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विजयादशमी महोत्सव के अवसर पर पूज्य सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने कहा-

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Nov 10, 2009, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 Nov 2009 00:00:00

राष्ट्र की सुरक्षा सर्वोपरिप्रतिवर्ष की भांति इस बार भी विजयादशमी अर्थात् संघ-स्थापना दिवस पर गत 27 सितम्बर की शाम प.पू. सरसंघचालक ने अपने उद्बोधन में राष्ट्र के समक्ष चुनौतियों की चर्चा करते हुए देशवासियों का आह्वान किया। शस्त्र पूजन से आरम्भ हुए इस कार्यक्रम के विशेष अतिथि थे सुप्रसिद्ध समाजसेवी एवं आध्यात्मिक विभूति श्री भय्यू जी महाराज। यहां प्रस्तुत है सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के विस्तृत उद्बोधन का संपादित स्वरूप। -सं.पाश्चात्य कालगणनानुसार आज से 84 वर्ष पूर्व इसी दिन संघ का हिन्दू समाज के संगठन का कार्य प्रारंभ हुआ था। हिंदू समाज का संगठन एक अनिवार्य राष्ट्रीय कर्तव्य है, यह बहुत समझाने की आवश्यकता नहीं। भले ही कोई हिंदुत्व अथवा हिंदू शब्द का उपयोग करे या न करे, हिन्दुस्थान के प्रत्येक व्यक्ति के ह्मदय की गहराइयों में यह भाव सुप्त, जाग्रत परंतु अव्यक्त तथा व्यक्त, तीनों में से किसी न किसी स्थिति में मिलता है। हिंदू शब्द किसी पूजा-पद्धति, भाषा, प्रदेश विशेष, मत विशेष को चिह्नित नहीं करता है, बल्कि यह सभी मत-पंथ, भाषा, प्रांत-पक्षों का सम्मान करते हुए, स्वीकार करते हुए, उन सबको जोड़कर मिल-जुलकर रहने की विधा सिखाने वाली भारत की चिरंतन संस्कृति का, जीवन पद्धति का नाम है, यह बात अपना सर्वोच्च न्यायालय भी कह चुका है।संपूर्ण दुनिया को आज इसकी आवश्यकता है। पृथगात्म व भेदमूलक दृष्टिकोण पर आधारित व्यवस्थाओं के प्रयोग असफल हुए। इसलिये संपूर्ण विश्व की सोचने, समझने वाले लोग एकात्म व समग्र दृष्टि के लिए भारत की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहे हैं। परन्तु आज जब हम अपने देश की परिस्थिति, मन:स्थिति व नीतियों को देखते हैं तो ऐसा विश्वगुरू भारत खड़ा करने की हमारी स्थिति व गति पर ही प्रश्नचिन्ह लगे दिखाई देते हैं।कुचेष्टाएं असफल करेंसर्वसामान्य लोगों के भी मन में सबसे पहला प्रश्न (जब वे देश का विचार करते हैं) अपने देश की सुरक्षा के संबंध में उभरता है। पाकिस्तान व चीन के हमारे साथ व्यवहार तथा उनके अंतस्थ उद्देश्यों के साथ हम भलीभांति परिचित हो ही गये हैं। बंगलादेश भी हमारे लिए समस्याएं पैदा कर रहा है। एशिया महाद्वीप में अपनी हितरक्षा हेतु अमरीका अपना दोतरफा खेल (प्रकट व छद्म) खेल ही रहा है। नेपाल, ब्राहृदेश, श्रीलंका आदि देशों को शीघ्रातिशीघ्र अपने प्रभाव में लाने की इनकी चेष्टाएं चल रही हैं। अपनी संसद ने चीन द्वारा 1962 में आक्रमण कर हथियायी गयी लद्दाख, सिक्किम व अरुणाचल प्रदेशों की भारतीय भूमि का प्रत्येक इंच वापस लेने का संकल्प किया था। परंतु चीन तो भारत के चारों ओर मौजूद देशों में अपने प्रभाव को बढ़ाकर भारत की घेराबंदी करने में लगभग सफल हो चुका है। स्वतंत्रता के पश्चात् हमारे देश पर बार-बार थोपे गये युद्धों तथा सीमा अतिक्रमण के प्रसंगों से थोड़ी बहुत सीख लेकर हमने अपने सामरिक बल को सदा पूर्ण सन्नद्ध रखने में अपनी उदासीनता को कुछ मात्रा में छोड़ा अवश्य है, परंतु अभी भी हमारी सामरिक तैयारी चीन से बहुत कम है। हमें अपनी सीमाओं की सुरक्षा के और पुख्ता प्रबंध करने हैं। अपनी छिद्रित सीमाओं से निरंतर चल रही घुसपैठ को तत्काल कठोरतापूर्वक रोकना चाहिये। पहले से अंदर घुसे घुसपैठियों के बारे में “चिन्हित करो, नाम हटाओ, बाहर भेजो” की नीति का भी तत्काल अवलंबन होना चाहिए। चीन से एक बार व पाकिस्तान से बार-बार धोखा खाने के