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प्रकृति, पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, जीवन मूल्य, पर्व-त्योहार और नाते-रिश्तों से हमारा विविध रूप रंग-रस व गंध का सरोकार रहता है। हमारी प्रकृति व संस्कृति परस्पर पूरक हैं, परस्पर निर्भरता ही इनका जीवन सूत्र है। हम उनके साथ रिश्तों के सरोकार से विलग नहीं रह सकते, लेकिन बदलते दौर में यह ऊष्मा लगातार कम हो रही है। इन सरोकारों में आई कमी कहीं न कहीं हमारे मन को कचोटती है। प्रकृति व संस्कृति के संरक्षण के लिए इन सरोकारों को बचाये रखना बहुत जरूरी है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत है यह स्तंभ। -सं.भैंस, फूल और संगीतद मृदुला सिन्हाहर स्थान की सेहत हर वक्त बदलती रहती है। इधर आठ वर्षों से सवाई माधोपुर (राजस्थान) जाने के कई अवसर आए। अपनी मित्र जसकौर मीणा और उनके पति श्रीलाल मीणा जी की कर्मठता और उद्यमशीलता का परिचय तो पहली भेंट में ही मिल गया था। उनके सहप्रयास से संचालित ग्रामीण बालिका विद्यापीठ और अनुराग होटल देखा था। उनके परिसर में ही कबूतर-तोते के घर, आम के वृक्ष और आंवले के फलों से लदी वृक्ष की डालियां। मन को मोहने और बांधने वाला परिसर था। पर साल भर पूर्व उनके यहां जाने पर उन्होंने अपने परिश्रम और सूझ-बूझ से बढ़ाए प्रकल्प भी दिखाए। जिनमें पचास भैसों की डेरी, आंवले का बगीचा और साग-सब्जियों की खेती भी। पर सबसे सुंदर मुझे जड़वेरा के फूल का “ग्रीन हाउस” लगा। प्लास्टिक की छत और चारों तरफ की दीवारें थीं। बड़े घर के तापमान को नियंत्रित करने के लिए नीचे से पानी, ऊपर से पानी। फुहारे ही फुहारे। क्यारियों में खिले थे हजारों-हजार फूल, जो हर तीसरे दिन हजारों की संख्या में दिल्ली भेजे जाते हैं। दिल्ली के घरों के भव्य बैठक “रूम”, होटलों, सभागारों में शोभायमान हैं ये फूल।एक समय था जब हमारे घरों के आस पास गेंदा चम्पा, जूही, गुलाब, बेला, चमेली से लेकर सूर्यमुखी तक अपनी सुगंध बिखेरते थे। फिर रात की रानी और रजनीगन्धा का काल आया। और भी बहुत से देसी फूल। बड़े-छोटे गेंदा की अपनी महक और अपना रंग-बिरंगा रूप रहा। शायद इसी फूल ने कहा- “मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तू फेंक…………..”। क्योंकि मंदिरों में यही फूल अधिक दिखते हैं। देशभक्तों की पार्थिव देह पर इनकी बहुलता होती है।पर इनके भी दिन लदे गए कई विदेशी सुगंधहीन फूल आ गए। राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन से लेकर हमारे घरों की छोटी-बड़ी क्यारियों, पार्कों और सड़कों के बीच या किनारे छा गए। रंग ही रंग। नयनाभिराम दृश्य। पर नासिका को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं। अच्छी-बुरी सुगंध से हीन हैं।