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जनविरोधी चेहरा

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Sep 27, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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संप्रग सरकार का जनविरोधी चेहरा

दिंनाक: 27 Sep 2011 14:04:11

 

फिर सामने आया संप्रग सरकार का

कमलेश सिंह

सच तो यह है कि अण्णा के आंदोलन के साथ मनमोहन सिंह सरकार ने अप्रैल में छल और बल का जो बेशर्म खेल शुरू किया था, वही अगस्त में भी जारी रहा। तब अण्णा सहित उनके पांच प्रतिनिधियों को लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली साझा समिति में शामिल कर और फिर अपना मनमाना मसौदा ही संसद में पेश करने का छल किया गया था तो अब छल और बल, दोनों का सहारा लिया गया। 14 अगस्त को झूठे आरोपों के सहारे छल करने की कोशिश की गयी तो 16 अगस्त को अनशन से पहले ही अण्णा को घर से ही गिरफ्तार कर सरकार ने अपना बल दिखाने की कोशिश की। जिस मयूर विहार क्षेत्र से उन्हें गिरफ्तार किया गया, वहां धारा 144 भी लागू नहीं थी। फिर भी, गिलानी और अरुंधति के राष्ट्रविरोधी भाषणों पर मूकदर्शक बनी रहने वाली मनमोहन सरकार ने अण्णा को शांति भंग की आशंका में गिरफ्तार करा लिया। यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि अण्णा को गिरफ्तार करने का फैसला राहुल गांधी के अमरीका से भारत लौटने के अगले दिन ही लिया गया। अब यही राहुल गांधी संसद में अण्णा के लोकपाल पर सवाल उठा रहे हैं, और कह रहे हैं कि लोकपाल भी भ्रष्ट हो सकता है। आश्चर्य देखिए कि टीम-अण्णा से वार्ता में 26 अगस्त को जन लोकपाल के प्रावधानों पर संसद में चर्चा कराने के वादे को सरकार फिर भूल गई। यह एक और छलावा है। इससे मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस की जबरा मारे और रोने न दे की मानसिकता बेनकाब हो गयी। अपनी ईमानदारी का ढोल बजाने वाले प्रधानमंत्री की सरकार की इस कारगुजारी पर संभवत: सबसे तीखा कटाक्ष किसी ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर किया: व्हसन अली को बेल, अण्णा को जेल।व् यानी बाबा रामदेव के आंदोलन पर हमले के बाद एक बार फिर संप्रग सरकार का जनविरोधी चेहरा सामने आ गया है, क्योंकि जनता भ्रष्टाचार के विरोध में उठ खड़ी हुई है और सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई से मुंह चुरा रही है। वास्तव में सरकार तो इस मौके की तलाश में थी कि अण्णा की स्वास्थ्य चिंता के नाम पर अनशन में विघ्न डाला जाए।

ध्यान रहे कि हसन अली भारत का सबसे बड़ा टैक्स चोर ही नहीं है, उसे विदेशों में जमा लाखों करोड़ रुपये के कालेधन का जरिया भी माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती पर हो रही उसकी जांच से ही पता चल रहा है कि कांग्रेस के एक असरदार अल्पसंख्यक नेता के करीबी इस हसन अली ने महाराष्ट्र के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों और एक उप मुख्यमंत्री का पैसा भी विदेशी बैंकों में जमा करवाया है।

पुणे के इस घोड़ा व्यापारी से पूछताछ की जहमत भी सरकारी एजेंसियों ने तब उठायी, जब देश की सर्वोच्च अदालत ने फटकार लगायी। अब इस सच्चाई से तो कांग्रेस मुंह नहीं चुरा सकती कि देश और महाराष्ट्र, दोनों ही जगह उसकी सरकार है।

दूसरी ओर पूर्व सैनिक अविवाहित अण्णा हजारे का पूरा जीवन भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष तथा देश व समाज सेवा की प्रेरक दास्तान है। हसन पर मेहरबान सत्ता ने अण्णा पर हमेशा कहर ही बरपाया है। महाराष्ट्र में भ्रष्ट नेताओं और मंत्रियों के विरुद्ध अण्णा के अनशन को बदनाम करने के लिए अपनाये जाते रहे हथकंडों से दिल्ली में भी मनमोहन सरकार और कांग्रेस ने शुरुआत की। 16 अगस्त से अण्णा अनशन शुरू करते, उससे एक दिन पहले ही कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने उƒा और शिष्टाचार की तमाम मर्यादाएं लांघकर निहायत ही बददिमाग लहजे में सवाल दागा कि किशन बाबूराव हजारे उर्फ अण्णा तुम किस मुंह से भ्रष्टाचार का विरोध करोगे, जबकि खुद ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में लिप्त हो।