पश्चात् भी हमारा राजनयिक भोलापन, असावधानी व अदूरदर्शिता वैसी की वैसी कायम होने के संकेत देने वाली घटनाएं अधिक मात्रा में सुनाई देती हैं। आज हालत यह है कि थोड़ी सी अधिक पहल से, सक्रियता से दक्षिण एशिया के सारे देशों को अपने अच्छे मित्र बनाकर केवल तीसरे जगत के देशों को ही नहीं अपितु सारी दुनिया को एक सर्वहितेच्छु प्रामाणिक नेतृत्व देने की महत्वाकांक्षा लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपने कदम बढ़ाने की योजना करना तो दूर रहा, अपने ही भूभागों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के षड्यंत्रों को ही पहचानकर हम विफल कर लें, तो बहुत है।देश की अखण्डता सुनिश्चित हो”भारत के अविभाज्य अंग कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा कब्जाए कश्मीर को मुक्त कर पुन: शेष देश के साथ जोड़ना, इतनी ही समस्या शेष है।” सारे देश का यह मत संसद के सर्वसम्मत प्रस्ताव द्वारा प्रकट हुए वर्षों बीत गये, पर समस्या और उलझायी जा रही है और हम अवसर चूकते चले जा रहे हैं। अमरनाथ आंदोलन के कारण देश की अखंडता व एकात्मता के उभरे हुए सशक्त स्वरों को बल देने के बजाय वहां के प्रदेश शासन-प्रशासन की विपरीत नीतियों को ही शह दी जा रही है। जम्मू व लद्दाख की जनता का न्यायोचित अधिकार उनको केवल उनके मनोबल, पुरुषार्थ व एकता के कारण प्राप्त होता है, केन्द्र शासन अथवा प्रदेश शासन के कारण नहीं, यह स्थिति किसी के हित में नहीं है। कश्मीर घाटी में देशभक्ति के स्वरों को अधिक बल देने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कश्मीर के विस्थापित हिंदुओं की वापसी करवाकर वहां का जनसंख्या असंतुलन ठीक हो सके, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। भ्रमपूर्ण घोषणाओं मात्र से काम नहीं चलेगा। भारतभक्त व हिंदू धर्मानुयायी बनकर स्वयं की सुरक्षा के लिए पूर्ण सन्नद्ध व सरकार की ओर से आश्वासित होकर, सम्मानपूर्वक सदा के लिए वापसी की कश्मीरी हिंदुओं की न्यायोचित मांग अविलंब पूरी होनी चाहिये।देश के उत्तर-पूर्वांचल में राष्ट्रविरोधी शक्तियों के खुले खेल चल रहे हैं। न्यायालयीन आदेश व गुप्तचर विभागों की पुष्टियों के बावजूद बंगलादेशियों की घुसपैठ पर रोक लगाने वाली किसी मजबूत नीति का परिचय नहीं मिल रहा है। वोटों की राजनीति के दबाव में राष्ट्रहित की उपेक्षा करना कितना महंगा पड़ता है इसका और कितना अनुभव हम लेना चाहते हैं? हाल ही में वहां के उत्तर कछार क्षेत्र में डिमासा व जिमि नागा बंधुओं को आपस में लड़ाने के लिए जो नृशंस रक्तपात हुआ, उसके पीछे की उग्रवादी, अलगाववादी, परपोषित, मतांतरकारी ताकतों को वोट-लोभी लचर मनोवृत्ति की सुरक्षा मिलती है। देश के आंतरिक अंचलों में चल रहे तथाकथित माओवादी उग्रवाद व जिहादी उग्रवाद से लेकर सीमा प्रदेशों के दोनों ओर चलने वाले उग्रवाद तक, सभी में राष्ट्रविरोधी तत्वों के साथ आई.एस.आई. सहित अन्यान्य विदेशी हस्तक संस्थाओं का संयुक्त गठबंधन काम कर रहा है, यह शासन के पास स्पष्ट जानकारी है। फिर भी इसका शीघ्र व परिणामकारी उपाय करने वाली कोई नीति, भाषणों व घोषणाओं के अपवाद छोड़कर, कहीं अनुभव में नहीं आ रही है। निम्नलिखित पांच सूत्रों के आधार पर योजना बनाकर उसका तुरंत क्रियान्वयन अतीव आवश्यक है-1- उग्रवादी गतिविधियों पर शासन-प्रशासन द्वारा सर्वत्र एक साथ कठोर प्रहार।2- सुरक्षाबलों का सशक्तीकरण।3- सूचना संग्रह तथा गुप्तचर विभाग का सक्षमीकरण।4- समाज का सुरक्षा की दृष्टि से व्यापक प्रबोधन व प्रशिक्षण।5- बेरोजगारी, शोषण व भ्रष्टाचार से शीघ्र मुक्ति।