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भारत की पहचान है हिन्दी 

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Oct 15, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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साहित्यिकी

दिंनाक: 15 Oct 2011 15:54:57

अशोक “अंजुम”

भारत की पहचान है हिन्दी

जन गण मन की शान है हिन्दी

हिन्द का गौरव-गान है हिन्दी

अपना तो अभिमान है हिन्दी

है हिन्दी का हृदय विशाल बड़ा

सबको दुलारती, लुभाती है ये

हैं कितनी ही भाषा के शब्द यहां

बड़े प्यार से अपना बनाती है ये

बड़ी सम्पन्न है, दीन-हीन नहीं

यूं है मीठी कि मन में समाती है ये

सारे विश्व में ही मान-सम्मान है

सारे विश्व में ही बोली जाती है ये

खूब गुणों की खान है हिन्दी

हम कवियों की जान है हिन्दी

भारत की पहचान है हिन्दी

जन गण मन की शान है हिन्दी

विद्रूपताओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार

सुपरिचित लेखक-व्यंग्यकार विजय कुमार अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लेख और व्यंग्य लिखते रहे हैं। कई विधाओं में उनकी अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल में ही उनके कुछ व्यंग्यों का संग्रह “कुरसी तू बड़भागिनी” प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में कुल जमा 48 व्यंग्य संकलित हैं। हालांकि लेखक ने जीवन के विभिन्न हिस्सों में समाए अनेक विद्रूपों को इन व्यंग्यों का केन्द्रीय विषय बनाया है लेकिन राजनीति और शासन-प्रशासन की विषमताओं पर मुख्य रूप से प्रहार किया है। पुस्तक के शीर्षक और सबसे पहले व्यंग्य “कुरसी तू बड़भागिनी” में लेखक ने मिथक, इतिहास में दर्ज अनेक उदाहरणों से लेकर वर्तमान दौर की राजनीति में सत्ता सुख, कुर्सी-आरोहण की चिर लालसा को व्यंगात्मक रूप में व्यक्त किया है। वह लिखते हैं, “किस्सा कुर्सी का युगों पुराना है। इंद्र का सिंहासन तो सदा खतरे में रहता था। यहां किसी ने तप किया, वहां उसकी कुर्सी डोली। फिर उसे बचाने के लिए वह जाने क्या-क्या करता था। मुस्लिम शासकों में तो कुर्सी के लिए बाप ने बेटे का, बेटे ने बाप का, भाई ने भाई का और राजा का मंत्री या सेनापति ने कत्ल करवाया।” इसी व्यंग्य में वह आगे लिखते हैं, “कुर्सी की महिमा अपरम्पार है। यह सताती, तरसाती और तड़पाती है। यह खून सुखाती और दिल जलाती है। यह झूठे सपने दिखाकर भरमाती है। यह नचाती-हंसाती और रुलाती है।” आज समाज के हर वर्ग में जिस तरह से “मोबाइलो मेनिया” का रोग दिन-प्रतिदिन फैलता जा रहा है उससे तो ऐसा लगता है कि जैसे हमारे जीवन में यह 4-5 इंच का इलेक्ट्रानिक यंत्र हवा-पानी की तरह जरूरी हो गया है। लेकिन इस “मोबाइलो मेनिया” के रोगियों की वजह से सरकारी, गैरसरकारी और आम आदमी का जीवन कितना दुष्प्रभावित हो रहा है, इसकी बानगी “मोबाइल मीटिंग”, “हम भी मोबाइल हुए,” “मैं और मोबाइल चोर” व्यंग्यों में देखी जा सकती है। सरकार के द्वारा समय-समय पर गरीबी रेखा के ऊपर और नीचे देश के नागरिकों के बंटवारे को लेकर होने वाली कागजी नौटंकियां हम सभी पढ़ते और सुनते हैं। इसे लेकर होने वाली राजनीति और उस पर अमल कर अपनी ड्यूटी किसी भी तरह पूरी कर पल्ला झाड़ने वाले अफसर गरीबों के हित में वास्तव में क्या कर रहे हैं-यह किसी से छुपा नहीं है। इसी व्यथा को प्रभावी ढंग से लेखक ने “गरीबी रेखा से ऊपर” व्यंग्य में व्यक्त किया है। राजनीतिज्ञों के द्वारा जनता के लिए दिखाई जाने वाली हमदर्दी की सचाई क्या होती है, इस बहाने वह किस तरह ज्यादा त्रस्त, समस्याग्रस्त हो जाता है, ऐसे ही कुछ कर्मकांडों का विवरण रोचक शैली में “इस सादगी पे कौन….” शीर्षक व्यंग्य में दिया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि लेखक के पास न केवल व्यंग्य लिखने की यथेष्ट भाषा-शैली है बल्कि अपने आस-पास के जीवन और राजनीतिक स्तर पर मौजूद विडंबनाओं को पहचानने की पैनी दृष्टि भी है। वे अव्यवस्थाओं को अनावृत्त करने के साथ ही नई दृष्टि में विश्लेषित भी करते हैं। हालांकि कुछ व्यंग्यों में उनकी शैली की धार कुछ तीखी नजर नहीं आती है पर अधिकांश व्यंग्य पढ़े जाने योग्य हैं। उनके पास आम आदमी के दर्द को महसूस करने की संवेदना है, जो एक सफल व प्रभावी व्यंग्य लेखन के लिए सबसे जरूरी तत्व होता है। द

