भारत के उन्नयन का आधार है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

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सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

दिंनाक: 24 Oct 2011 17:44:44

नरेन्द्र सहगल

राष्ट्रवाद, संस्कृति और मानवीय सभ्यता पर लम्बे लम्बे भाषण देने वाले विद्वान लोग प्राय: अपने उद्बोधनों में उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल की इन पंक्तियों को दोहराना नहीं भूलते,

यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

भारत के संदर्भ में इन पंक्तियों के भावार्थ की गहराई में छिपे विचारणीय बिन्दु पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इकबाल द्वारा इंगित वह “कुछ बात” क्या है जिसके कारण हमारा राष्ट्रीय अस्तित्व आज भी सीना ताने चट्टान की तरह मजबूत है। वह है हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और यही हमारे देश की सर्वविध समस्याओं का एकमात्र हल है। हमारे राष्ट्रवाद का आधार है हमारी शाश्वत हिन्दू संस्कृति और हमारी इस संस्कृति का निचोड़ है मानवता।

राष्ट्र की पहचान है संस्कृति

भारतीय संस्कृति एवं भारतीय राष्ट्रवाद के प्रखर विद्वान पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहा करते थे कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी…संस्कृति का विचार अथवा आधार लुप्त हो जाने पर राष्ट्रवाद की पवित्रता और अवधारणा एक स्वार्थी, पदलोलुप लोगों की राजनीति मात्र रह जाएगी। स्वराज तभी साकार और सार्थक होगा, जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधक बन सकेगा। इसी रास्ते से हमारा विकास होगा और पृथकतावादी शक्तियां समाप्त होंगी।

इसे भारत और भारतवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सारे विश्व में सर्वोत्तम संस्कृति एवं उस संस्कृति को व्याख्या देने हेतु उच्चकोटि की स्पष्ट और व्यावहारिक शब्दावली के होते हुए भी हम विदेश की भौतिकवादी सभ्यता और घोर संकीर्ण व अस्पष्ट शब्दावली को अपनाने में गौरव का अनुभव करते हैं। अंग्रेजों ने भारत पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए भारत की श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करके, पाश्चात्य सभ्यता का दबाव बनाया और शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करके भारत की संतानों को भारतीयता अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से काट डाला।

राष्ट्रवाद को खुली चुनौती

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी हम धूत्र्त ब्रिटिश शासकों की ही खींची गई लकीरों को अंधाधुंध पीटते चले जा रहे हैं। लार्ड मैकाले ने तो भारत में एक श्रेणी काले अंग्रेजों की बनानी चाही थी, परंतु अब तो अपने आपको काले अंग्रेज बनाने की स्पर्धा हो रही है। सारा देश स्वदेश की मूल भावना से भटककर विदेश की चकाचौंध के गत्र्त में डूब रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार क्षीण होने की वजह से ही देश में अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्थिरता, विक्षोभ, भटकाव, बेरोजगारी, भ्रष्ट प्रशासन एवं सांस्कृतिक प्रदूषण जैसी समस्याएं खड़ी हुई हैं। सुलझने की बजाए और भी ज्यादा विकराल होती जा रहीं ये सारी समस्याएं देश की स्वतंत्रता, अखंडता, सुरक्षा और राष्ट्रीय स्वाभिमान को भी चुनौती दे रही हैं।

भारतीय संस्कृति के अमर अजर संस्कारों से विहीन मात्र जीविकोपार्जन के सिद्धांत पर आधारित शिक्षा पद्धति ने देश की युवा पीढ़ी को राह भटकाने में अपनी भूमिका इस सीमा तक निभाई है कि आज का युवा अर्थात् देश का भविष्य किसी कटी हुई पतंग की तरह भौतिक वायुमंडल में भटक रहा है। सुसंस्कृति के अभाव में व्यक्तिगत चरित्र के साथ-साथ सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र भी दिशाहीन हो रहे हैं। राष्ट्र चिंतन के स्थान पर भोग चिंतन विकसित होने से परस्पर सहयोग, सह अस्तित्व, सहानुभूति और समर्पण जैसे भाव लुप्त होते जा रहे हैं। वर्तमान में व्याप्त भ्रष्टाचार का महारोग इसी का परिणाम है। पश्चिम की भोगवादी संस्कृति हमारे समाज जीवन को राष्ट्रवाद की भारतीय धरोहर से विमुख कर रही है।

