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यह राष्ट्रीय नहीं, सोनिया कांग्रेस है

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Sep 27, 2011, 12:00 am IST
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इतिहास दृष्टी

दिंनाक: 27 Sep 2011 15:10:15

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् कैम्ब्रिाज के इतिहासकारों ने जहां भारत की आजादी को व्ट्रांसफर आफ पावरव् तथा व्ए गिफ्ट टू इंडियाव् कहा, वहीं स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस के आंदोलन को व्जानवरों की लड़ाई भी कहा। पिछले पचास-साठ वर्षों में आधा दर्जन से भी अधिक ब्रिाटिश इतिहासकारों-रिचर्ड गार्डन, फ्रांसिस राबिन्सन, सी.ऐ, बैली, डेविड वाशवुड, क्रिस्टोफर, जान बेकर, गार्डन तथा जानसन ने नवीनतम शोध सामग्री के आधार पर अपने ग्रंथों में कांग्रेस के आन्दोलनों को आपसी जोड़-तोड़, स्थानीय स्वार्थ, परस्पर गुटबन्दी आदि का परिणाम बताया। इन सबने कांग्रेस के आंदोलन को परस्पर कटुता, फूट, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, सरकारी पद की लिप्सा तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण का पूर्णत: अभाव बताया है। स्पष्ट है कि ब्रिाटिश इतिहासकारों के उपरोक्त निष्कर्ष एक पक्षीय, अलगाववादी तथा साम्प्रदायिक भावना को भड़काने वाले हैं। परन्तु इनको पूरी तरह नाकारा भी नहीं जा सकता है। इसमें आशिंक रूप से सत्यांश अवश्य है। सम्भवत: इसीलिए देश के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु से पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भंग कर लोक सेवक संघ की स्थापना की घोषणा की थी, परन्तु राजसत्ता के लिए आतुर कांग्रेस के नेताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तीखी आलोचनाओं तथा आक्षेपों की समीक्षा कांग्रेस के जन्म से लेकर इसके 125वें साल में हुए कुछ अधिवेशनों के क्रिया-कलापों के परिप्रेक्ष्य में आंकी जा सकती है।

अंग्रेजों द्वारा स्थापना

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन 1885 में 28 से 30 दिसम्बर तक बाम्बे (अब मुम्बई) में हुआ था। इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनका स्वागत शाही मेहमानों के रूप में सरकार के 24 उच्च अधिकारियों द्वारा किया गया था। इसकी स्थापना तत्कालीन भारत के गर्वनर-जनरल लार्ड डफरिन के आशीर्वाद, पूर्व वायसराय लार्ड रिपन की शुभकामनाओं तथा पूर्व कृषि सचिव ए.ओ. ह्रूम के प्रयत्नों से हुई थी। कांग्रेस की सदस्यता के लिए दो शर्तें अनिवार्य थीं। पहली, अंग्रेज सरकार के प्रति सन्देह से ऊपर राजभक्ति तथा दूसरी अंग्रेजी में निपुणता। पहले अधिवेशन की अध्यक्षता ए.ओ. ह्रूम के एक घनिष्ठ मित्र तथा कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक प्रसिद्ध सरकारी वकील व्योमेश चन्द्र बनर्जी ने की थी, जिनकी पत्नी ईसाई थी तथा 1902 में वे भारत से सदा के लिए इंग्लैण्ड चले गए थे। इस अंग्रेजी पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय जमावड़े में एक भी किसान नहीं था। इसके छोटे-मोटे सात प्रस्तावों में मुख्यत: पढ़े-लिखे भारतीयों को सरकारी नौकरियों में सुविधा तथा उच्च स्थानों पर भी नियुक्तियों की मांग थी। अधिवेशन 27 बार व्महारानी विक्टोरिया की जयव् के साथ समाप्त हुआ था। इस अधिवेशन में कुल 3000 रुपए की राशि खर्च हुई थी। बीच के दो अधिवेशन भी इसी प्रकार के हुए, पर चौथा अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ जिसकी अध्यक्षता एक प्रसिद्ध ब्रिाटिश व्यवसायी श्री जार्ज मूल ने की थी। परन्तु अब कांग्रेस व ब्रिाटिश सरकार के सम्बंधों में कटुता आ गई थी। लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के स्वायत्त शासन की मांग को व्सूर्य के रथ पर चढ़नाव् तथा व्अज्ञात में लम्बी छलांगव् बताया तथा कांग्रेस को भारतीय समाज के एक बहुत छोटे से अंश का प्रतिनिधि कहा। इसी के साथ कांग्रेस सरकारी अलगाव से इतनी भयभीत हो गई कि जनसम्पर्क तथा जनसभाएं करनी बंद कर दी थीं। कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं को सरकारी नौकरी न मिलने तथा पदोन्नति न होने का भय सताने लगा था। सावधानी अपनाते हुए इलाहाबाद अधिवेशन में एक प्रस्ताव भी पारित किया गया कि कांग्रेस अपनी बैठकों में नियमित प्रस्तावों के लिए जिम्मेदार है और किसी भी दूसरी चीज के लिए नहीं। सदैव की भांति औपचारिक रूप से कुछ अन्य प्रस्ताव भी पास किए गए। कांग्रेस अधिवेशनों में भारत की गरीबी पर प्रस्ताव पारित करने की परम्परा नियमित बनी रही। अब सरकारी अधिकारियों ने भी कांग्रेस को व्बाबुओं की संसदव्, व्पागलों की सभाव् व्खुर्दबीन से देखे जाने वाले अल्पसंख्यकव् तथा व्बचकानाव् कहना आरम्भ कर दिया था।

