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ओम अम्बरछले दिनों एक काव्य समारोह में कविवर रामावतार शशि से भेंट हुई। विद्यार्थी जीवन में उनकी पंक्तियां सुनकर आवेगों से तरंगित हुआ था-हमको तुम क्या समझाते हो हालत हिन्दुस्तान की,हमने लम्बाई देखी है राशन की दुकान की।तथाकोई मुझको ये बतलाये इसके क्या हैं मानी,खादी के कुर्ते के नीचे रेशम की बनियानी।विभ्रामक व्यक्तित्व रखने वाले राजनेताओं के दुरंगे चरित्र पर आक्षेप करने वाली इन पंक्तियों के कठोर यथार्थ को हम अपने परिपाश्र्व में रोज देखते थे और कवि की अभिव्यक्ति के साथ बड़ी आत्मीयता महसूस करते थे। बहुत दिनों बाद देखा इस बार शशि जी को। उनके तेवर में वही तुर्शी और उनके काव्य पाठ में वैसे ही प्रभावात्मकता थी। कारगिल के शहीदों से जुड़ी उनकी एक भावप्रवण कविता की कुछ याद रही पंक्तियां उद्वृत कर रहा हूं-जब शहीद की चिता जली थी सारा गांव वहीं था,सीने पर थे घाव पीठ पर कोई घाव नहीं था।एक घाव माथे पर भी था जो अंतिम गोली थी,जिसे देखकर के शहीद की माता ये बोली थी-इसे घाव मत कहो तिलक हिमगिरि ने लगा दिया है,सोया मेरा लाल किंतु भारत को जगा दिया है।इन पंक्तियों पर विचार करता हूं तो लगता है कि कवि की भावुक सरलता प्रवंचक सत्ता के चरित्र को भुला बैठी। कहां जागा ये भारत? बस, करवट बदलकर और भी गहरी नींद में सो गया है। एक पड़ोसी सीमा पर हमले खोलकर अपनी उद्दंडता का सबूत दे रहा है और हमारा नेतृत्व उससे शांति वार्ता करके अपनी सफलता पर मुग्ध है। दूसरा हमारे तीर्थयात्रियों को बिना किसी उचित कारण के अपनी सीमा से बाहर रोकने का आदेश दे देता है, हमारे एक भू-भाग पर दावा ठोंक देता है और हम एक गाल पर चांटा खाकर दूसरा उसके सामने ले जाकर नतग्रीव खड़े हैं और तीसरा घुसपैठिए भेजकर देश का अस्थिर कर रहा है। नहीं, हमारे शहीदों का बलिदान व्यर्थ जा रहा है, यह देश तुष्टीकरण की अफीम पीकर सो रहा है। आज शशि जी की पंक्तियों को प्रणाम करते हुए उनके पाश्र्व में अपनी इस चीख को रखना चाहता हूं-कुहासा आसमां पे छा रहा है और हम चुप हैं,अंधेरा धूप को धमका रहा है और हम चुप हैं।हिकारत से कहेंगे ये कथा तारीख के पन्ने,शहीदों का लहू चिल्ला रहा है और हम चुप हैं।जिसकी ज्वाला बुझ गई वही पानी हैराष्ट्रकवि दिनकर ने कभी बड़े विक्षोभ के साथ कहा था-यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि क्षमा उसी भुजंग को शोभा देती है जिसके पास गरल हो। विषदंत से हीन विषधर के द्वारा क्षमा के वक्तव्य किसी नपुंसक के आत्मालाप की तरह हुआ करते हैं। शक्ति की महत्ता को रेखांकित करते हुए वह इसी कारण निभ्रन्ति स्वर में उद्घोषणा कर सके थे-वह अघी बाहुबल का जो अपलापी है,जिसकी ज्वाला बुझ गई वही पापी है।आज जब एक निश्चित अंतराल के बाद यह देश पुन: पुन: आतंकवादी प्रहारों से आहत होता रहता है और सत्ता में बैठे हुए स्वाभिमान शून्य व्यक्तित्व एक पिष्टपेषित वक्तव्य देकर, मृतकों के परिवार वालों की थोड़ी आर्थिक सहायता करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं और लाचार देश चुपचाप अगले विस्फोट की प्रतीक्षा करने लगता है, दिनकर जी का आक्रोश और भयावह विक्षोभ बहुत याद आता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री के बहुत करीब होते हुए भी उन्होंने “परशुराम की प्रतीक्षा” में जो कठोर चेतावनी दी थी वह आज फिर अत्यंत प्रासंगिक हो उठी है-जा कहो पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,या आग सुलगती रही प्रजा के मन में,तमस बढ़ता यदि गया धकेल प्रभा को,निर्बन्ध पंथ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,रिपु नहीं यही अन्याय हमें मारेगा,अपने ही घर में फिर स्वदेश हारेगा।