नेपालमधेशवादी पार्टियों के समर्थन से बनी भट्टराई सरकार
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राकेश मिश्र
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) के उपाध्यक्ष डा. बाबूराम भट्टाराई मधेशवादी पार्टियों की बैसाखी के सहारे नेपाल के 35वें प्रधानमंत्री बन तो गए हैं पर राह में रोड़े भी कम नहीं हैं। हालांकि पद पर बैठते ही उन्होंने शान्ति प्रक्रिया और संविधान लेखन की दिशा में पहल कर दी है। गत 28 अगस्त को संयुक्त लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा के सहयोग से प्रधानमंत्री निर्वाचित होते ही उन्होंने कहा कि 45 दिन के अन्दर शान्ति प्रक्रिया को अगले चरण में पहुंचा दिया जाएगा।
पूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल के इस्तीफे से रिक्त प्रधानमंत्री पद के निर्वासन में इस बार नेपाली कांग्रेस और एमाले ने सहमति बनाकर माओवादियों को सत्ता से दूर रखने की तैयारी कर ली थी। माओवादी अध्यक्ष प्रचण्ड को भी आभास हो गया था कि नेपाली कांग्रेस और एमाले माओवादियों के नेतृत्व में सरकार नहीं बनने देंगे। प्रचण्ड ने डा. भट्टराई को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तो बनाया, लेकिन उन्हें विश्वास नहीं था कि भट्टराई प्रधानमंत्री बन पाएंगे। डा. भट्टराई के सामने एक ही रास्ता था- मधेशी मोर्चे के घटक दलों का समर्थन प्राप्त करना। आखिरकार यह अनहोनी होनी में बदल गई। माओवादियों और मधेशी मोर्चे के बीच 28 अगस्त की सुबह लिखित समझौता होते ही साफ हो गया था कि भट्टराई के रास्ते का कांटा दूर हो गया है और वे अंतत: 340 मत पाकर निर्वाचित भी हुए।
भट्टराई को उदारवादी व भारत के प्रति लचीली नीति वाला नेता माना जाता है। एक समय माओवादी अध्यक्ष प्रचण्ड ने भी भट्टराई को भारतपरस्त कहा था, उनके खिलाफ कार्रवाई की थी।
प्रचण्ड की सरकार में वित्तमंत्री के रूप में भट्टराई ने बहुत नाम कमाया था। व्यापारी, उद्योगपति से लेकर कर्मचारी तक ने उनकी सराहना की थी। माओवादियों की भारत विरोधी नीति होने के बावजूद व्यक्तिगत रूप में भट्टराई उदारवादी नेता ही माने जाते रहे हैं। प्रधानमंत्री पद पर भट्टराई का निर्वाचित होना एक प्रकार से शान्ति और संविधान निर्माण की तरफ अन्तिम मौके जैसा है। उन्होंने भी स्पष्ट किया है कि 45 दिनों के अन्दर अगर शान्ति प्रक्रिया और संविधान लेखन का कार्य निर्धारित कार्यक्रम अनुसार आगे नहीं बढ़ा तो यह सरकार आज तक की सबसे कम आयु वाली सरकार साबित होगी। अर्थात् वे सरकार को बनाए रखने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति का अवलम्बन नहीं करेंगे।
मधेशी मोर्चा और माओवादी पार्टी के अन्दर भी मंत्री चयन को लेकर सामान्य विवाद के चलते इन पक्तियों के लिखे जाने तक मंत्रिमण्डल का विस्तार नहीं हो पाया, अभी प्रधानमंत्री भट्टराई और उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री विजय गच्छदार के रूप में दो सदस्यीय मंत्रिमण्डल ही अस्तित्व में आया है। मधेशी मोर्चा की मांग के अनुसार अब उसे मंत्रालय व मंत्री पद दिए गए हैं। मधेशी मोर्चा जैसे ही आपस में मंत्रियों का नाम तय कर लेगा, मंत्रिमण्डल का विस्तार हो जाएगा।
अपने वायदे के अनुसार, नेपाली कांग्रेस और एमाले का सहयोग एवं समर्थन पाने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री भट्टराई ने नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला तथा एमाले अध्यक्ष झलनाथ खनाल से मुलाकात कर सरकार में सहभागी होने तथा सरकार संचालन के लिए संयुक्त व्यवस्था बनाने का आग्रह किया, जिसे उन दोनों नेताओं ने अस्वीकार कर दिया। नेपाली कांग्रेस और एमाले प्रतिपक्ष में ही बैठना चाहती हैं। लेकिन माओवादी गुरिल्लाओं के समायोजन हेतु विशेष सहमति में एमाले और नेपाली कांग्रेस के भी प्रतिनिधि शामिल होने से सभी के सहयोग से शान्ति प्रक्रिया आगे बढ़ सकती है।