अण्णा के तिहाड़ से रामलीला मैदान पहुंचने के बाद भी सरकार का छल बल का यह खेल जारी रहा। पहले तो बारिश और गंदगी से बदहाल रामलीला मैदान को अनशन योग्य बनाने में जानबूझ कर सुस्ती बरती गयी तो अनशन को एक सप्ताह पूरा हो जाने तक भी सरकार सोती रही। अपना हाथ आम आदमी के साथ होने का दावा करने वाली सरकार की तंद्रा तब टूटी, जब दिल्ली के रामलीला मैदान सहित देश भर में अण्णा और उनके जन लोकपाल आंदोलन के समर्थन में ऐसा जन सैलाब उमड़ने लगा, जिसका 10 प्रतिशत भी राजनेता आने-जाने, खाने-पीने सहित तमाम व्यवस्थाएं करने के बाद भी नहीं जुटा पाते।

मनमोहन सिंह सरकार की मंशा गिरते स्वास्थ्य के बावजूद अण्णा का अनशन तुड़वाने में नहीं, बल्कि उसकी कोशिश करते हुए दिखने भर की थी, यह इसी से समझा जा सकता है कि मांग कानून बनाने सरीखी संसदीय प्रक्रिया से जुड़ी व गंभीर होने के बावजूद महाराष्ट्र के अतिरिक्त मुख्य सचिव उमेश चंद्र सारंगी और आध्यात्मिक गुरु भैयू जी महाराज के जरिये अनौपचारिक संवाद साधकर उसे परदे के पीछे संवाद के रूप में प्रचारित भी किया गया। इसी क्रम में केन्द्रीय मंत्री विलासराव देशमुख का पत्ता भी सरकार ने खेला, ताकि समझौते और समाधान के प्रयासों में ईमानदारी का छोंक लगाया जा सके और जनता को भरमाया जा सके कि देखिए सरकार तो कितनी गंभीर है, लेकिन अण्णा अपनी जिद पर अड़े हैं, उन्हें भी तो नरम रुख दिखाना चाहिए।

अराजनीतिक अण्णा और उनके सहयोगियों को सरकार की यह चाल समझने में थोड़ा वक्त लगा। अण्णा द्वारा परदे के पीछे संवाद से दो टूक इनकार के बावजूद सरकार ने जन लोकपाल विधेयक पर गतिरोध तोड़ने के लिए ईमानदार व गंभीर पहल करने की बजाय उन सलमान खुर्शीद को आगे कर दिया, जो इसके लिए जिम्मेदार मंडली के सदस्य हैं। और भी हैरत की बात यह है कि संवाद भी उन कांग्रेस सांसद संदीप दीक्षित की मध्यस्थता से शुरू कराया गया, जिनकी मां दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को शुंगलु समिति और सीएजी राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहरा चुके हैं। सलमान के सहारे मनमोहन ने उन प्रणव मुखर्जी को भी आगे कर दिया, जो लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली साझा समिति के अध्यक्ष थे और उस नाते उस प्रक्रिया को पलीता लगाने के लिए जिम्मेदार भी। इन्हीं मुखर्जी ने तभी बिना पूछे आपातकाल सरीखी परिस्थितियों से इनकार कर उस काले दौर की याद से लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से डराने की कोशिश की थी।

ऐसे वार्ताकारों के जरिये वार्ता का जो परिणाम निकल सकता था, वही निकला भी। बुधवार की रात तीन मुद्दों के अलावा जन लोकपाल विधेयक के ज्यादातर प्रावधानों पर मान गये ये वार्ताकार वृहस्पतिवार की रात पूरी तरह मुकर गये। इस बीच दो बड़ी घटनाएं सिर्फ ये हुर्इं कि सरकार ने आपरेशन के बाद अमरीका में स्वास्थ्य लाभ कर रहीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से संपर्क साधा था, तो प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलायी थी। सोनिया ने सरकार को जो संकेत दिया, उसका तो बाद के घटनाक्रम से अनुमान ही लगाया जा सकता है, पर सर्वदलीय बैठक में शामिल नेताओं ने देश में लगी भ्रष्टाचाररूपी दीमक पर चिंता जताने के बजाय जनलोकपाल की मांग को लेकर सांसदों के घरों के बाहर देश भर में लोगों के सड़कों पर उतरने को संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरे के रूप में देखा।