पहला विभाजन

1907 में कांग्रेस का सूरत अधिवेशन इस कड़ी में महत्वपूर्ण था। उदारवादियों की निरन्तर घटती लोकप्रियता, अंग्रेज भक्ति, अंग्रेजी पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग तक क्षेत्र तथा केवल प्रस्ताव पारित करने की क्षमता ने उन्हें पंगु बना दिया था। न वे राष्ट्रवादियों का कांग्रेस में प्रवेश चाहते थे और न ही ब्रिाटिश सरकार यह चाहती थी। उस सम्मेलन के अध्यक्ष श्री रास बिहारी घोष थे। राष्ट्रवादी 1906 के नागपुर अधिवेशन में पारित प्रस्तावों-स्वदेशी , विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य पर अमल चाहते थे। इसलिए भारी टकराव तथा बल प्रयोग के बीच यह अधिवेशन प्रारम्भ हुआ था। लोकमान्य तिलक बोलना चाहते थे परन्तु उन्हें बोलने नहीं दिया गया। उनसे खींचा-तानी की जाने लगी। विरोध स्वरूप मंच पर एक जूता भी फेंका गया। बहुत अफरा-तफरी में यह अधिवेशन समाप्त हुआ। एनी बेसेन्ट ने इसे बड़ी दु:खद घटना कहा। राष्ट्रवादियों के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वार अगले 9 वर्षों (1916 तक) के लिए बंद कर दिए गए। यह भारतीय इतिहास में कांग्रेस की पहली फूट थी।

इसके कई वर्षों बाद 1919 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अमृतसर अधिवेशन बहुत यशस्वी रहा। पं. नेहरू ने इसे व्गांधी जी की प्रथम कांग्रेसव् माना है, जिसमें उनका चमत्कारिक प्रवेश हुआ। पं. मोतीलाल नेहरू इसके अध्यक्ष थे। यह अधिवेशन तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अति विशिष्ट हो गया था। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों (कांग्रेसियों) ने ब्रिाटिश सरकार को भरपूर सहयोग दिया था। परन्तु इसके बदले अंग्रेजों ने दिए रौलेट एक्ट, खिलाफत का प्रश्न तथा जलियांवाला बाग का भीषण नरसंहार। इन घटनाओं ने महात्मा गांधी को ब्रिाटिश सरकार के सहयोगी के स्थान पर असहयोगी बना दिया था। परन्तु यह अधिवेशन भी परस्पर टकराव तथा विरोध से अछूता न रहा। विषय समिति दो धड़ों में बंटी हुई थी। एक के नेता थे मोतीलाल नेहरू व एनी बेसेन्ट। दूसरे दल में थे लोकोमान्य तिलक, बिपिन चन्द्र पाल, सी.आर.दास, सत्यमूर्ति तथा के.एम मुंशी। सी.आर. दास ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें माण्टेग्यू-चैम्सफोर्ड सुधारों को व्अपर्याप्त, असंतोषजनक तथा निराशाजनकव् बतलाया। परन्तु गांधी जी व्निराशाजनकव् शब्द को हटाने पर अड़ गये। एक दूसरा प्रस्ताव जलियांवाला बाग नरसंहार एवं अमृतसर के दंगों में भीड़ पर पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध खेद प्रकट करने का था। गांधी जी ने इसके दूसरे भाग को भी हटाने को कहा। कुछ सुधारों के लिए माण्टेग्यू को बधाई भी दी गई।

