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नरेन्द्र सहगलवार्ताएं, समझौते और वायदे करना और बाद में मुकर जाना यह पाकिस्तान की विदेश नीति का एक जरूरी और महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसी रणनीति के अन्तर्गत पाकिस्तान अपने जन्मकाल से ही सारी दुनिया विशेषतया भारत की आंखों में धूल झोंकने में सफल हो रहा है। हमारे परंपरागत आदर्शों-सह अस्तित्व, सत्य, अहिंसादूषित पाकिस्तानी नीयत26/11 को मुम्बई में हुए भयानक आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि जब तक पाकिस्तान इस हमले के लिए जिम्मेदार आतंकी संगठनों पर सख्त कार्रवाई नहीं करता तब तक उसके साथ कोई वार्ता नहीं होगी। पाकिस्तान की ओर से इस संबंध में दिखाई जा रही ढिलाई से भारत समेत सारा संसार हैरान था। चारों ओर पाकिस्तान पर आतंकवाद को समाप्त करने का दबाव था। तो भी भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने येंकातेरिबर्ग, रूस में गत 16 जून को पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के साथ 40 मिनट तक बातचीत करके पाकिस्तान को सुधरने का एक और मौका दिया। डा. सिंह ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति से स्पष्ट कहा कि वह आतंकियों में भेद न करें। तालिबान लड़ाकुओं की तरह ही लश्करे तोएबा, अलबदर, जैशे मुहम्मद और जमात-उद-दावा को समाप्त करने के लिए सैन्य अभियान चलाया जाए। अपने तेवर और सख्त करते हुए भारत के प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के विरुद्ध जंग छेड़े हुए आतंकियों को पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल न करने दिया जाए। डा. सिंह ने यह उम्मीद भी जाहिर की कि पाकिस्तान जुलाई में इजिप्ट में होने वाले दोनों देशों के वार्तालाप से पूर्व कार्रवाई करके अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करे। भारतीय प्रधानमंत्री के इस कड़े रुख पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी तो खामोश रहे, परंतु दूसरे ही दिन पाकिस्तान के विदेश मंत्री मलिक अहमद खान ने बयान दाग दिया कि पाकिस्तान डा.मनमोहन सिंह के बयानों से सहमत नहीं है। भारत इस प्रकार की धमकियां देने से बाज आए। पाकिस्तान के विदेश मंत्री द्वारा भारत के प्रधानमंत्री को इस तरह की नसीहत देने के साथ ही पाकिस्तान ने यह घोषणा भी कर दी कि जुलाई में मिस्र में होने वाले सम्मेलन में राष्ट्रपति जरदारी नहीं जाएंगे। उनके स्थान पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी जाएंगे। स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने एक बार फिर यह साफ कर दिया कि उसे भारत द्वारा दी जाने वाली चेतावनी की कोई चिंता नहीं है।भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के शासकों से मात्र दो महीने में वह काम करने की उम्मीद कर डाली जिसे पाकिस्तान ने पिछले 62 वर्षों में नहीं किया। पाकिस्तान ने पहले पंजाब फिर जम्मू- कश्मीर और अब सारे देश में आतंक फैलाने के अपने षड्यंत्रों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। मुम्बई में हुए आतंकी हमलों के जिम्मेदार आतंकी नेता खुलेआम लाहौर और कराची की सड़कों पर घूम रहे हैं। आतंकी कमांडर हाफिज मुहम्मद सईद, जकी-उर-रहमान लखवी और जरगर शाह को पाकिस्तान के न्यायविदों ने “सबूतों के अभाव” में छोड़ दिया है। लश्करे तोएबा और जैशे मुहम्मद जैसे खतरनाक आतंकी संगठन पाकिस्तान की सरकार की नाक के नीचे अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। स्पष्ट है कि पाकिस्तान की सरकार भारत विरोधी दहशतगर्दी को अपने देश की धरती का इस्तेमाल करने कीसंयुक्त वार्ताओं का खुला उल्लंघनभारत के प्रधानमंत्री ने येंकातेरिबर्ग, रूस में पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाकर संयुक्त वार्ता के जिस टूटे सिलसिले को फिर शुरू करने का प्रयास किया उसके सकारात्मक नतीजे निकलने की आशा किसी को नहीं है। भारत ने जब भी पाकिस्तान के साथ सीमा पारीय आतंकवाद, नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकियों की घुसपैठ और भारत के अंदर पाकिस्तान प्रायोजित दहशतगर्दी का मुद्दा उठाया है, पाकिस्तान ने “कश्मीर की आजादी” का सवाल खड़ा करके भारत को ही बदनाम करने की कोशिश की है। सर्वविदित है कि न केवल डा. मनमोहन सिंह ने, बल्कि भारत के प्रत्येक प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को सुधरने का मौका दिया है, परंतु पाकिस्तान के मन में गहरे तक समाई हुई इस्लामिक विस्तारवाद की भूख और “भारत को पाकिस्तान बनाने” के मजहबी जुनून ने पाकिस्तान को सुधरने का मौका ही नहीं दिया।