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एक बार माता सीता अयोध्या में राजमहल के द्वार के निकट बैठी हुई थीं। अचानक उनकी दृष्टि एक स्त्री पर पड़ी जो मलिन व जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहने तथा दीन-हीन अवस्था में सड़क पर जा रही थी। उसने अपनी गोद में एक छोटे से बालक को लिया हुआ था। वे उसे देखते ही समझ गईं कि यह अत्यन्त अभाव की स्थिति में है। शायद कई दिनों से भोजन नहीं मिल पाया है तथा हो सकता है कि भिक्षा मांगकर भूख मिटाने के लिए घर से निकली है।यह दृश्य देखकर माता सीता का करुणामय ह्मदय द्रवित हो उठा। उन्होंने तुरन्त सेविका को भेजकर उसे अपने पास बुलवाया। आदर-सत्कारपूर्वक उसे आसन पर बैठाया। सीताजी ने पूछा- “भद्रे तुम कौन हो? मलिन वस्त्र पहिने हुए बाजार में क्यों घूम रही हो?”उस महिला ने कहा, “देवि, मैं एक अभागिनी ब्रााहृण पत्नी हूं। मेरे पति काफी दिन पूर्व तीर्थ यात्रा के लिए गए थे किन्तु घर वापस नहीं लौटे। मैंने निराश होकर अपने मायके पिता के घर रहना शुरू किया। कुछ दिनों बाद पिता का भी देहान्त हो गया। अब मैं बिल्कुल अनाथ का जीवन बिता रही हूं। भिक्षा मांग कर अपना तथा इस बालक का पेट भरती हूं।” यह बताकर महिला रोने लगी।सीता जी ने जैसे ही उसकी व्यथा सुनी कि उनकी आंखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। भगवान श्रीराम पास ही बैठे यह सब देख-सुन रहे थे। सीता जी ने तुरन्त सेविका को संकेत कर नए वस्त्र व आभूषण मंगवाए तथा महिला को दे दिए। अपने पास बैठाकर भोजन कराया।सीता जी ने लक्ष्मण के पास सन्देश भेजा कि एक अनाथ-असहाय दरिद्र महिला को भेज रही हूं। उसे स्वर्णमुद्राएं देकर सहायता करना। महिला को लक्ष्मण जी ने अत्यन्त आदर सहित स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं। सीता जी की उदारता देखकर उसकी आंखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। श्री सीताराम का गुणगान करती हुई वह महिला वापस लौट गई।माता सीता ने आदेश जारी कराया कि भगवान श्रीराम के राज्य में आज से कोई भी स्त्री-पुरुष ऐसा न रहना चाहिए जिसे भोजन व वस्त्रों का अभाव हो। राम राज्य में सभी सुख-शांति व सुसम्पत्ति से सम्पन्न रहें। यदि समस्त राष्ट्र या राज्य में ऐसा अभावग्रस्त दिखाई देगा तो इसके लिए वहां का शासक उत्तरदायी होगा। माता सीता के इस आदेश के बाद सप्तद्वीपा वसुमती में कोई भी प्राणी अभावग्रस्त नहीं रहा। द शिवकुमार गोयल16
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