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जातिवादी-परिवारवादी राजनीति को धिक्कार

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May 12, 2010, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 May 2010 00:00:00

विकास की राह बढ़ा बिहारद पटना से संजीव कुमार24 नवम्बर का दिन देश के लिए, विशेषकर बिहारवासियों के लिए सुखद आश्चर्य का दिन रहा। देश की जनता सांस थामे थी और उसके मन में कई सवाल घुमड़ रहे थे- बिहार में लालू का जंगल-राज कहीं फिर तो नहीं लौट आएगा? क्या जनता दल (ए) और भाजपा की गठबंधन सरकार के विकास कार्यों को जनता सिर-आंखों पर बिठाएगी? क्या सोनिया पार्टी का “राहुल तिलिस्म” कुछ कर पाएगा? और दोपहर होते-होते स्थिति साफ हो गई। बिहार ने जातिवादी और परिवारवादी राजनीति को ठोकर मारते हुए विकास को हार पहनाया। चुनाव नतीजों ने तो गजब ही कर दिया। कह सकते हैं कि वहां राजग के पक्ष में आंधी चली। इस आंधी में लालू प्रसाद, सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी औंधे मुंह जा गिरे। चुनाव परिणाम सबके लिए चौंकाने वाले रहे। बड़े#े-बड़े गढ़ ढह गए। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अबु कैसर बुरी तरह हार गए तो वामपंथ का किला नेस्तोनाबूद हो गया। वामपंथी दल सिर्फ अपना खाता भर खोल सके। मिलकर चुनाव लड़ने के बाद भी वामपंथियों को सिर्फ एक सीट पर कामयाबी मिली। राजद की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी दोनों विधानसभा क्षेत्रों#े- राघोपुर और सोनपुर- से चुनाव हार गईं। और तो और, रामविलास पासवान के परिवार का कोई सदस्य विधानसभा में इस बार नहीं दिखेगा। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा “परिवार पार्टी” कही जाती है। पासवान के कई परिजन इस चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे थे। परंतु अलौली से पासवान के छोटे भाई व लोजपा प्रदेश अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस अपनी सीट तक नहीं बचा पाए। मसौढ़ी से उनके दामाद अनिल कुमार औंधे मुंह गिरे। यही हाल उनके बाकी संबंधियों का भी हुआ। लालू प्रसाद के परिजनों का भी हाल खराब रहा। साधु यादव गोपालगंज से कांग्रेस की टिकट पर तथा सुभाष यादव विक्रम विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय के रूप में अपनी किस्मत आजमा रहे थे। साधु, सुभाष और राबड़ी, तीनों इस चुनाव में परास्त हो गए।सबसे बुरा हाल तो केन्द्र में शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का हुआ। चुनाव की सबसे ज्यादा तैयारी कांग्रेस ने ही की थी। यहां गत दो वर्षों से कांग्रेस अपने संगठन को चुस्त करने में लगी थी। प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कई प्रयोग किए गए। चुनाव प्रचार में मीडिया का सबसे ज्यादा उपयोग इसी पार्टी ने किया। प्रचार पर बेहिसाब पैसा खर्च किया गया। बिहार के सभी टेलीविजन चैनलों पर कांग्रेस का प्रचार लगातार चलता रहता था। इतना प्रचार किसी दूसरे दल ने नहीं किया जबकि यही कांग्रेस प्रदेश की राजग सरकार पर विकास कार्यों पर पैसा खर्च न करने का आरोप लगाती रही थी। प्रधानमंत्री से लेकर कई केन्द्रीय मंत्रियों तक ने राज्य सरकार पर केन्द्र का पैसा खर्च न करने का आरोप लगाया। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी अपनी चुनावी सभाओं में प्रदेश सरकार को कोसती रहीं। हालांकि मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने इन आरोपों का तभी खंडन कर दिया था। उन्होंने कहा था कि केन्द्र पैसा भेजकर बिहार पर कोई अहसान नहीं कर रहा, बल्कि उसका अपेक्षित हिस्सा देने में भी वह आनाकानी कर रहा है। कांग्रेस ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था। उसका लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना नहीं बल्कि सबका खेल बिगाड़ना था। लेकिन कांग्रेस इसमें बुरी तरह विफल हुई।कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने अपनी “युवा” छवि को भुनाने में काफी हवाई यात्राएं कीं। कई जगह उनकी सभाएं हुईं। परंतु इसका कुल नतीजा सिफर रहा। पिछले चुनाव में कांग्रेस नौ सीटों पर जीती थी। इस बार वह सिर्फ चार सीटों पर ही सिमट गई। राहुल गांधी ने कांग्रेस के पक्ष में जहां-जहां वोट मांगा वहां-वहां कांग्रेस के प्रत्याशी पिट गए। कांग्रेस में एक परिपाटी है, जीत का सेहरा वंश के सिर बंधता है, लेकिन हार का ठीकरा छुटभैये कांग्रेसियों के सिर फूटता है। चुनाव परिणाम के तुरंत बाद कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी मुकुल वासनिक ने हार का जिम्मा स्वयं पर लेकर उस परिपाटी को कायम रखा है।