भारतीय राष्ट्रवाद का आधार

भारत का राष्ट्र जीवन अर्थात् इस धरती पर पुष्पित पल्लवित संस्कृति का आधार हिन्दुत्व है जिसे मजहब, पंथ एवं जातिवाद के संकुचित दायरे में धकेलने का प्रयास किया जा रहा है। सत्ता की राजनीति ने इस प्रयास को प्रोत्साहित करते हुए वोट बैंक की समाजघातक व्यवस्था को जन्म दिया है। इस संदर्भ में हिन्दुत्व का वास्तविक अर्थ समझना भी जरूरी है। हिन्दुत्व इस देश के किसी पंथ (रिलीजन) का नाम न होकर एक राष्ट्रवाचक अवधारणा है। हिन्दुत्व भारत के भूगोल और संस्कृति का परिचायक है। हिन्दुत्व को धर्म के सर्वस्पर्शी, शाश्वत और विशाल धरातल पर रखा जा सकता है। इसीलिए हिन्दुत्व का संबंध धर्म के साथ है, जबकि मजहब का संबंध पूजा के साधारण तौर तरीकों से होता है। अत: हिन्दू धर्म जीवन पद्धति है और यही भारत की राष्ट्रीयता का आधार है, यही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।

भारत और भारतीयता के प्राणतत्व हिन्दुत्व अर्थात् एक आदर्श जीवन पद्धति को गीता में दी गई धर्म की सुंदर परिभाषा से समझा जा सकता है- यतोभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म अर्थात् धर्म एक प्रकार की व्यवस्था है, जो मनुष्य को अपनी इच्छाओं पर संयम रखने को प्रोत्साहित करती है और यही व्यवस्था सम्पन्न जीवन का उपयोग करते हुए श्रेष्ठ कर्म या दैवी तत्व की ओर बढ़ने की शक्ति प्रदान करती है। गीता में ही दूसरे शब्दों में धर्म की व्याख्या इस प्रकार है “धारणात् धर्ममित्याहु:धर्मो धारयति प्रजा:” अर्थात् वह शक्ति जो व्यक्तियों को एकत्रित करती है और उन्हें समाज के रूप में धारण करती है।

विकृत मनोभाव

गीता में वर्णित धर्म की यही अवधारणा भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार है जिसका संबंध सभी पंथों, मजहबों और जातियों से है। भारतीय संस्कृति का यही सारतत्व सामाजिक सौहार्द, भौगोलिक अखंडता और राष्ट्रभक्ति की जीवंत प्रेरणा है। देश में इस समय प्रचलित भोग-विलास पर आधारित पश्चिम की सभ्यता को संस्कृति कहना भारत की चिर पुरातन मानवीय संस्कृति का अपमान करना नहीं तो और क्या है? आज तो भौंडे नृत्य, नाच गाने, अभद्र रहन-सहन और पबों/होटलों में खाने-पीने जैसे कृत्यों को सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाता है। इस तरह की तथाकथित संस्कृति कभी भी समाज सेवा, देशप्रेम और समर्पण की प्रेरणा नहीं दे सकती। इससे तो हिंसा, भ्रष्ट व्यवहार और झूठ फरेब जैसी विकृतियां ही पैदा होंगी।

दूसरी ओर आध्यात्मिकता, त्याग, सत्य और अहिंसा पर आधारित भारत की सनातन संस्कृति, मनुष्य के आचरण को सुधार कर समाज में एकता और भाईचारे के भावों का समावेश करती है। देश और समाज से लेने की बजाए देने की प्रेरणा देती है। विभिन्न मजहबों, जातियों और मान्यताओं के व्यक्तियों को मनुस्मृति में वर्णित जीवन दर्शन (धर्म) के दस लक्षणों धृति, क्षमा, शमन, चोरी न करना, शुद्धता, इन्द्रिय निग्रह, धि, विद्या, सत्य एवं अक्रोध जैसे मानवीय सिद्धांतों का पालन करने में संकोच नहीं होना चाहिए। हिन्दुत्व अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति भारतीयों की प्रतिबद्धता ही विदेश निष्ठा, देशद्रोह और आपसी फूट जैसी मनोवृत्ति पर अंकुश लगाने का सामथ्र्य रखती है।

