संवाद
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* बल्देव भाई शर्मा
दीपावली प्रकाश पर्व है जो चारों ओर आनंद और उल्लास बिखेरता है, लेकिन आज देश की परिस्थितियां जन-मन का रंजन करने वाली नहीं बल्कि आशा और विश्वास को तोड़ने वाली हैं। एक ओर जिहादी आतंकवाद, माओवादी नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, आर्थिक असंतुलन व महंगाई जैसी गंभीर समस्याएं देशवासियों के जीवन में चुनौती बनकर खड़ी हैं तो दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षा पर पाकिस्तान और चीन की दुरभिसंधियां फन ताने बैठी हैं। दुर्भाग्यजनक तो यह है कि इस सबसे आंखें मूंदे केन्द्रीय सत्ता न केवल वोट की राजनीति के लिए समाज को जाति-मत-पंथ में बांटकर राष्ट्र की एकात्मता और सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-विच्छिन्न करने पर तुली है, बल्कि भारत की सुरक्षा और प्रभुसत्ता पर मंडराते संकटों की भी अनदेखी करते हुए “कहीं कुछ नहीं हुआ” की मुद्रा में निÏश्चत दिखती है। इससे उत्पन्न निराशाजनक स्थितियां स्वाभाविक ही मन का उत्साह खंडित करती हैं और चहुंओर एक कुहासा सा छाया दिखता है। परंतु भारतीय मनीषियों का दिया मंत्र “चरैवेति-चरैवेति” जीवन की गति को थमने नहीं देता और इस सारे तमस के पार उमंगों से भरा एक ज्योतित संसार दिखाई देता है।
आशा, विश्वास और उद्यमशीलता जहां किसी समाज को उत्तरोत्तर उन्नयन की ओर ले जाते हैं, वहीं जीवन मूल्यों का संस्कार इस प्रगति को लोककल्याणकारी बनाता है। हमने केवल अपने लिए जीना नहीं सीखा, बल्कि “सर्वे भवंतु सुखिन:” की अवधारणा हमारे जीवन की प्रेरणा है। दीप स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है, उनका पथ आलोकित करता है। यही चिंतन हमारी सांस्कृतिक विरासत है। भगवान बुद्ध ने कहा “आत्मदीपोभव” यानी जब हम अपनी अंतश्चेतना को प्रकाशमान कर लेंगे तो नैराश्य का तम दुम दबाकर भाग जाएगा और आशा व विश्वास से जगमगाता संसार हमारे स्वागत के लिए बाहें फैलाए खड़ा होगा। अपने “मैं” का विस्तार परिवार, समाज, राष्ट्र और समूची सृष्टि तक कर लेना ही अंतश्चेतना का प्रकाश है, जिसे परिभाषित करते हुए तुलसीदास जी ने कहा “जड़ चेतन जल जीव नभ, सकल राममय जान”, जब यह राम तत्व अंत:करण में व्याप्त हो जाता है तो मैं ‘मैं’ नहीं रहता, ‘हम’ हो जाता है। सद्गुण-सदाचार से युक्त आत्म उन्नयन की अपनी सारी शक्ति को जब निरहंकारी भाव से “हम” में परिवर्तित कर दिया जाता है तब समाज की शक्ति खड़ी होती है। यह संगठित शक्ति राष्ट्र और समाजजीवन की सारी समस्याओं का निदान तो करेगी ही, जो तत्व अपने स्वार्थों के लिए हमारे सामाजिक मूल्यों और भारत की एकता-अखंडता, प्रभुसत्ता व राष्ट्रीय स्वाभिमान को समाप्त करने के षड्यंत्र कर रहे हैं, उन्हें भी परास्त करेगी।
देश की स्वाधीनता के बाद कांग्रेसी नेतृत्व ने अपने सत्ता स्वार्थों के लिए जिस राजनीतिक दिशा और तंत्र का अवलम्बन किया आज उसी का दुष्परिणाम है कि देश में एकात्म भाव दुर्बल होता गया, फलस्वरूप अलगाववादी, राष्ट्रविरोधी, आतंकवादी और विभाजक तत्वों को तो बल मिला ही, सेकुलरवाद के चोले में सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, भारतीय जीवन दर्शन व धर्म-संस्कृति को लपेटकर विकास के नाम पर भोगवादी और उन्मुक्त जीवन की पश्चिमी राह पर देश को ला खड़ा किया, जहां राष्ट्रीय स्वाभिमान, भारत बोध और समाजहित को तिलांजलि देकर अपने लाभ के लिए किसी भी सीमा तक जाकर देश व समाज से घात करने की मनोवृत्तियां बढ़ती चली गईं। उसी में से भ्रष्टाचार जैसी महामारी भी फैली, जिसने भारत में एक गंभीर संकट का रूप ले लिया है और जो जनकल्याण व देश की खुशहाली की सारी संकल्पनाओं को तो धूमिल कर ही रही है, राष्ट्रद्रोही तत्वों को भी पोष रही है।