटके। रामकथा की अधिकांश प्रस्तुतियों का स्रोत उन्होंने वाल्मीकि को ही माना और वाल्मीकि की रामकथा का मूल उद्देश्य समाज में कतिपय आदर्शों व मर्यादाओं की स्थापना में ही देखा। जैन परम्परा में विमल सूरि की “पउमचरिय” के पीछे विद्यमान साम्प्रदायिक विद्वेष की भावना को उन्होंने रेखांकित किया। लेकिन अन्य जैन रामकथायें वाल्मीकि के निकट हैं, यह भी उन्होंने जताया। उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में दशरथ जातक ही अकेला रामकथा का उदाहरण नहीं है। उससे पुरानी अन्य रामकथायें भी हैं जो वाल्मीकि की अनुगामी हैं। पर वामपंथियों के “महानतम” विद्वान रामानुजम् 300 रामायणों में से जिन 5 उदाहरणों का चयन करते हैं, वे उनकी विकृत मानसिकता का प्रमाण हैं। इस चयन में जैन विमल सूरि हैं, वाल्मीकि और कम्ब रामायणों में अहिल्या का इन्द्र के साथ सेक्स प्रसंग हैं। वे यह नहीं बताते कि यहां भी कम्ब और वाल्मीकि का संदेश समान है। उनकी सबसे मौलिक खोज है एक संदिग्ध और अनजाना कन्नड़ लोकगीत, जिसमें सीता का जन्म किसी महिला कोख से नहीं, बल्कि राउल (राउल ही रामानुजम् का रावण है) नामक पुरुष की छींक से होता है। चूंकि कन्नड़ में छींक के लिए सीता शब्द है इसलिए इस कन्या को सीता नाम मिल जाता है। रामानुजम् की सीता “कामुक” है। वह रावण और लक्ष्मण जैसे पर-पुरुषों की ओर आकृष्ट होती है। रामनुजम् के रावण का वध राम नहीं, लक्ष्मण करते हैं। मुझे पता नहीं कि रामानुजम् की “महानता” का राग अलापने वाले वामपंथी विद्वानों ने इस कन्नड़ लोकगीत की सत्यता पर शोध किया या नहीं? पर भारत के वामपंथी माक्र्सवाद के प्रभाव में आकर धर्म और अध्यात्म को नकारने लगे, अपने को नास्तिक कहने में गर्व अनुभव करने लगे इसलिए संस्कृति के उदात्त जीवन मूल्यों से उन्हें चिढ़ हो गयी। उन जीवन मूल्यों का, उन्हें प्रतिपादित करने वाली इतिहास परम्परा का निषेध करना उन्होंने अपना धर्म मान लिया। उन्होंने यह सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी कि गांधी ने रामराज्य को ही स्वराज्य का लक्ष्य क्यों बनाया, क्यों डा. लोहिया ने अपने जीवन के अंतिम चरण में रामायण मेला आरम्भ कराने का प्रयास किया। डा. लोहिया भी स्वयं को नास्तिक कहते थे पर वे राष्ट्रभक्त थे। इस राष्ट्रभक्ति ने ही उन्हें भारतीय समाज पर रामकथा के भारी प्रभाव का सही आकलन कराने की दृष्टि थी। माक्र्सवाद का दार्शनिक एवं कार्यक्रमात्मक अधिष्ठान ढह जाने के बाद भी भारत के जो बौद्धिक अभी भी हिन्दुत्व विरोध को ही माक्र्सवाद समझ बैठे हैं, उन्हें डा. लोहिया के “राम, कृष्ण और शिव” व “मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व और रामायण मेला” शीर्षक दो संकलनों को अवश्य पढ़ना चाहिए। उनका निष्कर्ष है कि राम और कृष्ण पैदा हुए हों या नहीं, पर यह सच है कि भारतीय समाज के मानस को उन्होंने गढ़ा है। जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है, वैसे ही इनकी कहानियां लोगों के दिमाग पर अंकित हैं जो मिटायी नहीं जा सकतीं। डा. लोहिया राम को भारत की उत्तर-दक्षिण एकता का प्रतीक मानते हैं व कृष्ण को पूर्व-पश्चिम एकता का। अपनी इस समन्वयात्मक राष्ट्रीय दृष्टि के कारण ही डा. लोहिया माक्र्सवादी विचारधारा के चौखटे से गुजर कर भी उससे आगे बढ़ गए। उनकी दृष्टि नकारात्मक नहीं, सकारात्मक थी। पर भारतीय माक्र्सवादियों के एक वर्ग ने राष्ट्रीयता और संस्कृति के विरोध को ही विचारधारा मान लिया। इसे वामपंथ और दक्षिणपंथ का टकराव कहना गलत होगा।