खैर! जड़वेरा को देखने के उपरांत फूल के प्रकारों और वंशजों पर ध्यान चला जाना स्वाभाविक था। मीणा दम्पति हमें अपने प्रयास से लगाए उन फूलों की जानकारी दे रहे थे। श्रीलाल जी ने कहा- “यह राजस्थान का पहला ग्रीन हाउस है।””अच्छा!”फिर उन्होंने बताया कि वह फूल जिसने भारत में फूलों की दुनिया में अपना स्थान बना लिया है, हॉलैंड से आयातित है। अब तो भारतीय हो गया है। मानो हमारे देश की नागरिकता मिल गई। इनकी भी कई पीढ़ियां निकल गर्इं। पर इन्हें अभी मंदिरों में प्रवेश नहीं मिला है। मैंने कहा- “दरअसल आज भी भारत के देवी-देवता “इंडियन” नहीं हुए। वे भारतीय ही हैं। इसलिए उन्हें गेंदा, गुलाब, गुड़हल, बेला के फूल या फिर तुलसी की मालाएं ही भनभावन लगती हैं। शिवजी को तो भांग धतूरे के फूल और बेलपत्र ही। इसके वाबजूद ये विदेशी फूल हमारे यहां खूब फूल-फल रहे हैं। पर हम भगवान को नहीं चढ़ाते।”श्रीलाल जी ने कहा- “आप ठीक कहती हैं। मैं तो इधर भैंस की पसंद-नापसंद से लेकर फूलों की पसंद-नापसंद के बारे में शोध कर रहा हूं, क्योंकि मेरे पास दोनों आमने-सामने हैं।” उनके कथन के सत्यापन के लिए मैं पीछे मुड़ी। सच दस फीट की दूरी पर ही कई भैंसें बैठीं पागुर कर रहीं थीं। मेरी हंसी फूट गई। मैंने कहा- “अब तक हमने भैंस और बीन के नकारात्मक संबंध के बारे में सुना था। मुहावरा ही बन गया- “भैंस के आगे बीन बजाई, भैंस बैठ रही पगुराई”। आप तो भैंस और फूल का संबंध ढूंढ़ रहे हैं। भैंस को फूल पसंद हैं कि नहीं, इस पर भी किसी ने अवश्य शोध किया होगा।”श्रीलाल जी बोले- “दरअसल बात यह है कि समाचार पत्रों में भैंस और फूल से संबंधित कोई खबर मैं बिना पढ़े नहीं छोड़ता। कटिंग कर लेता हूं। इधर मैंने खबर पढ़ी कि भैंस का दूध निकालते समय उसे संगीत सुनाते रहने से वह ठीक से दूध निकालने देती है। उसी प्रकार वैज्ञानिकों का कहना है कि फूलों के बगीचों में संगीत बजाने से वे शीघ्रातिशीघ्र अधिक खिलते हैं। मेरी परेशानी बढ़ गई है।””इसमें परेशानी बढ़ने की क्या बात है? आप तो एक ही यंत्र से दोनों को संगीत सुना सकते हैं। खर्चा बचेगा। दोनों के आवास की दूरियां ही कितनी हैं? आपने तो भैंस के पड़ोस में फूल को बसा दिया है। फूल की निकटतम पड़ोसन भैंसें ही हैं। खैर मनाइए कि वैज्ञानिकों ने विदेशी फूल और देसी भैंस के बीच प्रेम-संबंध की संभावनाएं अभी नहीं बताई हैं। वरना आपको इनमें से किसी एक को विस्थापित करना ही पड़ता। और यदि भैंस को जड़वेरा से प्रेम हो जाए तो पूछिए मत। फूल बचेंगे ही नहीं।”