पुस्तक – कुरसी तू बड़भागिनी (व्यंग्य संग्रह) लेखक – विजय कुमार प्रकाशक – सत्साहित्य प्रकाशन 205-बी, चावड़ी बाजार दिल्ली-110006 मूल्य – 175 रु. पृष्ठ – 136

भारतीय इतिहास और ब्रिटिश इतिहासकार

जाने-माने इतिहासकार डा. सतीश चन्द मित्तल अनेक ऐसे शोधपरक ग्रंथ लिख चुके हैं जिनसे इतिहास में दर्ज कई भ्रामक विवरणों की सच्चाई उजागर हुई है। इसके पीछे उनका उद्देश्य देश की युवा शक्ति को इतिहास संबंधी सही तथ्यों में परिचित कराना रहा है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारत का गौरवशाली इतिहास, सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित रही है। लेकिन खेद का विषय है कि मध्यकालीन भारतीय इतिहास के बाद से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक के इतिहास में कई विदेशी और राजनीतिक लाभ उठाने के लिए कुछ देशी इतिहासकारों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। इससे न केवल भारत की वर्तमान पीढ़ी अपने अतीत के बारे में गलत धारणाएं बना लेती है बल्कि उसकी आगामी योजनाएं भी प्रभावित होती है। इस दृष्टि से सतीश चन्द मित्तल की यह पुस्तक बेहद महत्वपूर्ण कही जा सकती है। समीक्ष्य पुस्तक में लेखक ने ब्रिटिश साहित्यकारों के द्वारा भारत के बारे में दिए गए विवरणों और तथ्यों पर से पर्दा हटाया है। इसके लिए उन्होंने मनगढ़ंत व्याख्याएं या निष्कर्ष नहीं निकाले हैं बल्कि प्रमाणों और उद्धरणों का सहारा लिया है। एक बड़ी बात जो इस पुस्तक से उद्घाटित होती है वह यह है कि भारतीय इतिहास के संबंध में जो कुछ भी ब्रिटिश लेखकों ने लिखा, उनमें से अधिकांश इतिहासकार थे ही नहीं, बल्कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के मुलाजिम (नौकर) थे और इस प्रकार के लेखन के जरिए वे अपने मालिक को खुश करना चाहते थे। इस सत्य उद्घाटन से इस पुस्तक का महत्व और भी बढ़ जाता है। आठ अध्यायों में विभाजित पुस्तक “ब्रिटिश इतिहासकार और भारत” में लेखक ने विस्तार से भारत में यूरोपियन घुसपैठ से लेकर विभिन्न ब्रिटिश इतिहासकारों के द्वारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की व्याख्या को शोधपरक दृष्टि के साथ लिपिबद्ध किया है। पहले दो अध्यायों “भारत में यूरोपियन घुसपैठ” और “कम्पनी की लूट तथा भ्रष्ट प्रशासक” में यूरोपीय कंपनियों के भारत के विभिन्न भागों में आगमन का विवरण दिया गया है। इसके बाद के छह अध्यायों में ब्रिटिश इतिहासकारों की चर्चा की गई है। “ब्रिटिश प्राच्यवादी इतिहासकार” शीर्षक अध्याय के अंत में निष्कर्ष रूप में लेखक कहते हैं, “ब्रिटिश प्राच्यवादियों की मूल चेतना भारत में ईसाइयत के प्रचार तथा प्रसार की रही। वे भारत को एक ईसाई देश के रूप में देखना चाहते थे। इसीलिए अनेक विषयों पर ईसाइयत की पूर्व प्रचलित धारणाओं को माना, जो न इतिहास संगत थे और न वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरे उतरते थे।” इसी तरह ब्रिटिश उपयोगितावादी इतिहासकारों को लेकर लेखक द्वारा की गई टिप्पणी ध्यान देने योग्य है। वे लिखते हैं, “ब्रिटिश उपयोगितावादी चिंतक तेजी से सुधार चाहते थे परन्तु भारत के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण सकारात्मक नहीं था। वे भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को घृणा की दृष्टि से देखते थे। वे हर कीमत पर ब्रिटिश प्रभुत्व बनाए रखना चाहते थे।” इसी तरह “ब्रिटिश इवेनिजिलिकल इतिहासकार” “बिटिश रोमांटिक इतिहासकार” के संदर्भ में लेखक द्वारा निकाले गए निष्कर्ष प्रामाणिक होने के साथ ही विचारणीय भी हैं। कहा जा सकता है कि लेखक की यह शोधपरक पुस्तक ब्रिटिश इतिहासकारों को सर्वथा नई दृष्टि के साथ व्याख्यायित करती है। इस दृष्टि से यह स्वयं में एक ऐतिहासिक पुस्तक बन गई है। *

पुस्तक – ब्रिटिश इतिहासकार तथा भारत लेखक – डा. सतीश चन्द मित्तल प्रकाशक – अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना आप्टे भवन, केशवकुंज, झण्डेवाला, नई दिल्ली-110055 मूल्य – 200 रु. पृष्ठ – 260

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