पाठकीय
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14 सितम्बर 1949 ई. को भारत की संविधान सभा ने अनुच्छेद 346(1) के अन्तर्गत प्रस्ताव पारित करके हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिया था। साथ ही संविधान में यह प्रावधान भी रखा गया कि अगले 15 वर्ष तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भारत संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए जारी रहेगा। आज हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुए 64 वर्ष पूर्ण हो गए हैं। लेकिन अभी तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं मिला है। यह उस हिन्दी का अपमान है, जो पूरे भारत में बोली और समझी जाती है। आज भी केन्द्र सरकार एवं प्रान्तीय सरकारों के काम-काज में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व है। इसके लिए उत्तरदायी हैं हमारे नेता, जिन्होंने हिन्दी भाषा के प्रति उदासीनता अपनाई, क्योंकि वे स्वयं मैकाले-पुत्र थे। अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति में पले थे। इसलिए अपनी मानसिक गुलामी के कारण उन्होंने अंग्रेजी भाषा के संवर्धन के लिए नीतियां बनार्इं। आज भी प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्चतर विद्यालयों में विद्यार्थियों को अंग्रेजी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़नी पड़ती है। सरकारी नौकरियों में भी अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाले प्रतिभागियों को प्राथमिकता दी जाती है। निजी कम्पनियों में तो ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि बिना अंग्रेजी जाने कोई वहां काम ही नहीं कर सकता है, जबकि उनमें भी बोलचाल की भाषा हिन्दी ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारे राजनेता पहले स्वयं हिन्दी को अपनाएं और हिन्दी का संबंध रोजी-रोटी से जोड़ें। हिन्दी जन-जन की भाषा है। इसमें करोड़ों लोगों को जोड़ने की क्षमता है। कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, प्रयाग आदि अनेक तीर्थस्थानों पर कुम्भ के मेले पर एकत्रित होने वाले करोड़ों लोग हिन्दी के सहारे एक-दूसरे के स्नेही एवं आत्मीय बन जाते हैं। उत्तर, दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम से आने वाले श्रद्धालुओं को एक माला में पिरोने का कार्य हिन्दी ही करती है। इसीलिए तो हिन्दी को राष्ट्र का गौरव माना गया है। क्या यह कहना सत्य नहीं कि विदेशों में बसे करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीयों और भारतीय मूल के लोगों के बीच आत्मीयता के संबंध जोड़ने वाली भाषा हिन्दी ही है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में विदेशी पर्यटक भारत भ्रमण के लिए आते हैं। वे भारत आने से पहले अपने-अपने देश में हिन्दी सीखते हैं। विदेशी पर्यटक यह भली-भांति जानते हैं कि अगर उन्हें भारत को जानना है- भारतीय संस्कृति को समझना है- तो फिर एक ही माध्यम है- हिन्दी को सीखना। इसीलिए आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का आकर्षण बढ़ रहा है। हिन्दी एक सम्पर्क भाषा के रूप में बड़ी तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही है। परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड, अमरीका, चीन, जर्मनी आदि अनेक देशों में हिन्दी सीखने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी में विचार-गोष्ठियां होने लगी हैं। यहां तक कि विश्व के विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी को पढ़ाया जाने लगा है।
किन्तु भारतीयों की यह मानसिकता बन गई है कि भारत में अंग्रेजी के बिना कुछ नहीं हो सकता। इसीलिए हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में प्रवेश दिलाना शान समझने लगे हैं। छोटे-बड़े नगरों में ऐसे विद्यालयों की संख्या में वृद्धि हो रही है। आज हम अंग्रेजी को सर्वोपरि समझने लगे हैं। इसे ही रोजगार का साधन समझने लगे हैं। इस स्थिति से निपटने का एक ही उपाय है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाए। विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी विषय की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए। प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो। सभी सरकारी कार्य हिन्दी में होने लगें। यहां तक कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में हिन्दी का वर्चस्व स्थापित किया जाए। यह धारणा बिल्कुल गलत है कि अंग्रेजी के बिना भारत विकास नहीं कर सकता है। ऐसा होता तो जापान, चीन, रूस, जर्मनी आदि देश विकास नहीं कर पाते। इउ”” द्रउ””ऊ
-कृष्ण वोहरा
641, जेल ग्राउण्ड, सिरसा (हरियाणा)
सुराज के शत्रुओं को परास्त करो
स्वतंत्रता दिवस विशेषांक में श्री बल्देव भाई शर्मा का संवाद 'सुराज की आस' वास्तव में पाठकों से संवाद करता हुआ लगा। ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं कि 'बलिदानियों ने अपने प्राणों का थाल सजाकर भारत माता की आरती उतारते हुए जिस स्वतंत्रता देवी का आह्वान किया था, क्या उसका अभीष्ट यही था कि आजादी के 64 वर्ष बाद भी 40 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीते हुए न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए छटपटाते रहें।'
-सरिता राठौर
हैदरपुर (दिल्ली)
द संवाद से साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा प्रतिरोध विधेयक की जानकारी मिली। यह विधेयक बहुसंख्यक हिन्दू समाज को लांछित करने तथा दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का षड्यंत्र है और पूरी तरह से एकांगी तथा भेदभावपूर्ण है। आखिर सोनिया सलाहकार परिषद चाहती क्या है? जो समाज मुस्लिम व ब्रिाटिश साƒााज्यवाद के सामने नहीं झुका वह इउ”” द्रउ””ऊ
-डा. नारायण भास्कर
50, अरुणा नगर
एटा (उ.प्र.)