सामथ्र्यशाली राष्ट्रीय संस्कृति

भारतीय राष्ट्रवाद का आधार भारत की सनातन संस्कृति न केवल भारतीयों को एकजुट रखने में सामथ्र्यशाली है, अपितु इस सार्वभौम संस्कृति में संसार के सभी राष्ट्रों को एकसूत्र में बांधने का परमात्व तत्व भी समाया हुआ है। भारतीय संस्कृति के चार मूलभूत सिद्धांत विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त करने में पूर्णतया सक्षम हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात् पूरा विश्व एक परिवार है, एकम सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति अर्थात् सत्य एक है, विद्वान इसे विभिन्न तरीकों से कहते हैं, सर्वे भवन्तु सुखिन: अर्थात् सबका भला हो और यत पिण्डे तत् ब्रह्माण्ड अर्थात् जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। जो आत्मा में है वह परमात्मा में है और जो तेरे में है वही मेरे में है। भारतीय संस्कृति का यह वैचारिक/सैद्धांतिक आधार इतना ठोस एवं समन्वयकारी है कि भारत सहित पूरे विश्व की विभिन्न जातियों को जोड़ने की शक्ति रखता है।

भारत में सैकड़ों पंथ और जातियां हैं। ये सभी वर्ग इस धरती के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़े हुए हैं। यहां तक कि शक, हूण, यहूदी और पारसी इत्यादि अनेक विदेशी जातियां भारत में आईं और यहां के राष्ट्र जीवन में विलीन हो गईं। भारत में इन जातियों को पूरा सम्मान दिया गया। इनके द्वारा भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपनाए जाने का कारण बहुत स्पष्ट है। उस समय यहां का मूल हिन्दू समाज संगठित, शक्तिशाली एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान से ओत प्रोत था। बाद के कालखंड में जब हिन्दुत्व की लौ क्षीण हुई तो विदेशी आक्रमणकारियों के षड्यंत्र सफल होने लगे।

राष्ट्रजीवन पर विदेशी आघात

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आघात करने के उद्देश्य से तलवार के जोर पर मतान्तरण करना, मठ मंदिरों, विश्वविद्यालयों, सभी प्रकार के सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों को तोड़ना, जलाना इत्यादि ऐसे जघन्य कार्य किए जिनसे हमारी एकता, सुरक्षा और संस्कार जुड़े थे। यहां के हिन्दू जो इन जुल्मों को सहन नहीं कर सके और न ही अत्याचारियों को सबक सिखा सके वे मुसलमान हो गए। इन मतान्तरित लोगों ने यहां की राष्ट्रीय संस्कृति से नाता तोड़कर हमलावरों का साथ देना शुरू कर दिया। यह सिलसिला आज भी चल रहा है। परिणामस्वरूप भारत के अनेक भूभाग भारत से कट गए।

हिन्दुत्व की पकड़ ढीली होने से देश की अखंडता प्रभावित होती है। इसका अर्थ यही है कि जिस क्षेत्र में हिन्दू समाज विघटित एवं कमजोर होगा वहां अलगाववाद पनपेगा, फिर आतंकवाद शुरू होगा और वह क्षेत्र देश से कट जाएगा। यदि भारत के अतिप्राचीन मानचित्र को देखें तो इस समय आधे से ज्यादा भारत पर विधर्मियों का कब्जा है। केवल वर्तमान में ही झांका जाए तो स्पष्ट होगा कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश हिन्दुत्व की पकड़ कमजोर होने का ही नतीजा हैं। आज की कश्मीर समस्या यही तो है। अत: भारत में व्याप्त सभी प्रकार की व्यथाओं/समस्याओं को जड़ मूल से समाप्त करने का एकमेव रास्ता यही है कि देश और जन को जोड़ने वाली राष्ट्रीय संस्कृति के साथ प्रत्येक मजहब, जाति, पंथ, मत, क्षेत्र और वर्ग को जोड़ा जाए।

अंग्रेजों की कुचालें

उल्लेखनीय है कि अंग्रेज शासकों ने भी भारत को जोड़कर रखने वाले प्राणतत्व हिन्दुत्व अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ही समाप्त करने का रास्ता अपनाया। उन्होंने तो भारत के गौरवशाली इतिहास, विशाल संस्कृति और विविधता में एकता को तोड़-मरोड़कर हमारे अस्तित्व को ही समाप्त करने के प्रयास किए। भारत को एक राष्ट्र के वास्तविक स्वरूप के स्थान पर एक धर्मशाला सिद्ध करने की मुहिम शुरू की गई। पाठ्य पुस्तकों में जानबूझकर लिखवाया गया कि वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत इत्यादि ग्रंथ मिथ्या हैं। इस वाङमय को गड़रियों ने तैयार किया है। भारत में कभी भी राष्ट्र जीवन विकसित नहीं हुआ। धूत्र्त अंग्रेजों की इस भारत विरोधी चाल के परिणामस्वरूप भारतीयता को अनेक आघात सहने पड़े।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इस वास्तविकता को सामने नहीं आने दिया गया कि भारत में सनातन राष्ट्रवाद अतिपुरातन काल में ही अस्तित्व में आ गया था। भारत के प्रत्येक कोने में व्याप्त राष्ट्रीय चेतना ब्रिटिश शासकों की देन नहीं है। हमारा यह राष्ट्रवाद वर्तमान संविधान की देन भी नहीं है। यह कांग्रेस के नेतृत्व में लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम की उपज भी नहीं है। सत्य तो यह है कि पूरे 1200 वर्ष तक निरंतर लड़ा गया स्वतंत्रता संग्राम भारत में गहरे तक समाए हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति था। भारतीय समाज को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सदियों पर्यन्त संघर्षरत रहने की प्रेरणा हमारी संस्कृति ने ही दी। हमारी हस्ती के न मिटने का यही रहस्य है।

