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थ् 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के 10 दिन के भीतर तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्राहन की अध्यक्षता में इस न्यायिक आयोग का गठन किया। थ् इस आयोग को सिर्फ यह पता लगाना था कि 6 दिसम्बर, 1992 को जो भी हुआ वह स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया थी या सुनियोजित षड्यंत्र और इसके लिए उत्तरदायी कौन-कौन है। थ् इस आयोग को एक वर्ष के भीतर, 16 मार्च 1993 तक अपनी रपट सौंपनी थी। थ् पर कुल मिलाकर 48 बार इसे विस्तार दिया गया और अपनी रपट सौंपने में न्यायमूर्ति लिब्राहन को 17 वर्ष लगे। हर बार 6 माह का कार्य विस्तार मिला। थ् यह अब तक के जांच आयोगों में सबसे लम्बे समय तक चलने वाला आयोग बन गया। थ् आयोग ने 4 वर्ष पूर्व सुनवाई का कार्य पूरा कर लिया था, यानी रपट लिखने में आयोग को 4 वर्ष लग गए। थ् यह आयोग अब तक के जांच आयोगों में सबसे महंगा साबित हुआ। इस पर कुल मिलाकर आठ करोड़ रुपया खर्च आया। अर्थात प्रति वर्ष लगभग 50 लाख। अर्थात प्रतिमाह लगभग 4 लाख। सिर्फ आयोग की मदद कर रहे कर्मचारियों के वेतन और उनकी सुविधाओं तथा चाय-बिस्कुट पर। थ् आयोग ने कुल मिलाकर 400 बैठकें कीं। थ् कुल 4 खण्डों में एक हजार पन्नों से अधिक की रपट थ् रपट में 400 पृष्ठों में उ.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह की गवाही, 200-200 पृष्ठों में श्री लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी की गवाही। थ् लिब्राहन आयोग में पूछताछ के लिए नियुक्त सरकारी वकील अनुपम गुप्ता ने 2007 में आयोग छोड़ दिया। थ् अनुपम गुप्ता ने कहा- “वे (लिब्राहन) आयोग का अध्यक्ष होने के बावजूद बहुत संकीर्ण सोच रखते थे।8
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