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प्रकृति, पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, जीवन मूल्य, पर्व-त्योहार और नाते-रिश्तों से हमारा विविध रूप रंग-रस व गंध का सरोकार रहता है। हमारी प्रकृति व संस्कृति परस्पर पूरक हैं, परस्पर निर्भरता ही इनका जीवन सूत्र है। हम उनके साथ रिश्तों के सरोकार से विलग नहीं रह सकते, लेकिन बदलते दौर में यह ऊष्मा लगातार कम हो रही है। इन सरोकारों में आई कमी कहीं न कहीं हमारे मन को कचोटती है। प्रकृति व संस्कृति के संरक्षण के लिए इन सरोकारों को बचाये रखना बहुत जरूरी है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत है यह स्तंभ। -सं.द मृदुला सिन्हाअपनी मित्र प्रमीला के वृद्धाश्रम में चले जाने की खबर सुनकर मैं हतप्रभ रह गई। इसलिए कि वह वृद्धाश्रम की सख्त विरोधी थी। उसका कहना था कि हम वृद्धाश्रम बनाएंगे तो बच्चे हमें बुढ़ापे में वहीं भेज देंगे। इसलिए वृद्धाश्रम बनाना ही नहीं चाहिए। उसका यह भी मत था कि उसके बच्चे उसे धक्का देंगे फिरी भी वृद्धाश्रम में नहीं जाएगी। उससे मिलने वृद्धाश्रम जाने के पूर्व मैंने उसके पुत्र सचिन के बड़े तीन मंजिले फ्लैट में जाना उचित समझा। सचिन ने दु:खी होकर कहा -“आंटी! मां तो अब यहां नहीं रहतीं।”मैंने कहा -“मुझे सब मालूम है। इसलिए तो आई हूं।”उसकी पत्नी नीरजा भी आ गई थी। दोनों ने जो सामूहिक व्यक्तव्य दिए वे चौंकाने वाले थे। मां उनके साथ सुखी थीं। और वे भी मां के साथ। उस दिन छोटी-सी बात पर अनबन हो गई। नीरजा ने बताया -“आंटी! अब मेट्रो शहर की बड़ी कोठी में रहते हुए तो गांव और छोटे शहरों की छोटी-छोटी बातें छोड़नी ही पड़ेंगी न! हम मां को समझाते थे कि सब्जी-फल, कॉरपेट के साथ और भी सामान बेचने वालों से मोलभाव ना करें। अच्छा नहीं लगता। हमारी शिकायत होती है। बस इतनी-सी बात पर मां हमें छोड़ गर्इं।”नीरजा ने कहा -“एक दिन “किचन” की खिड़की (भू तल) से मैं सब्जी खरीद रही थी, मां भी आ गर्इं। उन्होंने सब्जीवाले से खरीदी गई सारी सब्जियों के भाव में दो-तीन रुपए कम करने को कहा। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं वहां से चली गई थी। वे दिनभर इसलिए प्रसन्न रहीं कि उन्होंने मानो 15 रुपए कमाये हों।दूसरी सुबह हम पार्क में बैठे थे। मेरे पति ने कई लोगों के बीच कहा हर जगह का प्रोटोकॉल होता है। अब हम चार करोड़ के मकान में रहकर 5 रुपए के लिए सब्जीवाले से मोल तो नहीं करेंगे!इतनी छोटी-सी बात के लिए उन्होंने घर ही छोड़ दिया। जाने अंजाने हमने कितने प्रकार की मनगढ़ंत सभ्यता ओढ़ ली है। अपने को पैसेवाला दिखाने का तो फैशन चल गया है। घर में पैसे हों न हों। पैसेवाला दिखना अवश्य चाहिए। भले ही सिर पर कर्जे का बोझ हो।मोल-तोल का बड़ा मनोविज्ञान होता है। मोल-तोल में दो व्यक्तियों की सहनशक्ति और बुद्धि ही नहीं देखी जाती वरन कौन जीता, कौन हारा की परीक्षा भी हो जाती है। परीक्षा का फल भी। मोल-तोल करना ऊपर से लड़ाई या नोक-झोंक करना भी दिखता है। पर वह लड़ाई नहीं, एक-दूसरे को समझाने का प्रयास होता है। समझौता होता है। दोनों आगे बढ़ते हैं। दोनों पीछे हटते हैं। दोनों अपनी जिद पर अड़ते हैं फिर दोनों झुकते हैं। मोल-तोल करने में व्यक्ति बहुत सीखता है। दुकानदार बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक होता है। वह ग्राहक की चाल-ढाल और लिबास से पहचान जाता है कि कौन व्यक्ति मोल-तोल