सृष्टि का प्रथम राष्ट्र भारत

भारतीय चिंतन में राष्ट्र एक जीवमान, स्वयंभू सांस्कृतिक इकाई है, जबकि पश्चिम में राष्ट्र को राज्य मानकर एक राजनीतिक परिकल्पना मान लिया गया है। भारतीय चिंतन के अनुसार राष्ट्र प्रकृति की एक सहज परिकल्पना के अंतर्गत ही अस्तित्व में आते हैं। कुछ पुर्जे जोड़कर बनाई गई मशीन की तरह नहीं बनते। किसी एक बड़े राज्य के द्वारा छोटे राज्यों को हड़प लेने से बना राज्यों का घालमेल, छह-सात राज्यों द्वारा राजनीतिक समझौता करके गठित किया गया संघ और किसी आर्थिक अथवा सैनिक संधि के तहत स्वयंस्वीकृत शासन व्यवस्था वाले राज्यों का जमावड़ा कभी राष्ट्र नहीं हो सकता। इस प्रकार से अस्तित्व में आए तथाकथित राष्ट्रों में गृहयुद्ध, वर्ग संघर्ष, पांथिक जंग और भौगोलिक टकराव शुरू होते देर नहीं लगती। भारत के अतिरिक्त संसार के प्रत्येक देश में यह नजारा देखने को मिलता है। जापान जैसे कुछ देश अपवाद हो सकते हैं।

इस संदर्भ में देखें तो स्पष्ट होगा कि भारत सृष्टि का प्रथम राष्ट्र है। राष्ट्र के लिए आवश्यक चारों आधार देश, भूमि, जन और चेतना भारत में अति प्राचीन काल से मौजूद रही है। ईसाई एवं मुस्लिम समाज के पृथ्वी पर जन्म लेने से बहुत पहले ही हमारे राष्ट्र की सीमाएं प्रकृति द्वारा निश्चित कर दी गई थीं। भारत की भौगोलिक सीमाओं के शास्त्रीय उल्लेख में हिमालय और समुद्र के उत्तर क्षेत्र का वर्णन मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का भू भाग जिसमें भारत की संतति निवास करती है, भारतवर्ष है। इसी तरह वायु पुराण के अनुसार गंग के स्रोत (हिमालय पर्वत) से कन्याकुमारी तक भारत देश की लम्बाई एक हजार योजन है।

एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र

आज अंग्रेजों के पढ़ाए हुए जो इतिहासकार, माक्र्स के मापदंडों पर चलने वाले विद्वान कामरेड और जिहादी मनोवृत्ति वाले उलेमा भारतीय संस्कृति को पिछड़ी, कुंठित एवं भारतीय राष्ट्रवाद को विभिन्न राज्यों का राजनीतिक समूह मानते हैं उन्हें भारत के ही प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। अंग्रेजों की योजनानुसार अस्तित्व में आए कांग्रेस दल के वर्तमान नेताओं को भी चाहिए कि वे अंग्रेजी शासकों की तोता रटंत को राष्ट्र हित में तिलांजलि देकर संयुक्त हिन्दुस्थानी संस्कृति के विभाजक चिंतन को छोड़ें और भारत की वास्तविक राष्ट्रीय पहचान एक जन, एक संस्कृति की अवधारणा को समझने का सद्प्रयास करें।