निकृष्टतम अधिनायकवाद

1984 में जब रामजन्मभूमि आंदोलन का नया चरण गतिमान हुआ तब माक्र्सवादी इतिहासकारों ने हिन्दुत्व विरोध के आवेश में अपनी तर्क शक्ति और बौद्धिक क्षमता को बाबरी पक्ष के हवाले कर दिया। वे यह सिद्ध करने में लग गये कि राम इतिहास पुरुष ही नहीं, वे तो कल्पना प्रसूत मिथक मात्र हैं। 1989 में जे.एन.यू. के इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत “इतिहास का दुरुपयोग” शीर्षक पेम्पलेट इसका गवाह है। फिर कहीं से वे दशरथ जातक खोज लाये। उसके बल पर यह सिद्ध करने में जुट गये कि वाल्मीकि की रामकथा झूठी है। क्योंकि इस जातक के अनुसार सीता राम की पत्नी नहीं, बहन थीं और राजा दशरथ अयोध्या के नहीं, वाराणसी के राजा थे। देशभक्ति और राष्ट्रीयता का विरोध भारतीय माक्र्सवादियों का स्वभाव बन गया है। 1942 से 1947 तक देश विभाजन के पक्ष में मुस्लिम लीग को तर्क-वाण देने का काम इन माक्र्सवादियों ने ही किया। बहुधा यह देखा जाता है कि माक्र्सवादियों में भी मुस्लिम माक्र्सवादी इस्लाम और मध्यकालीन मुस्लिम ध्वंसलीला के बचाव में ही माक्र्सवादी आवरण का इस्तेमाल करते हैं। इस समय भी रामकथा के विवाद में वे हिन्दू-गैर हिन्दू, वंचित- सवर्ण, जैन-हिन्दू-बौद्ध हिन्दू भेद पैदा करने की कोशिश में लगे हैं।

सबसे अधिक हास्यास्पद यह है कि ये मुट्ठीभर हिन्दू विरोधी वामपंथी सत्ता के बल पर अपनी विकृत दृष्टि और विचारधारा को पूरे समाज पर विशेष कर किशोर छात्रों के कच्चे मन-मस्तिष्क पर थोपना चाहते हैं। इतिहास विभाग पर अपना एकछत्र नियंत्रण स्थापित कर वे पाठ्यक्रम और पाठ्य सामग्री के माध्यम से अपनी विचारधारा को पूरी युवा पीढ़ी पर आरोपित करने के प्रयास में जुटे हैं। पहले पाठ्यक्रम का एक संकीर्ण वैचारिक दृष्टि से चयन और फिर उस पाठ्यक्रम के लिए अपनी चुनी हुई पाठ्य सामग्री को शिक्षकों के लिए अनिवार्य बनाना। शिक्षकों की स्वतंत्रता का यह अपहरण क्या निकृष्टतम अधिनायकवाद या फासिज्म नहीं है? फासिज्म के विरोध को वे “अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य” का दमन कहते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में 22 साल तक इतिहास के शिक्षक के नाते मैंने इस वामपंथी फासिज्म के नग्न-नत्र्तन को देखा और भोगा है। सत्ता-आश्रित इस फासिज्म मनोवृत्ति का ही प्रमाण है कि रामकथा विवाद में भी हमारे वामपंथी बौद्धिक मानव संसाधन मंत्री और मंत्रालय के हस्तक्षेप की गुहार लगा रहे हैं। इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से उन्होंने पुरानी पीढ़ी के जदुनाथ सरकार, आर.सी. मजूमदार, आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव आदि सब दिग्गज इतिहासकारों को निष्कासित कर दिया है और जिद्दी वामपंथियों को प्रस्थापित कर दिया है। पर, 24 अक्तूबर के असफल प्रदर्शन ने सिद्ध कर दिया है कि रूस और चीन के समान अब भारत में भी माक्र्सवादी बौद्धिकों की जगह रद्दी की टोकरी में रह गयी है।

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