पिछले 62 वर्षों का इतिहास साक्षी है कि भारत ने जब भी वार्ता, समझौते और शांति की भाषा बोली है पाकिस्तान ने उसका उत्तर युद्ध और आतंक के रूप में दिया है। नेहरू-नून समझौता, नदी जल समझौता, नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम समझौता, ताशकंद और शिमला समझौता और भी न जाने कितने संयुक्त वार्तालाप पाकिस्तान की मजहबी भूख का शिकार हो गए। अगर मात्र पिछले दस वर्षों का इतिहास ही देखा जाए तो पता चलेगा कि इस छोटे से कालखंड में भी पाकिस्तान ने सात बार भारत-पाक संयुक्त वार्ताओं को ठुकरा कर अपने असली इरादों का परिचय दिया है।1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर में जाकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ संयुक्त वार्तालाप के वर्तमान सिलसिले को शुरू किया था। अमरीका समेत संसार के कई देशों ने इस वार्ता का स्वागत करते हुए आशा जताई थी कि पाकिस्तान अब अमन के रास्ते पर आएगा। परंतु इस समझौते की स्याही सूखने से पहले ही पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मुशर्रफ ने भारत पर कारगिल युद्ध थोप दिया। यही जनरल जब जबरदस्ती तख्ता पलटकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए तब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 2001 में आगरा में मुशर्रफ से वार्ता की। परन्तु मुशर्रफ ने वाजपेयी द्वारा उठाए गए पाक प्रायोजित आतंकवाद और सीमाओं पर सशस्त्र घुसपैठ के मुद्दों को अनसुना करके कश्मीर का राग अलाप दिया। वार्ता विफल हो गयी और मुशर्रफ बीच में ही उठकर पाकिस्तान चले गए। फिर 2001 में ही पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों ने पहले श्रीनगर, कश्मीर की विधानसभा और तुरंत बाद दिल्ली में संसद पर फिदायीन हमले करके यह जता दिया कि पाकिस्तान वार्ता की भाषा नहीं समझता। परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान की सेनाएं आमने-सामने आ गर्इं। प्रधानमंत्री वाजपेयी की दूरदर्शिता अथवा अमरीका के बीच में पड़ने से युद्ध टल गया। एक वर्ष के बाद फिर वार्ताओं का दौर चला। कश्मीर में नियंत्रण रेखा के चार मार्ग खोले गए। नवम्बर 2003 में सीमाओं पर संघर्ष विराम लागू हो गया। पाकिस्तान की सेना ने इस संघर्ष विराम का भी अनेक बार उल्लंघन करके कश्मीर में सशस्त्र घुसपैठिए भेजे हैं। इसी कालखंड में पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित आतंकियों ने दिल्ली, बंगलौर, अयोध्या, नागपुर, जयपुर, मुम्बईआतंकवाद की मंडीसभी जानते हैं कि पाकिस्तान ने मुम्बई पर आतंकी हमले को भी दरकिनार करने के प्रयास किए हैं। डा.मनमोहन सिंह जुलाई में मिस्र में होने वाले सम्मेलन में पाकिस्तान से एक बार फिर संयुक्त वार्तालाप करने वाले हैं। उन्हें भरोसा है कि तब तक पाकिस्तान अपनी धरती पर चल रहे सभी आतंकी अड्डों को समाप्त कर देगा। परंतु पाकिस्तान के इरादे नेक नजर नहीं आते। पाकिस्तान की सरकार पर सेना और आईएसआई का शिकंजा है। पाकिस्तान में चल रहे प्रशिक्षण शिविर वहां के सेनाधिकारियों की देखरेख में चल रहे हैं। आईएसआई की योजना और मार्गदर्शन में आतंकी संगठन मजबूत हो रहे हैं। अमरीका के अरबों डालरलिहाजा अब भारत के प्रधानमंत्री को पाकिस्तान से दो टूक कह देना चाहिए कि जब तक प्रशिक्षिण शिविर, आतंकी संगठन, सशस्त्र घुसपैठ समाप्त नहीं होती और भारत में घटित पाक प्रायोजित आतंकी हादसों के लिए जिम्मेदार आतंकियों को भारत के हवाले नहीं किया जाता तब तक पाकिस्तान से न कोई बात होगी और न ही कोई राजनीतिक संबंध रखे जाएंगे। भारत को कड़ा रुख अपनाते हुए सभी प्रकार के व्यापारिक, आवागमन, चिकित्सीय और शैक्षणिक संबंध समाप्त करने की चेतावनी देनी चाहिए। जुलाई में होने वाली बातचीत से पहले सचिव स्तरीय बैठक में पाकिस्तान को सचेत करते हुए सभी संबंध तोड़ने की तैयारी करके ही भारत के प्रधानमंत्री को मिस्र जाना चाहिए। भारत ने यदि एक बार फिर बिना किसी शर्त के पाकिस्तान के साथ वार्ता का सिलसिला शुरू कर दिया तो देश पर मंडराते विदेशी आतंकवाद के बादल और भी ज्यादा गहरा जाएंगे। द9
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