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सच को समझने की सामयिक दृष्टि

by
Oct 5, 2009, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Oct 2009 00:00:00

समय के शिलालेख” पुस्तक के लेखक डा. दयाकृष्ण विजयवर्गीय “विजय” ने उन घटनाओं, चरित्रों और नीतियों को सफलतापूर्वक रेखांकित करने की कोशिश की है, जिसका इस देश के जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ा है और पड़ता है। यह एक अत्यंत संवेदनशील कवि ह्मदय की गंभीर प्रतिक्रियाएं हैं। इस कविता संग्रह में अधिकांश रचनाएं व्यंग्य प्रधान हैं। व्यंग्य की सार्थकता तात्कालिकता में ही निहित होती है जो पूरी कथाओं में भी प्रसंगवश देखी जा सकती है।पुस्तक के आरंभ में व्यंग्य कविताओं का संकलन प्रतीत होता है लेकिन आगे बढ़ते ही अनेक पौराणिक मान्यताएं और विषयों की चर्चा आ जाती है-उनका विश्लेषण भी और कुछ आपत्तियां भी।दरअसल पुस्तक में व्यंग्य का प्रमुख आधार, देश की राजनीति है। वह इतनी अनैतिक, स्वार्थी, देश और समाज विरोधी हो चुकी है कि उस पर व्यंग्य करने के लिए कुछ खोजना नहीं पड़ता। आरंभिक कविताएं राजनीति से ही संबंधित है। विषय का चयन बड़ी दक्षता से किया गया है। राजनीति के निर्णय देशहित और भविष्य का निर्माण नहीं करते, वे अपनी तात्कालिक उपलब्धियों की ओर ही लपकते हैं। चाहे आरक्षण हो, चाहे वंशवाद, चाहे भाषा और संस्कृति, किसी भी क्षेत्र में दूरदृष्टि नहीं है। पुस्तक में “राजनीति” नाम की कविता में कुछ इस तरह पंक्तियां दी गई हैं।राजनीति तोड़ती है जोड़ती नहीं देखती है अभेद में भेद अद्वैत में द्वैत। (पृष्ठ सख्या-23)नागपंचमी जैसी कविताएं, इन सारे तथ्यों को इस प्रकार रेखांकित करती हैं कि शायद और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। महंगाई को नियंत्रित करने का पाखंड, आंकड़ों की चिलमन के बाद भी नहीं छिप पता। यथार्थ देश की सरकार को नजर नहीं आता है। फांसी स्पष्ट कर देती है कि हमारे देश के सत्ताकर्मियों को अपने देश की सुरक्षा का कितना ध्यान है। कवि, देश की प्रगति की समीक्षा कर टिप्पणियां भी करता है। उसकी लेखनी जब आवरण को तनिक सा कुरेद देती है, तो हमारे सामने प्रगति नहीं, प्रकृति का कंकाल प्रकट हो जाता है। विजय जी अपने कविता के माध्यम से बताते हैं कि किस तरह हमारे प्रतिस्पर्धियों द्वारा वे नियम बनाए जाते हैं, जिनके द्वारा विजेता ही पराजित घोषित कर दिया जाता है। और फिर ये झूठे विज्ञापन, जो भोली जनता को मूर्ख ही नहीं बनाते, उसे लूट भी लेते हैं; किन्तु उसके लिए उनको दण्डित करने वाला कोई भी नहीं है।पौराणिक विषयों की कविताएं कुछ लम्बी और गंभीर चिंतन से युक्त भी है। विजय जी व्यास पर मुग्ध भी हैं और क्षुब्ध भी। बहुपतित्व की प्रथा को लेकर वे व्यास का पक्ष नहीं लेते, उनका उग्र विरोध करते हैं। “जन्माष्टमी” कविता में कुछ इस तरह ऋषि व्यास के बारे में गुणगान करते हैं।ऋषिवर वेदव्यास ने लिखी न यदि होती महाभागवत किया न होता महारास का नाम प्रेम-भक्ति का पंथ उजागर किया न होता गीता में उनने पूर्ण ब्राहृ ही सिद्ध तुम्हें विश्व मानता केवल ह्मदय तोड़ रणछोड़ सारथी भर ही तुमको हे योगेश्वर ! (पृष्ठ संख्या-128)महाभारत और भागवत के अनेक प्रसंगों पर कवि ने मुग्ध होकर लिखा है और सराहा है। बीते समय के शास्त्र को वर्तमान के लिए व्यावहारिक बनाने के लिए उन चरित्रों के साहस और बुद्ध को गौरवान्वित किया है। और वे कृष्ण की अलौकिक लीलाओं पर मुग्ध हुए हैं। “किसी जन्म में कवि तो नहीं रहे कृष्ण तुम” नामक कविता में कवि कहता है-ऐसा कौन सा आकर्षण था वासुदेव अहीरों की छोकरियां छछिया भर छाछ का प्रलोभन दे कैसे जाती थीं तुम्हें नचाती अपना पार्थिव अस्तित्व तक भूल डूब जाती थीं आनंद के अनिर्वचनीय समुद्र में।यही नहीं सामाजिक विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण करते हुए “भूख” नामक कविता में लिखता है कि-भूख तो भूख है पेट की हो या अच्छा दिखने बड़ा बनने की नहीं है इसका कोई अंत बढ़ाती है तृप्ति तो और भूख…. विघटन की नींव डालता अविवेक नहीं होता स्वतंत्रता का अर्थ कभी मौन नहीं कर गई चट विवेक तक को भूख संवेदना तक गई सूखद समीक्षक : निर्भय कुमार कर्ण पुस्तक का नाम : समय के शिलालेख (काव्य संग्रह) लेखक : डा. दयाकृष्ण विजयवर्गीय “विजय” प्रकाशक : विजय प्रकाशन 228-बी, सिविल लाईन्स, कोटा-324001 (राजस्थान) पृष्ठ : 132 – मूल्य : 150 रुपए20

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