विकास का सूत्रपांचवें सूत्र की बात करते हैं तो विकास की बात ध्यान में आती है। विश्व के देशों में शीघ्र विकास कर आर्थिक महाशक्ति बन सकने वाले देशों में भारत का भी नाम आता है। अपने एकात्म, समग्र व मानवकेन्द्रित दृष्टिकोण के आधार पर हमें भारत के लिए अलग विशिष्ट विकास की अवधारणा, उद्दिष्ट व विकासपथ बनाने पड़ेंगे। भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। पर बजट का कितने प्रतिशत कृषि पर खर्च होता है? विश्व का अन्नदाता किसान आत्महत्या का निर्णय क्यों करता है? कृषि के साथ गोपालन, गोसंवर्धन, पशुपालन बंद हो गया। कृषि उपज पर लागत पर आधारित मूल्य नहीं मिलता, साहूकारों से भी अधिक जानलेवा चक्र बैंकों व सरकारी कर्जे का हो गया है। शहर केन्द्रित विकास के कारण संयुक्त परिवार व्यवस्था की सुरक्षा अनुपलब्ध हुई है। हमें विकासपथ बदलना होगा। विश्व व्यापार संगठन की वंचनापूर्ण नीतियों के चक्रव्यूह से बाहर निकलना पड़ेगा। हमारी खाद्यान्न सुरक्षा संकट में डालने वाली बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों को अनावश्यक न्योता देने वाली नीतियों का त्याग करना होगा। कृषि के लिए उपयुक्त जमीनों को “से#ेज” से बचाना होगा। गो आधारित कृषि व गो उत्पादों के वनस्पति व मनुष्यों के लिए पोषक व औषधीय गुण सिद्ध हो चुके हैं। हमें अपने स्वत्व पर आधारित काल-सुसंगत तंत्र की खोज व प्रचार करना होगा।आज शिक्षा का व्यापारीकरण हो रहा है इसलिए वह महंगी हो रही है। देश को जोड़ने एवं देश से जुड़ना सिखाने वाली शिक्षा पाठ्यपुस्तकों में नहीं है, बल्कि उसके विपरीत है। सुरक्षा, अर्थ व शिक्षा नीति राष्ट्र-अस्मिता केन्द्रित होने से ही देश एक परमवैभव संपन्न राष्ट्र के रूप में उभर सकता है। परंतु इस राष्ट्र-अस्मिता की स्पष्ट कल्पना समाज के सामने स्पष्ट शब्दों में रखनी होगी। यह जिनका कर्तव्य है उसमें अधिकांश नेता तो वोटों की राजनीति पर आश्रित होकर विपरीत आचरण करते हुए स्वत्व की प्रताड़ना में ही लगे दिखते हैं। उनसे यह अपेक्षा है कि वे वोटों के लालच में प्रान्त व भाषा के भेदों को उभारने की नीति न अपनाएं। जैसे कर्नाटक के मुख्यमंत्री महोदय ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री महोदय से मिलकर महान संत तिरुवल्लुवर की प्रतिमा बंगलूरु में व महान संत सर्वज्ञ की प्रतिमा चेन्नै में स्थापित करने की पहल की, ऐसे स्वस्थ उदाहरण की अपेक्षा हमारे देश के राजनेताओं से है। वे सभी इसको पूर्ण कर सकें, ऐसा लोकतंत्र खड़ा करने के लिए चुनाव पद्धति में परिवर्तन की आवश्यकता भी सभी महसूस करते हैं।परिस्थिति पर विजय का मार्गहिन्दुत्व सबको अपना मानता है व किसी का विरोध नहीं करता, इसलिए हिन्दू समाज का सामान्य स्वभाव सहिष्णुता का है। परंतु उदारता, अहिंसा व प्रेम की पराकाष्ठा सिखाने वाली संस्कृति, देवी-देवता, परंपराएं आदि विश्व की एकाधिकारवादी तथा कट्टर प्रवृत्तियों के द्वारा उपहास व आक्रमण की शिकार बनाई जा रही हैं। हिन्दू समाज को लालच, बलप्रयोग अथवा छलकपट से मतांतरित कर तोड़ा जा रहा है। मतों के लालच में शासनारूढ़ राजनेतागण भी हिन्दुत्व व हिन्दू समाज की अवहेलना कर राष्ट्रविघातक शक्तियों के हाथों में खेलने से नहीं हिचकिचाते। आज आवश्यकता इस बात की है कि देश की राजनीति, राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक तंत्र देश की पहचान, सुरक्षा, एकात्मता के साथ खिलवाड़ न करे, राष्ट्रविघातक शक्तियों का साक्षी न बने, समाज के अंतिम व्यक्ति तक की आवश्यकताओं व वेदनाओं के प्रति प्रामाणिक व संवेदनशील बने।परंतु प्रजातंत्र में यह काम अंततोगत्वा सज्जनशक्ति का अनुसरण करने वाले संगठित समाज को ही करना पड़ेगा। संघ के पास शाखा के रूप में वह तंत्र है। परिस्थिति पर विजय का यह एकमेव रास्ता है। यह दुनिया की आवश्यकता व भारत के अस्तित्व के लिए अनिवार्यता है। दानवता पर मानवता की विजय के इस उत्सव पर हम उस उपाय का अनुसरण करें, यही आह्वान है। द9

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