डोमिनियन स्टेट्स या पूर्ण स्वतंत्रता?

1929 का लाहौर अधिवेशन भारत के भावी संविधान तथा स्वतंत्रता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। इस अधिवेशन का अध्यक्ष पं. मोतीलाल नेहरू के अत्यधिक आग्रह पर पार्टी के नियमों को तोड़कर जवाहर लाल नेहरू को बनाया गया। अधिवेशन से पूर्व कांग्रेस ने व्नेहरू रपटव् द्वारा व्डोमिनियन स्टेट्सव् की मांग की थी। लाहौर में इस व्डोमिनिमन स्टेट्सव् शब्द को लेकर तीव्र विरोध हुआ। गांधी जी ने कांग्रेस संविधान में वर्णित स्वराज्य का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता बताया। इस पर सुभाष चन्द्र बोस ने स्वराज्य का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता के साथ ही उसका अर्थ ब्रिाटिश साƒााज्य से व्पूर्ण संबंध विच्छेदव् शब्द जोड़ने को भी कहा। पर इसके लिए गांधी जी तैयार न हुए। सुभाष का प्रस्ताव माना नहीं गया। 31 दिसम्बर, 1929 को पं. जवाहर लाल नेहरू ने घोषणा करते हुए कहा कि हमारे लिए स्वाधीनता का अर्थ अधिराज्य (डोमिनियन स्टेट्स) और ब्रिाटिश साƒााज्य के साथ ऐच्छिक साझेदारी है, जो परस्पर विपत्ति के समय किसी भी राष्ट्र के लिए अच्छी हो सकती है।व् (यंग इंडिया, 9 जनवरी, 1930) सच बात तो यह है कि ब्रिाटिश सरकार ने 1947 तक कभी भी भारतीयों को व्डोमिनयन स्टेट्सव् से अधिक देना स्वीकार नहीं किया। अत: पं. नेहरू भी व्पूर्ण स्वराज्यव् के भ्रमजाल में रहे तथा भारतीय जनता को भी रखा।

1938 व 1939 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। वे पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। पर उनके दूसरी बार चुनाव लड़ने पर गांधी जी उनके विरोधी हो गए तथा पट्टाभि सीतारमैया को चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया। सीतारमैया के चुनाव में हारने पर गांधी जी ने इसे अपनी व्यक्तिगत पराजय कहा (कलेक्टिव वक्र्स, भाग 68, पृ. 359) गांधी के अत्यधिक विरोध के कारण नेताजी सुभाष बोस ने त्यागपत्र दे दिया। उन दोनों की यह कटुता कांग्रेस तथा देश-दोनों के लिए हानिकारक रही। अर्थात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस स्वतंत्रता के पूर्व के संघर्ष में परस्पर द्वेष, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा तथा आन्तरिक टकराव (1907, 1922, 1930) में व्यस्त रही, जिसमें राष्ट्रीयता की सही कल्पना या पूर्ण स्वतंत्रता के विचार का अभाव रहा। वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात राजसत्ता का मद, राष्ट्रहित को त्याग कर वंशवाद को पनपाने में लग गई।

दूसरा विभाजन

स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस का 60वां अधिवेशन चेन्नै से 23 किलोमीटर दूर अवधी नामक स्थान पर हुआ। इस समय इसके अध्यक्ष तथा देश के प्रधानमंत्री दोनों ही पद पं. नेहरू की इच्छा के अनुसार उनके पास थे। इससे पूर्व वह चार बार 1926, 1935, 1932 तथा 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे, परन्तु तब जनमत से नहीं, गांधी जी की इच्छा से। इस अधिवेशन के लिए विशेष सुविधाएं जुटाई गर्इं। 1200 प्रतिनिधियों के लिए चैन्ने से अवधी तक विशेष रेलगाड़ी की पटरी बिछाई गर्इं। यानी कांग्रेस से प्रारम्भ के अधिवेशनों का पूर्व वैभव लौटने लगा।

