समय हुआ अभिशप्त
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समय हुआ अभिशप्त

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Oct 1, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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साहित्यिकी

दिंनाक: 01 Oct 2011 17:47:52

अशोक “अंजुम”

मन के मन्दिर ध्वस्त हैं, किसको है परवाह,

बची रहे हर हाल में किन्तु इबादतगाह। 

नस-नस में है बेकली, रोम-रोम है तप्त,

जाएं बचकर हम कहां, समय हुआ अभिशप्त।

अरे वक्त इस बात का, क्या कुछ है अहसास,

पानी वाले देश में, भटक रही है प्यास।

लोकतंत्र की सिसकियां, भ्रष्टतंत्र के खेल,

न्याय तरसता न्याय को, डालें चोर नकेल।

धीरे-धीरे पी गया, सूरज सारा नीर,

हम नदिया तट पर खड़े, कोस रहे तकदीर।

अरी व्यवस्था क्या कहें, तेरा नहीं जवाब,

जिनको पानी चाहिए, उनको मिले शराब।

“मम्मी” हैं मद से भरीं, “पापा” हैं अभिभूत,

भरी अटैची माल से, लौटा लिए सपूत।

मेरी हर उम्मीद पर, डाले समय नकेल,

मेरा चहरा पहनकर, कौन खेलता खेल?

मैं तुमको दूंगा भुला, तुम भी जाना भूल,

मैंने कहा, “कबूल है?”, उसने कहा, “कबूल”।

आपातकालीन त्रासद अनुभवों की कहानी

इसे अपने देश भारत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जिस स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए अनेक देशभक्तों ने अपना सब कुछ लुटा दिया, यहां तक कि प्राण भी न्योछावर कर दिए, उस स्वतंत्रता का सर्वाधिक सुख भोगने वालों ने न केवल उन्हें भुला दिया बल्कि देश पर सर्वाधिक समय तक शासन करने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस और उसके नेता लोकशाही को तानाशाही और राजशाही में बदलने का कुप्रयास भी करते रहे। आतंकवाद, असमानता, भ्रष्टाचार, गरीबी, महंगाई जैसी ढेरों समस्याओं को नियंत्रित करने की बजाय उनका सारा ध्यान सत्ता पर कब्जा करने पर ही लगा रहा। इसके लिए वे किसी भी प्रकार के अनैतिक कदम उठाने में भी पीछे नहीं रहे। ऐसा ही एक स्वतंत्रता और लोकतंत्र विरोधी कृत्य वर्ष 1975 में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में भी किया था। स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में दर्ज 635 दिनों के वे भयानक पल कितने त्रासदीपूर्ण थे, इस अनुभूति को उसे सहने वाले किसी भुक्तभोगी ने ही महसूस किया होगा।

