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मृदुला सिन्हासंबं#ंध शब्द के अंदर “सम” छुपा है। “सम” से मात्र बराबरी का भाव नहीं झलकता। “सम” अर्थात् सब प्रकार से एक। “सम” बराबर होने की स्थितियां पैदा करता है। दोनों के “सम” होने पर ही बंधन संभव है। समाज में कई प्रकार के संबंध बनते बिगड़ते रहते हैं। इसलिए संबंध और विच्छेद भी साथ-साथ चलते हैं।एक स्त्री और पुरुष के संबंध बनने पर परिवार और समाज भी संबंधित हो जाते हैं, क्योंकिकिसी पुरुष द्वारा पैदा किए बच्चे की परवरिश उसका कत्र्तव्य बना दिया गया होगा। उसके बाद तो अन्य अधिकार और कत्र्तव्य निर्धारित किए गए होंगे। एक स्त्री और एक पुरुष अपनी शारीरिक आवश्यकता के लिए एक साथ जुड़कर संबंध बनाते थे। उस संबंध को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अनेक लिखित-अलिखित क़ानून समय की मांग के अनुसार संशोधित होते रहे हैं। स्त्री-पुरुष के विवाह बंधन का विकास भीविवाह के बंधन और विच्छेद के सख्त नियम-उपनियम बनने के बाद भी समाज जीवन में स्त्री-पुरुष के विवाहेत्तर संबंध बनते ही रहे हैं। भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न प्रकार से बनेयदि यह संबंध है तो उसमें बंधन निहित है। और बंधन के लिए दो छोरों की आवश्यकता है। संबंधों के बीच कत्र्तव्य भी निर्धारित हैं। पर आज़ जीवन जीने की स्वतंत्रता, शहरी जीवन की आपाधापी, भागमभाग के बीचविवाह पवित्र बंधन है। इस संबंध को निभाने के लिए विभिन्न व्रत किए जाते हैं। किन्तु निजी जीवन में स्वतंत्रता के नाम पर आई स्वच्छंदता के कारण ये विद्रूपताएं दिखाई देती हैं, इसे सभ्य समाज को स्वीकार नहीं करना चाहिए। क्योंकि समाज नियम-क़ानूनों में बंध कर ही चलता है। स्वतंत्रता की रक्षा के लिए क़ानून हो, स्वच्छंदता तो अपराध है। उसकी रक्षा नहीं हो सकती। वरना पुन: समाज बर्बर हो जाएगा। बर्बरता को आमंत्रण देकर हम सुखी समाज नहीं बना सकते।सभी पुरानी बातें पुरानी नहीं होतीं। समाज तो “पुरानी नींव-नया निर्माण” के आधार पर बनता है। आधुनिकता का तकाज़ा पुरानी मान्यताओं को छिन्न-भिन्न करना नहीं है।दरअसल, 21वीं सदी को आस्था निर्माण की सदी बनाना चाहिए। क्योंकि पिछले छह दशकों में आस्थाएं तोड़ी गयी हैं। भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर मात्र अर्थव्यवस्थाएं ही टूटती-बिगड़ती नहीं हैं, अर्थ के साथ सारा सामाजिक ढांचा जुड़ा है। वैश्वीकरण के नाम पर समाज में कई विकृतियां आर्इं हैं। “लिवइसे क़ानूनी हक़ देने के पीछे सरकारी दलील है कि जिन महिलाओं के साथ इस तरह का संबंध बनाकर पुरुष छोड़ देता है उन्हें सुरक्षा देने के लिए क़ानून में संशोधन है। कहना यह है कि “लिवअपनी संस्कृति और सभ्यता की तासीर की अवहेलना कर मात्र आधुनिकता के नाम पर बने क़ानून और विकृतियों को स्वीकृति प्रदान करना ज़ल्दबाजी में उठा कदम ही माना जाएगा। आवश्यकता है ऐसे संबंधों को रोकना। मात्र धनार्जन करने से ही जीवन में सुख नहीं प्राप्त होता है। सुखी जीवन के लिए संबंधों में स्थिरता चाहिए। स्थिर संबंध यानी दो छोरों को बांधना। बंधनहीन छोर संबंध नहीं बनाते। सुख तो दे ही नहीं सकते।द16
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