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स्वतंत्र भारत में सर्वोपरि क्याकुरान या भारतीय संविधान?मुजफ्फर हुसैनगत पांच जून को मुम्बई के राम नारायण रुइया महाविद्यालय में सुप्रसिद्ध मराठी लेखक अब्दुल कादिर मुकादम की पुस्तक “चंद्रकोरीच्या छाया” का विमोचन समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह के अध्यक्ष थे महाराष्ट्र के वरिष्ठ समाजवादी नेता एवं बुद्धिजीवी भाई वैद्य। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने यह सवाल उठाया कि स्वतंत्र भारत के सार्वजनिक जीवन में सर्वोपरि कौन है-कुरान या भारतीय संविधान? अब्दुल कादिर मुकादम ने पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में मुस्लिम राजनीति, सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की पैनी मीमांसा करते हुए अनेक पहलुओं पर अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं। अपने व्याख्यान के अंतिम चरण में श्री वैद्य ने यह सवाल किया कि भारतीय मुसलमानों को इस बात का उत्तर देना पड़ेगा कि वे अपने सार्वजनिक जीवन में कुरान को ज्यादा महत्व देते हैं या भारतीय संविधान को? भाई वैद्य ने जिस तरह से यह सवाल उठाया वैसा ही एक सवाल बार-बार उठता है कि भारत के मुसलमान पहले मुस्लिम हैं या भारतीय? राजनीतिक क्षेत्र में इन दिनों जो महत्व नागरिकता को प्राप्त है वैसा महत्व उस व्यक्ति के मत-पंथ को नहीं है?संविधान से द्रोहपाकिस्तान निर्माण से पूर्व मौलाना मोहम्मद अली छाती ठोंक कर यह कहा करते थे कि मजहब की दृष्टि से हर मुसलमान, चाहे वह साधारण स्थिति का हो या फिर विशेष, महात्मा गांधी से भी अधिक विशिष्ट और महान है, क्योंकि महात्मा गांधी हिन्दू हैं और वह मुसलमान। विभाजन से पूर्व मौलाना मोहम्मद अली से जब यह पूछा गया कि तुम पहले भारतीय हो अथवा मुसलमान? इस पर उन्होंने खीजकर पूछने वाले को उत्तर दिया था, “तुम्हें सवाल पूछना नहीं आता। मुझसे यह पूछो कि मैं पहले अपने पिता का हूं या माता का। मैं कहूंगा कि मैं दोनों का हूं इसलिए उनका पुत्र हूं।” बीते दौर की उस बहस को भाई वैद्य ने नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हुए उसे दोहराया और पूछा है कि स्वतंत्र भारत में भारत का मुसलमान कुरान को प्राथमिकता देता है या भारतीय संविधान को? कुरान में जीवनयापन के लिए एक मार्गदर्शिका प्रस्तुत की गई है, जिसमें कुछ बातें कानून की हैसियत रखती हैं और कुछ नियम की। अपने द्वारा उठाए गए प्रश्न का दो टूक जवाब देते हुए भाई वैद्य ने कहा कि अब मुसलमानों के लिए भारत के सार्वजनिक जीवन में कुरान को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है, अब उनके लिए केवल भारतीय संविधान सर्वोपरि है। भाई वैद्य ने स्पष्ट रूप से कहा कि संविधान के अंतर्गत जो व्यवस्था है, मुस्लिम उसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जो आज समान नागरिक कानून में विश्वास नहीं करते हैं वे संविधान से द्रोह करते हैं। लेकिन इस देश की संसद ने आज तक समान नागरिक कानून बनाया ही नहीं है, ऐसे में मुसलमान क्या कर सकता है? भारत का उच्चतम न्यायालय समय-समय पर जो निर्णय देता है वह भाई वैद्य की परिभाषा के अंतर्गत सभी को स्वीकार करने चाहिए। यदि नहीं करते हैं और उनके विरुद्ध फतवे देकर मुसलमानों को दिग्भ्रमित करने का काम किया जाता है तो वह ठीक नहीं है। भाई वैद्य की बातों को सारा देश मानने और सुनने के लिए तैयार है। लेकिन जो वोटों की