जाके प्रिय न राम-बैदेही
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जाके प्रिय न राम-बैदेही

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May 12, 2010, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 May 2010 00:00:00

द आनन्द मिश्र “अभय”बात सोलहवीं शताब्दी विक्रमीय के लगभग एक दशक पूर्व की है। मेवाड़ के महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) का स्वर्गवास हो चुका था। उनके पुत्र राजकुमार भोजराज पहले ही दिवंगत हो चुके थे। चित्तौड़ की गद्दी पर राणा विक्रमादित्य आसीन थे। महाराणा सांगा की पुत्र-वधू परम भक्तिमती मीराबाई (राजकुमार भोजराज की विधवा रानी) अपने “गिरधर गोपाल” की अनन्य भक्ति में तल्लीन रहती थीं। राणा विक्रमादित्य को सीसोदिया-वंश की कुल-वधू की भक्ति और साधु-सत्संग असह्र होने लगा, इस कारण क्षुब्ध होकर वह मीरा को प्रताड़ित करने लगा। दु:खी होकर मीरा ने गोस्वामी तुलसीदास जी को अपनी व्यथा-कथा लिख भेजी और मार्गदर्शन चाहा। गोस्वामी जी ने मीरा को जो उत्तर भेजा, वही “विनय-पत्रिका” का 174वां पद है। यह पद जितना भक्तिमार्ग पर चलनेवालों के लिए उपयोगी है, उतना ही लोक-व्यवहाररत संसारीजनों के लिए भी। तात्पर्य यह कि सांसारिक-जीवन में आनेवाली सभी बाधाओं का निवारण भगवान् राम की भक्ति से सम्भव है। शर्त यही है कि व्यक्ति अपनी आस्था से कदापि विचलित न हो।राम भारतीय-जीवन-दर्शन के आदर्श पुरुष हैं। सामाजिक मर्यादाओं का पालन करनेवाला उन जैसा महापुरुष त्रेता से लेकर आज तक पैदा नहीं हुआ। इसी से वह “मर्यादा-पुरुषोत्तम” कहलाते हैं और समस्त सृष्टि के पालनकत्र्ता भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते हैं। तभी तो अनन्य राम-भक्त राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिख गये हैं-“राम तुम मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?विश्व में सभी कहीं रमे हुए नहीं हो क्या !तब मैं निरीश्वर हूं ईश्वर क्षमा करे,तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे।राम केवल जन-जन के ह्मदय में ही नहीं रमे हुए हैं, वरन् समस्त विश्व में रमे हुए हैं। इसी से महर्षि वेदव्यास ने कहा है-“रामं विश्वमयं वन्दे।” यह विश्वमय राम ही इक्ष्वाकुवंशी परमप्रतापी महाराज दशरथ के पुत्र रघुकुलभूषण राम के रूप में अयोध्या में जन्मे थे। फलत: वेदव्यासजी ने आगे कहा- “वन्दे रामं रघूद्वहम्।” (रघुकुल में उद्भूत राम को प्रणाम है)मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम वेद-विहित मार्ग के एकनिष्ठ पथिक थे। वह निषादराज गुह को भरत के समान प्रेम कर भाव-विह्वल हो गले लगाते हैं, भीलनी शबरी के जूठे बेर प्रेम में विभोर होकर खाते हैं, जटायु जैसे गिद्ध पक्षी की महाराज दशरथ समान अन्त्येष्टि करके उसे पितृ-तुल्य पद प्रदान करते हैं, वानर और ऋक्ष सरीखी वनवासी, परन्तु वीर जातियों का ह्मदय जीतकर उनका अनन्य सहयोग प्राप्त करते हैं और उनकी निष्ठा एवम् सहायता के बल पर लंकाधिपति उस ऋषिपुत्र महाबली रावण का वध करने में उन्हें रंच-मात्र संकोच नहीं होता, जो अपने समय में चारों वेदों तथा छहों शास्त्रों का परम ज्ञाता था, किन्तु स्वयम् वेद-विरुद्ध आचरण करने में सर्वाग्रणी था- “राज करै निज तन्त्र”। जिनकी चरण-रज पाकर अहिल्या जैसी शापग्रस्ता प्रस्तरीभूत नारी अपनी पूर्वस्थिति पाकर धन्य हो जाती है, ऐसे राम के प्रति जब कोई अविचारी व्यक्ति विना रामायण पढ़े और उस पर विचार किये अनर्गल प्रलाप करने लगता है, तो उसकी बुद्धि पर तरस आये विना नहीं रहता, क्योंकि राम से बड़ा क्रान्ति-पुरुष और कौन हो सकता है ! तभी तो राम “पतितपावन” कलिमलहारी कहे गये।