बैठक में संसद की सर्वोच्चता का स्वर अलापने वाले विपक्ष से मनमोहक सरकार को बहुत बल मिला और उसके तेवर अण्णा की मुहिम के विरुद्ध सख्त हो गए। परिणामत: बुधवार की रात टीम अण्णा की बात ध्यान से सुनने वाले प्रणव मुखर्जी में वृहस्पतिवार की रात उसे डांटने का साहस दरअसल सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दलों के रुख से ही आया। बुधवार की रात जनलोकपाल के जो प्रावधान व्यावहारिक लग रहे थे, वृहस्पतिवार की रात वे ही न केवल अस्वीकार्य हो गये, बल्कि किरण बेदी के मुताबिक तो सत्ता के दंभ में मुखर्जी ने यहां तक कह दिया कि अण्णा का अनशन सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इसके साथ ही रात में रामलीला मैदान पर पुलिस व सुरक्षा बल बढ़ाकर रामदेव प्रकरण की पुनरावृत्ति का संकेत भी दिया गया, पर दिन रात वहां जमे जन समूह के तेवरों के आगे हिम्मत नहीं पड़ी। अंतत: अपना दामन बचाने के लिए सरकार ने संसद में जनलोकपाल बिल पर चर्चा का आश्वासन देकर इस संकट में से निकलने का रास्ता ढूंढा है, लेकिन निर्धारित दिन यह चर्चा अंतत: नहीं कराई गई।

सरकार और कांग्रेस ने अण्णा की रिहाई का श्रेय राहुल को देने की कोशिश की, लेकिन जब मीडिया ने सवाल उठाया कि अगर रिहाई उनके कहने पर हुई है तो फिर गिरफ्तारी भी उन्हीं के कहने पर हुई होगी तो बोलती बंद हो गयी। जब लगा कि अण्णा धमकियों से नहीं डरेंगे तो वृहस्पतिवार को फिर उनके साथ छल की साजिश रची गयी। अण्णा के आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरा बताने वाले प्रधानमंत्री ने अनशन के दसवें दिन उनके गिरते स्वास्थ्य पर अचानक चिंतित होते हुए अनशन समाप्ति की अपील लोकसभा में कर डाली। स्वाभाविक ही पूरे सदन से उस अपील से अपने को संबद्ध कर लिया, पर अपील से तो अण्णा का अनशन नहीं टूटना था। इसलिए प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एवं मौजूदा केन्द्रीय मंत्री विलासराव देशमुख को अपना दूत बना कर अण्णा के पास भेजा। अण्णा ने तीन शर्तें रखीं और कहा कि अगर संसद जन लोकपाल विधेयक पर चर्चा शुरू कर देती है तो वह अनशन तोड़ देंगे। फिर देर रात सरकार ने सूत्रों के हवाले से टीवी चैनलों पर खबर चलवा दी कि शुक्रवार को संसद में चर्चा होगी, लेकिन अण्णा को कोई लिखित आश्वासन नहीं दिया।

शुक्रवार को सरकार की नीयत का खोट खुल कर सामने भी आ गया, जब संसद में जन लोकपाल पर चर्चा नहीं हुई, सिर्फ उसके लिए अस्पष्ट नोटिस दिये गये। इसके बाद भी खुशफहमी की जो थोड़ी-बहुत गुंजाइश बची थी, उसे लोकसभा में राहुल गांधी के भाषण ने तोड़ दिया, जिन्होंने प्रवचन के अंदाज में साफ कहा कि सिर्फ लोकपाल से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा और फिर सरकार व कांग्रेस के पुराने तेवरों में अण्णा के आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरे के रूप में पेश करते हुए डराने की भी कोशिश की कि आज किसी ने लोकपाल के लिए अनशन किया है, कल कोई किसी और मांग के लिए ऐसा ही करने लगेगा। ऐसी भाषा से स्पष्ट है कि जब सरकार छल और बल का खेल रही है, तो समाधान कहां से निकलेगा?

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