सबसे विचित्र स्थिति वामपंथियों की हुई। वोटों के बिखराव को रोकने के लिए भाकपा, माकपा तथा भाकपा (माले, लिबरेशन) ने आपस में 140 सीटों पर गठजोड़ किया था। 50 सीटों पर दोस्ताना संघर्ष हुआ था। वाम दलों ने अपनी पूरी ताकत चुनाव में झोंक दी थी। परंतु चुनाव के पहले ही गठजोड़ तार-तार हो गया। साझा चुनाव प्रचार करने में वाम विफल रहा। चुनाव में भाकपा सिर्फ बछवाड़ा (बेगूसराय) सीट जीत सकी। बिहार में कम्युनिस्टों का सबसे सशक्त पक्ष भाकपा (माले, लिबरेशन) माना जाता है, परंतु इस चुनाव में यह दल अपना खाता भी नहीं खोल सका। पिछले चुनाव में माले को 5 सीटों पर सफलता हासिल हुई थी। तब माकपा संप्रग के घटक दल के तौर पर चुनाव लड़ी थी। पिछली बार इसे एक सीट पर जीत हासिल हुई थी, परंतु इस चुनाव में माले के साथ इसका भी सूपड़ा साफ हो गया।इस बार के चुनाव में कुल 3523 प्रत्याशी मैदान में थे। 5 करोड़ 51 लाख 3 हजार 552 मतदाताओं ने इसमें से 243 उम्मीदवारों का चयन किया। 6 चरणों में संपन्न चुनाव में 52.34 प्रतिशत मतदान हुआ। यह अब तक का सबसे विस्तृत चुनाव था। 1995 में ढाई महीने में चुनाव संपन्न हुए थे। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद तथा तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन में जमकर वाक्युद्ध हुआ था। बिहार में उसके बाद चुनाव में धांधली रोकने के कई प्रयास हुए। सन् 2000 में तीन चरणों में चुनाव संपन्न हुए थे। सन् 2005 में बहुचर्चित के.जे. राव की अगुआई में चुनाव हुआ, लेकिन राव भी इस काम को चार चरणों में ही निपटा सके। परंतु इस बार चुनाव छह चरणों में संपन्न हुआ। चुनाव नतीजे आने के बाद श्री नीतीश कुमार ने अपनी पहली प्रेस-वार्ता में चुनाव आयोग से बिहार के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनाने का अनुरोध किया है।चुनाव में सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि राजग के विरोधी पक्षों ने सभी तरह के गठजोड़ किए पर सबने धूल चाटी। जद (यू) के तमाम बागियों से इन लोगों ने संपर्क साधा था। बिहार के कई दबंग इनके प्रचार में घूम रहे थे। प्रभुनाथ सिंह हों या सूरजभान सिंह, सभी राजद-लोजपा गठबंधन के लिए एड़ी-चोटी एक किए हुए थे। प्रभुनाथ सिंह का असर सारण प्रमंडल में नहीं चल सका। उनके अनुज केदारनाथ सिंह बनियापुर की सीट बरकरार रखने में सिर्फ कामयाब हो सके। लाख प्रयास करने के बाद भी अपने संबंधी एवं निवर्तमान मंत्री गौतम सिंह को हराने में वे कामयाब नहीं हो सके। लोजपा के बाहुबली सूरजभान सिंह मोकामा सीट अपनी पत्नी के लिए सुरक्षित नहीं कर पाए।देखा जाए तो इस चुनाव में कई मिथक भी टूटे। गैर राजग पार्टियों ने एक सुर में कहा था कि “मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देता। ऊंची जाति के लोग राजग से नाराज हैं। नीतीश ने कोई विकास नहीं किया है। कारखानों के बदले सिर्फ मद्यपान की दुकानें खुली हैं।” लेकिन बिहार की जनता ने इन सभी आरोपों को धता बता दी। वास्तव में राजग सरकार द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों को जनता स्वयं देख रही थी और इसीलिए उसने राजग के पक्ष में जमकर मतदान किया। चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि इस बार महिलाओं ने अच्छी भागीदारी की।बिहार राजनीतिक दृष्टि से काफी संवेदनशील प्रांत माना जाता रहा है। लोकतंत्र में बदलाव की आहट सबसे पहले यहीं सुनाई देती है। बिहार का ताजा उदाहरण देश के भविष्य की राजनीति को तय करता मालूम देता है। इस बार के चुनाव में बहुत कुछ अच्छा देखने को मिला। आजादी के बाद यह पहला चुनाव था जिसमें, सौभाग्य से, कोई हिंसक घटना नहीं हुई। लगभग दो दर्जन मतदान केन्द्रों पर पुनर्मतदान हुआ। यह पुनर्मतदान भी मतदान मशीनों में खराबी के कारण हुआ था।अब नई पारी में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जनता द्वारा राजग में पुन: व्यक्त किए गए विश्वास का सम्मान करते हुए बिहार को और तेजी से विकास की राह पर बढ़ाना होगा। द6

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