राम किसी धर्म या समाज विशेष के ही नहीं हैं। वह तो सब के हैं और सब में हैं। साथ ही सब उनमें हैं। यही कारण है कि उनका चरित विश्वव्यापी है। मेक्सिको में भी उनकी अयोध्या है और थाईदेश में भी। प्राचीन मिस्र देश के राजा की उपाधि भी रामनामाभिधान-युक्त (रामेसस) थी और आज के थाई देश के राजा की उपाधि भी “राम” है। राम नवम् वत्र्तमान में थाईदेश के राजा हैं, जिनका नाम है भूमिबल अतुल्यतेज। इस्लाम मतावलम्बी देश इण्डोनेशिया में तो राम-कथा जन-जन की कण्ठहार है। जैसी राम-लीला इण्डोनेशियावासी करते हैं, वैसी तो अपने देश में भी स्यात् दुर्लभ है। रूस में तो एक ही थियेटर में गत लगभग चालीस वर्षों से लगातार राम-कथा का मंचन चल रहा है और थियेटर सदैव पूरा भरा रहता है। भारत में मुगल-सत्ता का संस्थापक प्रथम मुगल बादशाह बाबर था, जिसका एक प्रमुख सेनापति बैरमखां था। यह वही बैरमखां था, जिसने अवयस्क अकबर की उसके दुष्ट चाचाओं से प्राण-रक्षा कर उसे दिल्ली के सिंहासन पर अधिष्ठित किया था और स्वयं संरक्षक बना था। इस बैरमखां के ही सुपुत्र थे स्वनामधन्य अब्दुर्रहीम खानखाना, जो हिन्दी साहित्य में “रहीम” या “रहिमन” के नाम से विख्यात हैं। इस्लाम के अनुयायी माता-पिता की सन्तान रहीम अपनी योग्यता के बल पर अकबर के दरबार के नवरत्नों में गिने जाते थे। वे जब अवध के सूबेदार बने, तो राम का चरित्र उन्हें ऐसा भाया कि राम में ही रमकर रह गये। अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर ने उन्हें सूबेदारी से हटा दिया था। रहीम के ये दुर्दिन थे। “मांगि मधुकरी खाहिं” की स्थिति में पहुंचे रहीम दु:खी होकर शान्ति-प्राप्ति हेतु जब चित्रकूट में रह रहे थे, तो किसी परिचित द्वारा पूछे जाने पर उत्तर देते हैं-“चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।जाहि आपदा परति है सो आवति यह देस।।”आपदा में भी उन्हें राम का ही उदाहरण याद आता है। राम में कितनी गहराई से डूबे थे रहीम कि नहाये-धोये हाथी द्वारा प्रकृत-स्वभाववश सूंड़ से उसे अपने सिर पर धूलि फेंकते देखकर जब किसी ने प्रश्न किया-“धूरि धरत निज सीस परकहु रहीम केहि काज”तो उत्तर में भी उन्हें महर्षि गौतम की शापिता पत्नी अहिल्या का ही प्रसंग स्मरण आता है और राम की चरण-रज की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं-“जेहि रज मुनि पतनी तरी सो ढूंढत गजराज।”दूर क्यों जायें। बेल्जियम का निवासी मूलत: एक अभियन्ता जब ईसाई-मत के प्रचारार्थ पादरी बनकर बिहार पहुंचता है, तो सेण्ट जेवियर कालेज, रांची के हिन्दी और संस्कृत विभाग का अध्यक्ष बन जाता है तथा राम-कथा में ऐसा रमता है यह बिशप कामिल बुल्के कि बाबा कामिल बुल्के बनकर “राम-कथा: उत्पत्ति और विकास” जैसा शोध-प्रबन्ध दे जाता है हिन्दी को।इस्लाम-मतावलम्बी माता-पिता की सन्तान रहीम और ईसाई मत-प्रचारक फॉदर कामिल बुल्के से भी राम-भक्ति की प्रेरणा लेने में जो अक्षम या असमर्थ हैं, उनके लिए ही गोस्वामी जी कह गये हैं-“तजिये ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।”गोस्वामी जी का यह कथन आज भी कितना प्रासंगिक है, यह किसी से छिपा नहीं है।द36

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