राजनीति कर रहे हैं वे मुसलमानों से भी अधिक संविधानद्रोही हैं। कार्यक्रम में लगभग सभी वक्ताओं ने मौलाना अबुल कलाम आजाद के कुरान भाष्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। मौलाना आजाद को मुसलमानों ने जिन्ना के सम्मुख अत्यंत छोटा बना दिया। मौलाना भविष्यवेत्ता थे इसलिए उन्होंने इस बात को बड़ी दृढ़ता से कहा कि कुरान की व्याख्या समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार होनी चाहिए। इसलिए इस तथ्य को नहीं स्वीकारा जा सकता है कि कुरान परिवर्तन की बात नहीं करती है। भारतीय मुस्लिम यदि मौलाना के अनुवादित कुरान को स्वीकार करते हैं तो फिर वर्तमान में कहीं टकराव का सवाल ही पैदा नहीं होता है। जाकिर नाइक जैसे तथाकथित प्रसारक अपनी प्रभावी भाषा और शैली का उपयोग करके साधारण व्यक्ति को कुछ समय के लिए तो प्रभावित कर सकते हैं लेकिन उसकी व्याख्या उलट-पुलट कर प्रस्तुत करके देश और मुस्लिमों का भला नहीं कर सकते हैं। मुस्लिमों के साथ वे गैर मुस्लिम भी दिग्भ्रमित होते हैं जो अरबी के साथ-साथ इस्लामी साहित्य से परिचित नहीं हैं।भारतीयकरण है समाधानइस समारोह में उपस्थित विख्यात पत्रकार प्रकाश बाल ने एक मौलिक सवाल उठाया कि भारतीय मुस्लिम भारतीय समाज के अंग हैं या अरबी समाज के? श्री बाल के इस मौलिक सवाल में वे सारी समस्याएं छिपी हुई हैं जिनसे आज भारतीय मुसलमान बुरी तरह से पीड़ित हैं। मुकादम ने अपनी पुस्तक में सूफीवाद की चर्चा की है। यदि भारतीय मुसलमान वास्तव में भारतीय बन जाता है तो सारी समस्याओं का हल निकल सकता है। वास्तविकता तो यह है कि श्री बाल ने जो सवाल उठाया वही सवाल तो भाई वैद्य का भी है। भारतीयता का दूसरा नाम ही तो भारतीय संविधान है। बाबा साहब अम्बेडकर से लेकर डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जैसे लोग ही तो वे मनीषि थे जिन्होंने भारत के संविधान को बनाया। यदि संविधान की चौखट में भारतीय मुसलमान स्वयं को मर्यादित कर लेते हैं तब तो कोई प्रश्न ही शेष नहीं रह जाता है। भारतीय जनसंघ के ऋषि तुल्य नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इसी प्रक्रिया को भारतीयकरण का नाम दिया। समय-समय पर लोकसभा में इस मुद्दे पर चर्चा भी होती रही है।बस “मुस्लिम” से मतलबमोहम्मद करीम छागला ने शिक्षा मंत्री के रूप में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से “मुस्लिम” और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से “हिन्दू” शब्द हटाने का विधेयक प्रस्तुत किया था। हिन्दुओं ने तो इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन मुसलमानों ने सारे देश को सिर पर उठा लिया था। उनका कहना था कि इससे इस विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र समाप्त हो जाएगा। जो भारतीय संविधान मुसलमानों को बिना किसी शर्त पर अल्पसंख्यक दर्जा देता है वह दर्जा भला किस प्रकार समाप्त हो जाएगा, इस संबंध में कोई उत्तर नहीं दिया जाता। इसका अर्थ यह हुआ कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय उनके लिए महत्व का मुद्दा नहीं है। उनके लिए केवल “मुस्लिम” शब्द का महत्व है। ऐसा ही इन दिनों दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में चल रहा है। यानी हर स्थान पर उन शहाबुद्दीन की मानसिकता जीवित है जो अपने पत्र का नाम “इंडियन मुस्लिम” नहीं, बल्कि “मुस्लिम इंडिया” रखते हैं। उनके भीतर हर समय एक भय बना रहता है। क्या वे मुस्लिम शब्द हटा देंगे तो इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा? कहने का अर्थ यह है कि भारतीय मुस्लिम हमेशा से दोहरे मापदंड में रहना चाहते हैं। हज के लिए भारतीय पासपोर्ट का उपयोग करते हैं, लेकिन विश्वविद्यालय से “मुस्लिम” शब्द हटाने के लिए तैयार नहीं हैं।