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध आज देश में जो वातावरण बना है और बाबा रामदेव, अण्णा हजारे व ‘यूथ अगेंस्ट करप्शन’ जैसे आंदोलनों ने पूरे जनमानस को जिस तरह आलोड़ित कर दिया है, समाज जागरण का यह एक प्रभावी संकेत है। लेकिन यह अचानक इतने व्यापक रूप में सामने आ गया, ऐसा नहीं है। देश में वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रसमर्पित व समाजसेवी संगठनों के लोकजागरण के प्रयत्नों का ही यह परिणाम है कि राष्ट्र व समाजजीवन में घातक हो रहे एक गंभीर रोग के निदान के लिए अवसर आने पर देश का जनमानस अंगड़ाई लेकर उठ खड़ा हुआ। इसलिए ऐसे सांगठनिक प्रयत्नों को देश में निरंतर मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन ऐसा करने की बजाय देश की सरकार निहित स्वार्थों व वोट की राजनीति के कारण राष्ट्रभक्त संगठनों को ‘आतंकवादी’ बताने पर तुली है, इतना ही नहीं तो जो हिन्दुत्व भारत की राष्ट्रीय प्रेरणा है, भारत की पहचान है और हमारे राष्ट्रजीवन का आधार है उसे “हिन्दू आतंकवाद’, ‘भगवा आतंकवाद” जैसे शब्द प्रयोग कर लांछित करने का षड्यंत्र कर रही है। हिन्दुत्व की प्रेरणा हिंसक नहीं, वैश्विक मंगलकामना से अभिसिक्त है। समूची मानवता किंवा समस्त सृष्टि का कल्याण हिन्दुत्व का अभीष्ट है। इसीलिए ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी जैसे चिन्तकों को भी कहना पड़ा कि यदि दुनिया को एक परिवार की तरह रहना सीखना है तो यह भारत से सीखें। दुर्भाग्य है कि इसके विपरीत आज हमारे सत्ताकेन्द्रित राजनीतिक तंत्र ने देश को आत्मबोधहीनता की उस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां पाश्चात्य जीवन दृष्टि हमारा मार्गदर्शन करती दिखती है और भारतीय चिंतन हेय लगता है। इसी में से निराशा जगती है।
वस्तुत: साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद और जिहादी आतंकवाद जैसी त्रासदियों के बाद विश्व शांति व सामंजस्यपूर्ण, भेदभावरहित और सहअस्तित्व वाली सर्वकल्याणकारक विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिए भारत की ओर टकटकी लगाए देख रहा है। क्योंकि स्वामी विवेकानंद सदृश महापुरुषों ने जब विश्व को भारत के अवदान से परिचित कराया, तब उसकी आंखें खुलीं। भारत को उस बड़ी भूमिका के लिए सन्नद्ध करना उन सबकी जिम्मेदारी है जो स्वयं को भारत माता का पुत्ररूप समाज मानते हैं। इसलिए निराशा के घने कुहरे को चीरकर स्वयं का जीवन तो सद्गुण-सदाचार से युक्त, स्वार्थभेद से मुक्त और देश के लिए जीने-मरने की भावना से ओतप्रोत बनाना ही होगा, समाज बंधुओं को उसी भाव से अनुप्रेरित कर “सब समाज को लिए साथ में, आगे है बढ़ते जाना” की भावना से समाज की एक जाग्रत व संगठित शक्ति खड़ी करनी होगी जो देश के साथ घात करने वाली शक्तियों को परास्त कर सके और उनको संरक्षण देने वाली व उसके सत्ता स्वार्थों को साधने से उत्पन्न हो रही वर्तमान निराशाजनक परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार राजनीतिक व्यवस्था को भी बाध्य कर सके कि वह राष्ट्रहित व समाजोन्मुख आचरण से विरत न हो। राष्ट्रभाव से ओत प्रोत समाज शक्ति ही सत्ता को नियंत्रित कर उसे सही राह पर ला सकती है, यह पिछले दिनों भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने स्पष्ट कर दिया है। यही आशा और विश्वास का सम्बल है। यह जागरण और तीव्र व दिशाबोध से युक्त हो तो निराशा का अंधकार टिक न सकेगा।
दिवाली पर हर घर की मुंडेर पर टिमटिमाते दीपों की पंक्तियों से जो प्रकाश-पुंज नि:सृत होता है, वह घनी काली अमावस की रात को भी जगमगा देता है। अंधकार से लड़ने के नन्हे दीप के संकल्प को स्वर देने वाली कवि नीरज की इन पंक्तियों के साथ यह आयोजन अपने सुधी पाठकों को समर्पित है-
जलाओ दीए पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
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