श्रीलाल जी गंभीर हुए। बोले- “मेरी समस्या यह नहीं है। दरअसल समस्या तो इनकी जड़ की है, वंश की। और यह भी कि उन्हें कौन सा संगीत सुनाऊं? मैंने किसी मित्र से पूछा कि इन्हें कौन सा गीत सुनाऊं? एक आर्य समाजी मित्र ने विचार कर कहा- इन फूलों के बाग में गायत्री मंत्र वाला कैसेट लगाओ। दूसरे युवा मित्र ने सुझाव दिया- “कोई थिरकता हुआ रोमांटिक कर्ण फोड़ धड़कता गीत सुनाओ। किसी ने लोकगीत, तो किसी ने पर्व-त्योहारों के गीत के कैसेट लगाने के सुझाव दिए। मैंने भी सोच लिया कि ओम नम: शिवाय या गीता के श्लोकों को गाया हुआ कैसेट भैसों को दुहते समय लगाएंगे। क्योंकि दूध देते समय वह जितना स्थितप्रज्ञ रहे, उसी में हमारी भलाई है। पर जड़वेरा को अधिक खिलाने के लिए किसी भी भारतीय गीत-संगीत के गीत से नहीं चलेगा।””क्यों? आजकल तो ऐसे गीत आ रहे हैं कि इन्हें सुनकर बूढ़े-बुजुर्ग के पांवों और कमर में भी थिरकन आ जाती है। सूखा मन हरा-हरा हो जाता है। फिर जड़वेरा को क्यों एतराज होगा।” मैंने कहा।श्रीलाल जी और अधिक गंभीर हुए। बोले-“जड़ की समस्या है। वंश की। जड़वेरा की जड़ हॉलैंड में है। वहां उसके पूर्वजों ने कोई और धुन सुनी होगी। उसे भारतीय धुन सुनाने पर शायद अच्छा न लगे। फिर तो हमारा प्रयास विफल जाएगा।”फिर तो मैं भी गंभीर हुई- “आपकी चिंता शोधपरक है। आप ठीक कहते हैं। पिछले दिनों मैं अमरीका गई थी। साठ वर्ष पूर्व वहां जाकर बसे डा. राम हुलास जी के पोते से मिली। उसे हिन्दी बोलनी नहीं आती। वह ए.बी.सी.डी (एमेरिकन बोर्न कन्फ्यूजन देसी) है। पर वह हिन्दी गाने ही सुनता है। इतना ही नहीं पिछले दिनों दिल्ली में एक बिहारी, एक मराठी, एक गुजराती, एक बंगाली और एक पंजाबी परिवार का मिलन समारोह था। देशी, विदेशी, जापानी, चाइनीज, पीज्जा, बर्गर-सरगर अनेक खाने की सुस्वादु सामग्रियां थीं। पर बंगाली माछ-भात, बिहारी भात-दाल, आलू की भुजिया, मराठी पूरन पोली, श्रीखंड और गुजराती थेपला की ही ओर लपके। पंजाबी तो छोले-भटूरे पर टूट ही पड़े थे। जबकि दिल्ली में उनकी तीन पीढ़ियां गुजर गर्इं।””यही तो कहता हूं मैं। दरअसल मैं हॉलैंड जाने वाला हूं। वहां के पुराने वाद्ययंत्र ढूंढ़ कर लाऊंगा। धुन भी रेकार्ड कर लूंगा।” श्रीलाल जी की व्यापारिक बुद्धि की कायल होने के सिवा मेरे पास कोई चारा नहीं बचा था। वे हालैंड से आयातीत फूल को वहीं के पारंपरिक लोक-संगीत सुनाकर उनका मन प्रसन्न करेंगे, ताकि उनकी उपज बढ़े। भैंस के लिए उन्होंने गीता के श्लोक का कैसेट ही बजाना उचित समझा है। इसमें भी उनका स्वार्थ साफ झलकता है। दरअसल उनका लक्ष्य अधिक फूल और दूध पाना है। पर यह पहल भी तो अपनी जड़ की ओर लौटना हुआ।जसकौर जी ने पूछा- “क्या खाएंगी। दाल बाटी चूरमा बनाऊं।” मैंने कहा- “नहीं। भात, अरहर की दाल और आपके खेत से निकले नन्हे आलू में लहसुन की हरी पत्तियों में भुनी भुजिया।” बोलते हुए भी मेरे मुंह में पानी आ गया था। जसकौर जी बुदबुदार्इं- “पक्की बिहारन हैं।”मैं तो भैंस, फूल और संगीत की गुत्थी सुलझाने में उलझ गई थी। जसकौर जी ने मुझे सराहा या भत्र्सना की, क्या मालूम! वहां पसरे विषय के अनुसार तो मेरे बिहारीपन को सराहना ही मिली होगी।12
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