उक्त समारोह में सबसे प्रभावशाली वक्तव्य डाक्टर दलवी का था। मुकादम की पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने अनेक प्रश्न उठाए और उनका जवाब भी दिया। डाक्टर दलवी साधना महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य रहे और इतिहास के शोधकत्र्ता के रूप में उनका अपना दबदबा है। चूंकि वे शिक्षा शास्त्री हैं इसलिए इन दिनों एक निजी शाला के मार्गदर्शक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। दलवी मुसलमानों की वर्तमान, भूत और भविष्य की पीढ़ी से परिचित हैं। उन्होंने अपने सारगर्भित भाषण में मूल मुद्दा यह उठाया कि इन दिनों मुसलमान सबसे अधिक किस चीज से प्रभावित हैं। यानी भारतीय मुसलमानों का आदर्श क्या है? अपने भाषण में दो टूक बात करते हुए उनका विश्लेषण था कि “आज के कट्टरवादी भारतीय मुसलमानों का अगर कोई आदर्श है तो वह ओसामा बिन लादेन है।” जिस पर्दे को वे इस्लाम की दृष्टि से आवश्यक मानते हैं उसके विषय में सवाल उठाते हुए पूछा कि किस आयु की महिला को पर्दा करना चाहिए? उन्होंने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि आज तो शालाओं में 7-8 वर्ष की बच्ची को बुर्का पहनाया जाता है। सिर से पांव तक वह ढकी रहती है। क्या यह कोई नैसर्गिक अथवा तर्कबद्ध निर्णय है? किस आयु में पर्दा होना चाहिए, इस बात का भान होते हुए भी एक छोटी बच्ची को इस त्रास से गुजरना पड़ता है। आप मुस्लिमों की वेशभूषा देखिए। सारी कौम एक जैसा वेश धारण किए दिखाई देती है। हम मुसलमानों का यहां जो वेश देखते हैं उससे तो ऐसा लगता है कि अपना दबदबा कायम करने के लिए अथवा अपनी जनसंख्या का शक्ति परीक्षण करने के लिए ऐसा किया जा रहा है। इससे अन्य लोगों में चिढ़ पैदा होती है और वे जाने-अनजाने इसे अपना विरोधी मानते हैं। जिस आयु में एकता और अपनत्व की भावना सिखाई जाती है, उसी में दूरी बढ़ाने के ये दृश्य अपने आप में बहुत कुछ कह जाते हैं।पवार भी पलटेवक्ताओं ने मुस्लिमों को रोजी (नौकरी) का नहीं बल्कि रोजगार देने का आह्वान किया। मुस्लिम युवक अच्छे दस्तकार होते हैं। उन्हें नौकरी की आवश्यकता नहीं है। उन्हें यदि छोटे-मोटे व्यवसायों की तकनीक से परिचित कराया जाए तो उनका भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। बहुत दिनों बाद सत्य शोधक मंडल और हमीद दलवई को याद किया गया। शरद पवार का उल्लेख भी हुआ। पाठकों को याद दिला दें कि ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने हमीद दलवई की भरपूर सहायता की थी। हमीद दलवई का जब गुर्दा खराब हो गया था, उस समय एक फांसी प्राप्त अपराधी फीरोज को समझा-बुझाकर हमीद भाई के लिए गुर्दा प्राप्त किया था। लेकिन वे जीवित न रह सके। सत्य शोधक मंडल के पालनहार बनने वाले शरद पवार अब कट्टरवादी मुसलमानों के समर्थक दिखते हैं। अन्य राजनीतिक दलों की तरह अब वे भी मुसलमानों की “समस्याओं” की बात करने लगे हैं। भाई वैद्य के कथनानुसार, हमीद भाई के पश्चात सत्य शोधक मंडल की कमान अब्दुल कादिर मुकादम ने संभाली थी, लेकिन बेल मुंडेर पर नहीं चढ़ सकी, इसका भारी दुख है।4
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