करने वाला है, कौन नहीं। और किसकी गांठ में कितने पैसे हैं। वह किसी सामान का तद्नुकूल दाम भी बताता है। बोले हुए रुपयों में से एक-दो रुपए कम करवाने पर ग्राहक का मन प्रसन्न हो जाता है। जीत की अनुभूति होती है। कभी-कभी दुकानदार से ग्राहक की औकात पहचानने में भूल भी होती है। एक बार एक ग्रामीण व्यक्ति अपने मैले-कुचैले वेश में शहर की बड़ी दुकान में गए। कपड़े का मोल-भाव करने लगे। दो सौ रुपए की साड़ी को एक सौ रुपए में मांगने लगे। थोड़ा दुकानदार हटा। पर बात नहीं बनी। दुकानदार चिढ़कर बोला -“जा! जा! गांठ में पैसे नहीं तो बाजार करने क्यों आ गए।” ग्राहक को बात लग गई। उन्होंने धोती की पेंच से रुपए निकालना प्रारंभ किया। नोटों की गड्डियां थीं। दुकान पर उपस्थित सब लोग चौंक गए। ग्राहक बोले -“लाओ! अपनी दुकान के सारे कपड़े मेरी बैलगाड़ियों पर लदवाओ। दुकान के साथ तुम्हें भी खरीद सकता हूं। पर तुम्हारे द्वारा निर्धारित कपड़ों का मुंहबोला दाम तो दूंगा नहीं। तुम दूसरों को लूटते हो, मैं अपने को नहीं लुटने दूंगा।”ऐसे बहुत प्रसंग दिखते हैं, मेले-ठेले और बाजारों में। आनंद आता है बाजार करने में। अक्सर अधिक मोल करने वालों को दुकानदार कहता है -“तुम्हारे द्वारा बोले दाम पर कोई दुकानदार यह सामान दे दे तो मैं मुफ्त में दे दूंगा। जा खरीदकर दिखा।” दरअसल, ना वह दुकानदार मुफ्त देने वाला होता है न ग्राहक बिन खरीदे जाने वाला।दोनों के बीच इस तरह का रगड़ा चलता रहता है। कभी-कभी ग्राहक एक दाम बोलकर आगे बढ़ता है। उसे मालूम है कि दुकानदार फिर उसे बुलाएगा। कभी-कभी दुकानदार नहीं पुकारता “अच्छा! लाओ पैसे निकालो। ले जाओ।”ग्राहक को पछतावा भी होता है। पर वह दुकानदार द्वारा पुकारे बिना स्वयं कैसे लौटे। उसकी मान-हानि का सवाल होता है। ग्राहक और दुकानदार का संबंध स्थाई होता है। दोनों एक-दूसरे की मनोवृत्ति समझते हैं। कई बार तो दु:ख-सुख की बातें भी कर लेते हैं। सरकार द्वारा महंगाई बढ़ाने की चर्चा तो होती ही है।दोनों केवल दुकान और ग्राहक नहीं होते। समाज के महत्त्वपूर्ण सदस्य, परस्पर पूरक। दुकानदार को ग्राहक चाहिए, ग्राहक को दुकानदार। इसलिए मोल-तोल के समय भी एक-दूसरे का महत्त्व समझते हैं। सही बात तो यह है कि दुकानदार भी कभी ग्राहक बनता है, तो मोल-तोल करता है। ग्राहक भी दुकानदार बन जाता है। बाजार में कपड़ा, जेवर और भी सामान खरीदने वाले किसान भी तो अपना अन्न बेचते हैं। मोल-भाव करने वाले ग्राहकों और दुकानदारों की दुनिया में मात्र बाजार और खरीदार नहीं होते। उनका परस्पर पूरकता का सिद्धांत और व्यवहार होता है।कुछ लोगों को मोल-भाव की नोंक-झोंक में ही आनंद आता है। मोल में बीच का भाव तो निकल ही आता है। पर दोनों को जीत का आनंद देकर। बड़े शहरों में बने मॉल में मोल-भाव का अवसर नहीं है। हर सामान पर “टैग” लगा है। उसी दाम में सामान लेना है तो लीजिए।परंतु मेरी मित्र प्रमीला का क्या दोष था? उसे अपना घर छोड़कर वृद्धाश्रम जाना पड़ा। बड़ी कोठियों में रहने वाले हमलोग कितने सरकारी और कंपनियों के ऋण तले दबे हैं। कोठियां और फ्लैट भी तो ऋण से ही बने हैं। खरीदारी करते समय थोड़ा मोल-भाव कर लिया तो इज्जत कैसे चली गई? इज्जत के मानदण्ड कौन बनाता है? सब्जी बेचनेवाले से भी हमारा अधिक संबंध नहीं रहा, दो पल का संबंध नहीं बना। मोल-भाव से ही तो दो पल उसके पास ठहरते हैं। द15
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