उस कालखण्ड के साक्षी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता रहे जगत नारायण मित्तल ने उन अनुभवों को अपनी डायरी में दर्ज किया था। उन्हीं अनुभवों को पुस्तकाकार में उनकी पुत्री अस्मिता अग्रवाल ने प्रस्तुत किया है। कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आई पुस्तक “यह देश मेरा” से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उस दौर में सत्तालोलुप नेताओं ने किस तरह से लोकतंत्र और देश हित को सर्वोपरि समझने वाले राष्ट्रवादियों की भावनाओं को रौंदने का कुप्रयास किया था? देश की नई पीढ़ी को यह पुस्तक इसलिए पढ़नी चाहिए ताकि वे जान सकें कि किस तरह से भारतीय अतीत के उस कालखण्ड को इतिहास बनने से रोका गया? ताकि वे यह भी जान सकें कि स्वतंत्रता आंदोलन में जिस राजनीतिक दल और उनके नेताओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने का दावा किया था, उसी दल की सत्ता पाते ही मति कैसे भ्रष्ट हो गई। 25 जून, 1975 से 22 मार्च, 1977 तक की अवधि के दौरान दिन-प्रतिदिन घटित घटनाओं का विवरण पढ़ते हुए अतीत के वह क्षण सामने से गुजरते हुए से लगते हैं। दो खण्डों में विभाजित इस पुस्तक के पहले खण्ड (जेल यात्रा से पूर्व) में लेखक ने अपने जेल जाने से पहले देश में घटित होने वाले राजनीतिक घटनाक्रम और पुलिस की हिरासत से बचने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयासों के बारे में लिखा है। इसमें 14 नवंबर, 1975के दिन उनकी पत्नी द्वारा लिखा गया वह संस्मरण भी बेहद मार्मिक है जब लेखक को पुलिस पकड़कर ले जा रही थी। वे “भारत माता की जय” का उद्घोष करते जा रहे थे, ऐसा लग रहा था जैसे अंग्रेजों की गुलामी से आजाद भारत मां को उसके ही कपूतों से मुक्ति दिलाने के लिए देशभक्तों और लोकतंत्र के दीवानों ने क्रांति का आह्वान कर दिया हो। पुस्तक के दूसरे खण्ड “जेल प्रवास” में लेखक द्वारा जेल प्रवास के दौरान अर्जित अनुभवों, प्रतिदिन घटित होने वाली देशव्यापी घटनाओं, प्रतिक्रियाओं के साथ और भी बहुत कुछ ऐसा अनुभव व्यक्त है जिसे लोकतंत्र और देश के प्रति आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहिए।

कह सकते हैं कि यह पुस्तक “आपातकालीन त्रासद अनुभवों” की केवल कहानी भर नहीं है बल्कि इतिहास का एक दस्तावेज भी है। पुस्तक के अंत में मौजूद परिशिष्टों में अभियोग के प्रकार व न्यायालय के निर्णय, मीसा के आरंभ, जेल में कैद संघ के कार्यकर्ताओं का विवरण और कुछ दुर्लभ चित्र इसे और भी महत्वपूर्ण बना देते हैं।

पुस्तक   – यह देश मेरा (डायरी)

लेखक –     जगत नारायण मित्तल

प्रकाशक      –     नारायण प्रकाशन

              द्वारा डा. अमिता अग्रवाल

मदनपुरी, चिलकाना रोड, सहारनपुर (उ.प्र.)

मूल्य  –     200 रु. पृष्ठ – 204

फोन   – (0132) 2652340

ई.मेल. –    ठ्ठथ्र्त्द्यठ्ठ.ठ्ठढ़ढ़.26ऋढ़थ्र्ठ्ठत्थ्.ड़दृथ्र्

चरित्र की प्रासंगिकता

हिंदी साहित्य के वर्तमान परिवेश में यह धारणा प्रचलित है कि कविता के लिए यह समय घोर विरोधाभासी है। इसी के चलते ही न तो प्रकाशक काव्य साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और न ही रचनाकार कविता रचने का साहस जुटा पाते हैं। बावजूद इसके इन तमाम भ्रांतियों को दरकिनार करते हुए प्रसिद्ध कवि और बाल साहित्यकार उद्भ्रांत का प्रबंध काव्य “राधामाधव” हाल में ही प्रकाशित होकर आया है। इसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण के चरित्र को आधार बनाकर न केवल उनके आध्यात्मिक प्रेम को नए अर्थों में व्याख्यायित किया गया है बल्कि इसी बहाने स्त्री विमर्श को आधुनिक संदर्भों में विवेचित किया गया है। समीक्ष्य कृति सात सर्गों में विभागित है। प्रथम सर्ग “पृथ्वी आकाश” में राधा कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को असीम भावुकता के साथ व्यक्त करती हैं। लेकिन उनकी यह भावभिव्यक्ति कब लौकिक से पारलौकिक स्वरूप ग्रहण कर लेती है, इसका उन्हें पता ही नहीं चलता और संभवत: उनके बीच के प्रेम में उपस्थित यह दिव्यता ही उसकी सुन्दरता है। राधा कहती हैं- “तुम माधव/मेरे मन-प्राणों में/रचे-बसे इस तरह/ कि आज भी तुम्हारे तन की/ कर्पूरी सुगंध/ मेरे नश्वर अस्तित्व को/अनश्वर कामना से/ परिपूरित करती है।”

