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अबला कब बनेगी सबला?

by
May 4, 2009, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 May 2009 00:00:00

द डा. अनीता मोदीविचारणीय बिंदु है कि कृषि व इससे संबंधित विविध कार्यों में ग्रामीण महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी इन पर शोषण, अत्याचार व असमानता की लकीरें साफ दिखाई पड़ती हैं। सूरज की पहली किरण के साथ ही इन ग्रामीण महिलाओं की व्यस्त दिनचर्या प्रारंभ होती है जो अनवरत सूर्यास्त तक चलती रहती है। रोजमरर्#ा के घरेलू दैनिक कार्यों के सम्पादन के साथ ही इन महिलाओं के द्वारा कृषि, पशुपालन व वानिकी से संबंधित अनेक कार्य किये जाते हैं। ये ग्रामीण महिलाएं कृषि व पशुपालन कार्यों को हर कदम पर, हर डगर पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर करती हैं। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि खेती के कार्य में महिलाओं का योगदान 55 प्रतिशत से अधिक है।किन्तु विडम्बना है कि जी-तोड़ दिन-रात मेहनत करने के बावजूद भी ये ग्रामीण महिलाएं जमीन के मालिकाना हक से वंचित हैं, फसल के विक्रय से प्राप्त आय को खर्च करने संबंधी निर्णयों में उनकी सहभागिता नगण्य है, उनके दिन-रात अनवरत परिश्रम को “व्यर्थ” समझते हुए उनको समाज में दोयम दर्जा दिया जाता है। यही नहीं, पुरुष वर्ग के बराबर व समान कार्य करने के बावजूद भी ये ग्रामीण मजदूर महिलाएं “मजदूरी भेदभाव” का शिकार होती हैं। भारत सरकार द्वारा जारी की गई “ग्रामीण भारत में मजदूरी” रपट में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि स्त्री-पुरुष की मजदूरी में अन्तराल विद्यमान हैं। श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र में स्त्री व पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। ये ग्रामीण महिलाएं एक तरफ नवीन कृषि तकनीक से अनभिज्ञ हैं।यह भी एक चिन्ताजनक व विचारणीय पहलू है कि गांवों के पुरुष वर्ग द्वारा महिलाओं की इस “मेहनत की कमाई” को शराब के हवाले कर दिया जाता है, जिसका हश्र यह होता है कि बच्चे व महिलाएं पेटभर रोटी के लिए तरसते हैं, पोषक व संतुलित आहार की तो बात ही क्या? अपनी हाड़-तोड़ कमाई की यह बरबादी होते देख विवश महिलाओं का कलेजा मुंह को आता है, किन्तु उनके पास अपनी बेबशी पर आंसू बहाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। गौरतलब है कि गरीबी की सर्वाधिक मार भी महिला वर्ग को ही झेलनी पड़ती है। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 22 करोड़ 9 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। गरीब परिवार की महिलाएं पूरे परिवार को खिलाने के पश्चात् बचे-खुचे खाने में ही संतुष्टि का अनुभव करती हैं। यही वजह है कि कुपोषण व रक्ताल्पता का शिकार इन महिलाओं का स्वास्थ्य संकट में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, एन.एच.एफ.एस.-3 एवं गैर-सरकारी संगठनों की शोध रपटों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि देश की ग्रामीण महिलाओं का स्वास्थ्य देश के आम नागरिकों की तुलना में कहीं अधिक निम्नस्तरीय व निराशाजनक है। पोषण विशेषज्ञों की राय है कि ग्रामीण महिलाओं पर दोहरा कार्यबोझ होने व कठोर परिश्रम करने के कारण उनको अधिक कैलोरी की आवश्यकता होती है। इन महिलाओं को प्रतिदिन लगभग 3000 किलो कैलोरी की जरुरत है, जबकि इनको औसत रूप से 1700 से 2000 तक की कैलोरी ही प्राप्त होती है।चिन्ताजनक तथ्य यह है कि इतना कार्य करने के बावजूद भी ये ग्रामीण महिलाएं पुरुष वर्ग द्वारा बारम्बार प्रताड़ित व उत्पीड़ित की जाती हैं, घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, इनकी पिटाई तो एक सामान्य सी बात है। परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दौरान भी यह तथ्य सामने आया है कि ग्रामीण भारत में 40 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। यही नहीं, इन ग्रामीण महिलाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं व दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ज्ञातव्य है कि अभी भी 73 प्रतिशत ग्रामीण परिवार शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा से महरूम हैं। इसी तरह, पर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं का अभाव व महिला चिकित्सकों की अनुपस्थिति के कारण महिलाएं चिकित्सा व स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं जिसके कारण उनका स्वास्थ्य उत्तरोत्तर गिरता जाता है। देश में बढ़ते पेयजल संकट की मार ग्रामीण महिलाओं को सर्वाधिक झेलनी पड़ती हैं। ये महिलाएं सिर पर “जल का बोझ” उठाते हुए जल-प्रबंधन व्यवस्था का असफल प्रयास करती हैं। इसी भांति, आधी से अधिक ग्रामीण महिलाएं जंगल, वन व मैदानों से लकड़ियां आदि एकत्रित करके इसे र्इंधन के रूप में उपयोग करते हुए दमा, श्वास व अस्थमा जैसे रोगों की शिकार हो जाती हैं। खेद का विषय है कि स्वतंत्रता के छह दशक से अधिक समयावधि के पश्चात् भी “कृषि” क्षेत्र में इन ग्रामीण महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद भी समाज में ये बराबरी का दर्जा हासिल करने में नाकाम रही हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व पारिवारिक सभी स्तरों पर गांवों में पुरुषों व महिलाओं की स्थिति में भारी अन्तर विद्यमान है।ग्रामीण महिलाओं के “कृषि” में योगदान को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें परिवार, समाज व देश के विकास की “नींव” कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस “नींव” को सशक्त व मजबूत आधार प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि समाज, सरकार व गैर सरकारी संगठन ग्रामीण महिलाओं को साक्षर, स्वावलंबी व सशक्त बनाने हेतु हर संभव प्रभावी प्रयासों को शीघ्र क्रियान्वित करें।13

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