इस बीच पं. नेहरू ने अपनी पुत्री इन्दिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष तो 1959 में ही बना दिया था। और प्रधानमंत्री भी वे जनवरी, 1966 में बन गई थीं। उनके काल का परिवर्तनकारी अधिवेशन 1969 में फरीदाबाद में हुआ था। इस अधिवेशन से पूर्व ही आपस की फूट खुलकर जनता के सामने आने लगी थी। अधिवेशन से पूर्व के.डी. मालवीय ने कांग्रेस पार्टी के टुकड़े करने का सुझाव दिया। श्रीमती अल्वा ने कांग्रेस के नेतृत्व में चरित्र की कमी बताई। चन्द्रशेखर ने कांग्रेस की असफल नीतियों का ढिंढोरा पीटा। जगदीश कुदेशिया ने राजघाट पर सिर मुंडाकर अपने ढंग से कांग्रेस का क्रिया कर्म कर दिया। तब कांग्रेस अध्यक्ष श्री निजलिंगप्पा ने कहा कि यह कहना गलत है कि व्कांग्रेस एक डूबता हुआ जहाजव् है। इसी अधिवेशन में भगवत झा आजाद ने कांग्रेस के समाजवाद की घोषणाओं को कागजी बताया था। विभूति नारायण मिश्र ने कांग्रेस पर सेठ-सेठानियों व राजरानियों का कब्जा बतलाया। श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा ने निष्कर्ष रूप में कहा, व्इस घर को आग लग गई, घर के चिराग से।व् और फिर वही हुआ जो 1907 में हुआ था- कांग्रेस का एक और विभाजन-कांग्रेस (संगठन) तथा कांग्रेस (इं#िदरा) के रूप में।

वंशवादी कांग्रेस

1985 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण हो गए थे और कांग्रेस (इंदिरा) की स्थापना के भी सोलह वर्ष हो गए थे। इस अवसर पर मुम्बई के अधिवेशन के अध्यक्ष थे भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह शताब्दी समारोह कांग्रेस (इंदिरा) के हाथ से पंजाब, असम तथा मुम्बई निगम निकल जाने के वातावरण में हुआ था। इस अधिवेशन में अनुशासन तथा सौम्यता नहीं थी। अधिवेशन में धक्का-मुक्की तथा चोरी की वारदातें भी हुर्इं। मंच पर राजीव गांधी के निकट दिखने की चापलूसों में होड़ सी मची हुई थी।

कांग्रेस का एक और महत्वपूर्ण अधिवेशन दिल्ली के विशाल बुराड़ी मैदान पर गत वर्ष दिसम्बर, 2010 में हुआ। इसकी अध्यक्षता सोनिया गांधी ने की। इस अधिवेशन में भी बिहार विधानसभा चुनावों में मिली करारी पराजय के नायक राहुल गांधी को बचाने के लिए कुछ कम महत्व वाले लोगों के विरुद्ध प्रदर्शन हुए, अधिवेशन में रा.स्व.संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन को कोसा गया और वंशवाद के रास्ते पर चलकर राहुल का महिमामंडन किया गया। यह अधिवेशन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 125 वें वर्ष का था, अत: व्यापक तैयारी की गई। मंच पर गांधी जी, नेहरू, इंदिरा, राजीव आदि के चित्र थे, पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्रूम का चित्र नदारद था। उनका चित्र होना भी नहीं चाहिए था, क्योंकि वर्तमान कांग्रेस वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है ही नहीं, जिसका 125वां स्थापना वर्ष मनाने का वह नाटक कर रही थी। 1969 में स्थापित हुई कांग्रेस (इंदिरा) खुद को गांधी की कांग्रेस कहती है, जो कि वह है नहीं। अब जो कांग्रेस है उसे सोनिया कांग्रेस या कांग्रेस (सोनिया) कह सकते हैं, इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहना या बताना पूरी तरह गलत है?

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