नए प्रधानमंत्री भट्टराई आगे क्या करेंगे और कितने समय रहेंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जिस गाड़ी का चयन किया है, उससे वे चर्चा में जरूर आए हैं। प्राय: नेपाल के मंत्रियों में विलासी गाड़ी लेने की होड़ मची रहती थी। मंत्री पद से हटने के बाद भी कोई सरकारी गाड़ी वापस करना नहीं चाहता। इसके विपरीत भट्टराई ने अपने लिए ऐसी गाड़ी चुनी है जो सामान्यतया सामान ढोने के लिए प्रयुक्त होती आयी है। उन्होंने अपने लिए व्मस्तांग मैक्सव् ब्रााण्ड की गाड़ी चुनी और उसी पर सवार होकर राष्ट्रपति भवन गए, प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। प्रधानमंत्री के क्रान्तिकारी निर्णय के आगे सुरक्षा एजेंसियों की एक न चली।
इसमें संदेह नहीं है कि नेपाल में राजनीतिक स्थायित्व शान्ति प्रक्रिया एवं संविधान लेखन पर टिका है। माओवादी गुरिल्लाओं के समायोजन हेतु विशेष समिति के संयोजक स्वयं प्रधानमंत्री ही हैं। इस समिति में नेपाली कांग्रेस, एमाले, माओवादियों के दो-दो और मधेशी मोर्चा के तीन सदस्य होने की व्यवस्था है।
प्रधानमंत्री भट्टराई के सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर उन्हें माओवादी पार्टी के नेताओं का समर्थन हासिल करना है तो दूसरी ओर जनता की आशा को पूरा करना है। वे बखूबी जानते हैं कि माओवादी अध्यक्ष प्रचण्ड ने उन्हें एक प्रकार से कांटों का ताज पहनवाया है। माओवादी उपाध्यक्ष मोहन बैद्य किरण ने अभी से मधेशी मोर्चा के साथ हुई सहमति का विरोध करना शुरू कर दिया है। कल तक मोहन वैद्य के साथ मिलकर प्रचण्ड पर दबाव बनाने वाले भट्टराई को अब प्रचण्ड-वैद्य दबाव को झेलना पड़ेगा। एक ओर विपक्षियों का असहयोग और दूसरी ओर अपनी पार्टी की अदृश्य अड़चनों को वे झेल पाएंगे या नहीं, इसी पर सफलता-असफलता निर्भर करेगी।
नेपाल-भारत सम्बंध और भट्टराई
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी (एकीकृत) ने आज तक भारत विरोध को ही व्राष्ट्रवादव् का आधार बनाया था। माओवादी अध्यक्ष प्रचण्ड ने तो सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया कि भारत नहीं चाहता कि यहां माओवादियों के नेतृत्व में सरकार बने। माओवादियों ने चीन के मोहपाश में बंधते हुए चीन को नेपाल में खुला रास्ता प्रदान किया। वे चीन को लुम्बिनी में स्थापित करने में आंशिक रूप में सफल भी हो गए थे। परन्तु चीन की फर्जी संस्था व्इपेकव् की पोल खुल जाने के कारण उनकी इस योजना पर पानी फिर गया। लगता तो है कि भट्टराई भारत विरोधी भावना को खुलकर हवा नहीं देंगे। जयन्त प्रसाद नए भारतीय राजदूत के रूप में काठमांडू में कार्यभार संभाल चुके है। कहा जा रहा है कि मधेशवादी पार्टियां भट्टराई का समर्थन नहीं करतीं तो माओवादी खुलकर आरोप लगाते कि भारत ने मधेशवादी पार्टियों को रोका। लेकिन अब भी माओवादी नेता भट्टराई पर भी भारतपरस्त होने का आरोप लगाने की तलाश में रहेंगे ही। इस दोहरी चुनौती का प्रधानमंत्री भट्टराई कैसे सामना करते हैं, सब यही देख रहे हैं। अपने ऊपर भारत समर्थक होने का आरोप लगने के कारण भट्टराई माओवादियों की भारत विरोधी नीति पर अंकुश लगाने का खुलकर प्रयास नहीं करेंगे। एक प्रकार से भट्टराई प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए नेपाल-भारत संबंध व्वेट एण्ड वाचव् का विषय बना रहेगा। भट्टराई से लोगों को बहुत उम्मीदें हैं। वे काम करने वाले नेता माने जाते हैं। लेकिन उनके कामकाज में माओवादी नेता और चीन समर्थक प्रचण्ड अगर ज्यादा दखलंदाजी करेंगे तो नेपाल एक बार फिर से अस्थिरता के संकट में उलझ जाएगा और अगर ऐसा हुआ तो यह संकट बहुत गहरा होगा।
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