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रामनारायण त्रिपाठी “पर्यटक”सूरज का रुख भांपकर, हवा हो गयी मौन। पानी पानी मांगता, प्यास मिटाये कौन।।हवा हवा है हो गयी, सूरज बरसे आग। डर कर पानी भी गया, धरा छोड़कर भाग।।धरती की छाती फटी, देख जनक का रूप। त्राहि-त्राहि हैं कर रहे, वारिहीन सब कूप।।आग बढ़ी मार्तण्ड की, घटी हवा की साख। सरि सर कूपों का हुआ, पानी जलकर राख।।तानाशाही कर रहे, यहां नित्य दिननाथ। पवन वरुण नतशीश हैं, जोड़े दोनों हाथ।।खलनायक सूरज बना, देता है संत्रास। नायक वारिद लापता, मौन खड़े उनचास।।पशु-पक्षी व्याकुल फिरें, विकट जेठ का घाम। दोपहरी-सी तप रही, यहां अधमरी शाम।। तन तपकर कोयला हुआ, खा आतप की धूप। कंचन काया का सखे, बदल गया है रूप।।बिछुड़े मिले बसन्त के, हो न सकी पहचान। वे आवे की राख थे, हम कोयला की खान।।टप-टप-टप टपका करे, सिर से स्वेद अखण्ड। ज्यों गरीब की झोपड़ी, वारि झरे उद्दण्ड।।स्वेद-स्नान से हो रही, लवणासुर-सी देह। तन फदके कुछ इस तरह, ज्यों ऊसर में रेह।।तन धधके भट्ठी सदृश, बहे स्वेद अविराम। काल बना आतप खड़ा, प्राण बचायें राम।।17
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