द आम आदमी को सुराज की आस अभी तक है। किन्तु जो लोग प्रभावशाली हैं, जिनके इशारे पर सरकारें बनती और बिगड़ती हैं, जिनके पास धन बल है, वे लोग सुराज की आस पर पानी फेर देते हैं। ऐसे लोगों को डर लगता है कि यदि सुराज आ गया, तो फिर उन्हें कौन पूछेगा?
-निशान्त
1-सी, सेक्टर-34, नोएडा (उ.प्र.)
द सुराज के लिए जिस तरह की छटपटाहट दिख रही है, वह स्वतंत्रता आन्दोलन की तरह अवश्य परिवर्तन लाएगी। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि सभी राष्ट्रभक्त संगठन एक साथ मिलकर काम करें। अलग-अलग काम करने से सत्ता पर उसका असर तनिक भी नहीं होगा।
-लक्ष्मी चन्द
गांव-बांध, डाक-भावगड़ी, जिला-सोलन (हि.प्र.)
द जो सरकार खुद ही सरकारी खजाने को लूट रही है, उसके रहते सुराज आना संभव नहीं है। जिस देश में आर्थिक विषमता, गरीबी, भ्रष्टाचार और अराजकता चरम पर हों, जिस देश की सरकार 'वोट बैंक' के लिए ही कुछ काम करती हो, वहां सुराज कैसे आएगा? हिन्दुओं के जगने पर ही देश में सुराज आएगा।
-आर.सी. गुप्ता
द्वितीय ए-201, नेहरू नगर
गजियाबाद-201001 (उ.प्र.)
द स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने सुराज पर जोर न देकर 'कुर्सी' पर बने रहने के लिए हिन्दुओं को जाति के आधार पर बांट दिया। अब जातिगत द्वेष इसउ”” ड्ढमधोरीउ”” ड्ढाउ”” लाभउ”” सत्तालोलुपउ”” लोथ्रउ”ठा” -ईश्वर चन्द्र
239, धर्मकुंज अपार्टमेन्ट, सेक्टर-9
रोहिणी, दिल्ली-110085
द स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने कहा था कि चाहे जिस मार्ग या उपाय से हो, भारत का विभाजन दूर होना चाहिए। किन्तु आज की सरकार तुष्टीकरण की नीति से भारत को पुन: एक बार बांटने का मार्ग प्रशस्त कर रही है। क्रांतिकारियों और देशभक्तों का जैसा अपमान भारत में होता है, वैसा शायद और कहीं नहीं होता है।
-ठाकुर सूर्यप्रताप सिंह सोनगरा
कांडरवासा, रतलाम-457222(म.प्र.)
उन्हें नहीं मिला आजादी का श्रेय
श्री नरेन्द्र सहगल का लेख 'व्यर्थ न जाए स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान' पढ़ने से यह ध्यान आता है कि आजादी का श्रेय जिन लोगों को मिलना चाहिए, उन्हें नहीं मिला। वीर सावरकर, तात्या टोपे, मदनलाल ढींगरा, भगत सिंह, राजगुरु आदि के नाम पर आज कितनी सड़कें और भवन हैं? जबकि नेहरू-गांधी खानदान के नाम पर हजारों भवन और सड़कें हैं। शहीदों के सर्वस्व समर्पण का आजाद देश ने मूल्यांकन नहीं किया।
-मनोहर 'मंजुल'
पिपल्या-बुजुर्ग, पश्चिम निमाड़-451225 (म.प्र.)
ऐसे थे भगत सिंह
प्रो. योगेश चन्द्र शर्मा के लेख 'अमर शहीदों के अन्तिम शब्द' ने बताया कि आजादी का जुनून क्या होता है। शहीद भगत सिंह ने फांसी पर चढ़ने से कुछ दिन पूर्व अपनी मां से लाहौर जेल में कहा था, 'मेरी लाश लेने आप मत आना। कहीं आप रो पड़ीं तो लोग कहेंगे कि भगत सिंह की मां रो रही है।' ऐसे भारत-भक्त को कोटि-कोटि प्रणाम।
-गणेश दत्त पाण्डेय
बागेश्वर (उत्तराखण्ड)
भारत-भक्त का निष्कासन
यह दुर्भाग्य है कि जम्मू-कश्मीर से एक भारत-भक्त शासक महाराजा हरि सिंह को निष्कासित होना पड़ा था। दूसरी ओर देश-विरोधी हरकतों के बावजूद शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला को सत्ता-सुख मिल रहा है। यही कारण है कि कश्मीर में देश-विरोधी ताकतें मजबूत हो रही हैं।
-रामचंद बाबानी
स्टेशन मार्ग, नसीराबाद, अजमेर (राजस्थान)
लड़ाई बाकी
अन्ना का अनशन खुला, पाया सबने हर्ष
धन्यवाद है दे रहा, उनको भारतवर्ष।
उनको भारतवर्ष, विषय गंभीर उठाया
भ्रष्टाचार कोढ़ है, जनता को समझाया।
कह 'प्रशांत' लेकिन है अभी लड़ाई बाकी
मार्ग बीच का निकला, मगर शेष है झांकी।।
-प्रशांत
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