दूसरे सर्ग “प्रकृति-पुरुष” में श्रीकृष्ण के द्वारा गोपिकाओं के वस्त्र हरण के प्रसंग को भरपूर काव्यात्मकता के साथ लिखा गया है। हालांकि इसमें कुछ चलताऊ शब्द भी इस्तेमाल किए गए हैं जो पाठक को काव्य प्रवाह का आनंद लेने में अवरोध पैदा कर सकते हैं, लेकिन इस लौकिक घटना के जरिए प्रकृति-पुरुष के द्वारा स्त्रियों को शालीनता बोध का पाठ जिस सहजता से पढ़ाया गया, वह आत्मिक संतुष्टि प्रदान करता है। पुस्तक के तीसरे सर्ग “आत्म-परमात्म” में कृष्ण के द्वारा वृषभासुर के वध, राधाकुण्ड के निर्माण और उसमें स्नान के द्वारा गो-वध को महापाप का बताया गया है। इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि माधव के सभी गुणों, उनकी दिव्यताओं और उनके महामानवीय गुणों को कृष्ण स्वयं नहीं, राधा भाव विभोर होकर व्यक्त करती हैं।

पुस्तक के अगले सर्ग “माया-ब्रह्म” में राधा अपने प्रियतम माधव के ब्रह्म स्वरूप की अलौकिकता को विभिन्न उदाहरणों से व्यक्त करती हैं, जैसे स्वयं को समझाती, ढांढस देती हैं-“तुम थे/ एक अनासक्त/काम-योगी/काम और योग/ दोनों ही साधा था तुमने/क्योंकि पूर्णकाम थे तुम।” इसी तरह अगले सर्ग “अमरगीत” में गोपिकाओं और उद्धव के बीच हुए प्रेम और ज्ञान के तार्किक संवादों को कवि ने बहुत सरलता के साथ शब्दबद्ध किया है। गोपिकाओं के मन में कृष्ण के प्रति उपस्थित अथाह प्रेम के समक्ष उद्धव का पर्वत के समान ब्रह्म ज्ञान कैसे बौना साबित होता है, इसकी अनुभूति इसमें की जा सकती है- “हिमालय से भी ऊंचा/ज्ञान लेकर/उनका अहंकार/गोपियों के प्रेम के समंदर में/चूर-चूर हो गिरा।” पुस्तक के अंतिम दो सर्गों “मन वृंदावन” और “अनादि-अनंत” में कृष्ण के प्रेम स्वरूप मानवीय अवतार और ब्रह्मस्वरूप परामानवीय अवतारों की विशिष्टताओं को कवि ने संक्षिप्त रूप में रचा है। “प्रेम तो अनन्य किया/ लेकिन आसक्ति रहति/किया अत्याचारी का वध/ लेकिन उसके प्रति/करुणा का भाव रख/घृणा रंचमात्र नहीं।”

यह कृति न केवल राधा-माधव के प्रेम के रहस्यों को उद्घाटित करती है बल्कि कृष्णावतार के उन प्रसंगों को भी सरल ढंग से व्याख्यायित करती है, जो वर्तमान समय में   अधिक प्रासंगिक हैं।

पुस्तक       –     राधामाधव (प्रबंध काव्य)

लेखक –     उद्भ्रांत

प्रकाशक      –     नेशनल पब्लिशिंग हाउस

              2/33, दरियागंज

                        नई दिल्ली-110002

मूल्य – 250 रु.  पृष्ठ – 142

फोन- (011) 23274161

बेबसाइट ध्र्ध्र्ध्र्.दद्रण्डदृदृत्त्.ड़दृथ्र्

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