इसी संदर्भ में भारत भूमि का सम्पूर्ण सुख भोग रहे उन समाजों को भी अब भारत राष्ट्र के हित में अपना कट्टरपंथी रुख बदलने की आवश्यकता है जो भारत माता की संतान होते हुए भी देश के टुकड़े करके अपने मजहबी राष्ट्र बनाने के इरादों पर चल रहे हैं। ऐसे समाजों की भलाई और विकास इसी में निहित हैं कि वे देश के राष्ट्रीय महापुरुषों (जो उनके भी पूर्वज हैं), राष्ट्रीय स्थलों व राष्ट्रीय संस्कृति का सम्मान करें। राष्ट्रीय गान वंदेमातरम् का विरोध और भारत माता को डायन कहकर वे भारतीय कैसे कहला सकते हैं? भारतीय बनने के लिए भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़े रहने में परहेज कैसा? अपने-अपने मजहबी रास्ते पर स्वतंत्रता से चलते हुए भारतीय राष्ट्रवाद अर्थात् हिन्दुत्व का सम्मान करने से अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक जैसी राष्ट्रघातक शब्दावली को भी विराम मिलेगा।

प्रखर राष्ट्रवाद का उदय

इन दिनों भारत में सक्रिय राष्ट्रवादी संगठनों, कई सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अथवा हिन्दुत्व का प्रचार प्रसार करने पर उन्हें साम्प्रदायिक, फासिस्ट और पुरातनपंथी जैसे आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। देश के सबसे बड़े विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने वैचारिक आधार के रूप में हिन्दुत्व पर आस्था व्यक्त की है। देश के कोने-कोने में घूम रहे संत महात्मा भी किसी न किसी रूप में हिन्दू संस्कृति की ध्वजा उठाए राष्ट्रवाद के जागरण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। भारत में सांस्कृतिक जागरण की किरणें उदित होनी प्रारंभ हुई हैं।

जैसे-जैसे प्रखर राष्ट्रवाद का माहौल तैयार हो रहा है, समाज जीवन करवट बदल रहा है और अराष्ट्रीय तत्वों की पराजय सुनिश्चित होती जा रही है वैसे-वैसे हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों को अपने अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराते हुए दिखाई देने लगे हैं। ये शक्तियां किसी भी तरह हिन्दुत्व को जागृत होते देखना नहीं चाहतीं। यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘आतंकवादी’, स्वामी रामदेव को ठग, अन्ना हजारे को पदलोलुप और ऐसे ही अनेक साधु संन्यासियों को चरित्र भ्रष्ट जैसे अपमानजनक शब्दों से नवाजा जा रहा है। सच्चाई यह है कि ऐसी सभी संस्थाओं और गैर राजनीतिक नेताओं के निरंतर प्रयासों के फलस्वरूप देश में राष्ट्रवाद का उभार होना प्रारंभ हुआ है।

राष्ट्रभक्ति ले हृदय में

जो काम स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् प्रारंभ हो जाना चाहिए था उसकी एक झलक मिलने लगी है। अनेक राष्ट्रवादी संगठनों विशेषतया संघ जैसे राष्ट्रीय संगठन ने अपनी शाखाओं, कार्यक्रमों और शिविरों के माध्यम से देश में लाखों युवकों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का धरातल तैयार कर दिया है। संघ शाखाओं में गूंजने वाले राष्ट्रभक्ति के गीत, अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में वंदेमातरम्, भारत माता की जय, इंकलाब जिंदाबाद के उद्घोष और स्वामी रामदेव द्वारा शुरू की गई योग क्रांति में ‘उठो जवान देश की वसुंधरा पुकारती’ की ललकार इसका ज्वलंत प्रमाण है। समय करवट बदल रहा है।

राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में आई गिरावट राष्ट्रीय भावों के जागरण से ही समाप्त होगी। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, निराशा और लाचारी जैसी समस्याएं समाजसेवा की मनोवृत्ति तैयार होने से दम तोड़ देंगी। राष्ट्र जीवन के सच्चे साक्षात्कार से अलगाववाद और आतंकवाद पराजित हो जाएंगे। जब भारतीय समाज देश की राष्ट्रीय संस्कृति से पुन: जुड़ेगा तो समस्त आंतरिक और बाह्य चुनौतियों का सामना कर उन पर विजय प्राप्त करने में भारत सफल होगा। राष्ट्रीय आदर्शों और आकांक्षाओं की नींव के सुदृढ़ होते ही एक अजेय राष्ट्रशक्ति का उदय होगा। जब सारे समाज को अपने राष्ट्रीय जीवनोद्देश्य का ज्ञान होगा और हृदय में राष्ट्रभक्ति लिए युवाओं की टोलियां आगे बढ़ेंगी तो सभी संकटों को पराजित करके हमारा राष्ट्र विजयी होगा।

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