लेकिन सत्तासीन, समय के सम्राट शब्द के साधनाव्रती के स्वर को सुनते कब हैं? अन्तत: “हुंकार” का उद्दाम भाव “हारे को हरिनाम” बनकर विसर्जित हुआ। क्या इस बार भी ऐसा ही होगा? कवि का सम्बोधन अरण्य-रोदन ही सिद्ध होगा?कारोबारी क्रिकेट के विष-दंशभद्रपुरुषों का खेल माना जाता रहा है क्रिकेट। शुभ्र परिधान में अपने देश के लिये खेलने वाले खिलाड़ियों के साथ पूरा राष्ट्र मन से जुड़ता रहा है। भारतवर्ष में यह खेल जुनून की हद तक लोकप्रिय हुआ और क्रिकेट के सितारे युवा पीढ़ी के आदर्श नायक हो गये। किंतु महाजनी सभ्यता के अर्थलिप्सु परिवेश में देखते-देखते क्रिकेट के परम्परागत मूल्य नष्ट हो गये और खिलाड़ी अपनी मुंह मांगी कीमत लेकर कुछ समर्थ पूंजीपतियों के गुलाम हो गये। अब उन्हें देखकर किसी अभिप्रेरक नायक का आभास नहीं होता, स्वामी के पीछे-पीछे जंजीर में बंधे चलने वाले पालतू पशु का बिम्ब उभरता है। अच्छे प्रदर्शन पर उन्हें शाबाशी मिलती है तो असफल होते ही स्वामी उन पर शब्दों के चाबुक फटकारता है, उन्हें अपमानित करता है और बिके हुए गुलाम चेहरे पर गहन अवसाद की रेखाएं लिये वे चुप रहते हैं। सबसे दु:खद पहलू इस तस्वीर का यह है कि अब वे पूरे राष्ट्र के नायक नहीं मात्र अपनी टीम के एक पेशेवर सदस्य हैं। यह देखना चित्त को भयावह विक्षोम देता है कि मुम्बई के दर्शक अपनी टीम का पक्ष लेते हुए और पंजाब की टीम के सदस्य युवराज और श्रीशांत पर अशोभन टिप्पणियां करते हुए यह भी भुला देते हैं कि ये लोग पूरी भारतीय टीम को विजय दिलाने वाले खिलाड़ी रहे हैं। क्रिकेट अशिष्टता की दुराचार संहिता के सूत्र लिख रही है। क्या अब सचिन तेंदुलकर केवल मुम्बई और सौरभ गांगुली केवल कोलकाता के माने जाएंगे? क्या कल विदेश में क्रिकेट खेलने जाने पर भारतीय टीम के ड्रेसिंग रूम में हरभजन से थप्पड़ खाने वाले श्रीशांत और अपने थप्पड़ के दंड के रूप में चार करोड़ रुपये खोने वाले हरभजन एक दूसरे के साथ सहज होकर रह पाएंगे? क्या एक प्रांत के खिलाड़ियों के प्रति दूसरे प्रांत के दर्शकों का दुव्र्यवहार प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करेगा? क्या अब पाकिस्तान तथा अन्य देशों से आये खिलाड़ी हमारे खेल प्रेम के सम्यक् पात्र बनेंगे?पहले चलना तो सीखो बहन की तरहनिर्लज्ज पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में लगी हमारे महानगरों की युवा पीढ़ी सिर्फ शरीर से ही भारतीय है, उसका मन पूरी तरह विदेशी हो चुका है। टीवी पर आते शाहरुख खान के सुप्रसिद्ध गेम शो में भाग लेने वाली तमाम युवा लड़कियां नि:संकोच भाव से अपने जीवन की सबसे बड़ी कामना व्यक्त करती हैं-शाहरुख के साथ एक शाम बिता पाना (अन्तरंग संबंधों की पीठिका बनने वाली इस शाम का सभ्यता में नाम “डेट” है।) उस समय शो देखने आये उनके मां- बाप सामने बैठे ताली बजा रहे होते हैं। जब पथ प्रदर्शकों का यह हाल है तब-नई उम्रों की खुद मुख्तारियों को कौन समझाये,कहां से बचके चलना है कहां जाना जरूरी है?(वसीम बरेलवी)कविवर सुमित्रानंदन पंत की सूक्ति है कि नारी में पुरुष को स्वस्तिक में बदलने की शक्ति है। मेरी मान्यता है कि इसका विलोम भाव भी उतना ही सच है। अपने प्रति दुव्र्यवहार की शिकायत करने वाली कुल-कन्याओं से कहना चाहता हूं-पांव पड़ते जमीं पे तुम्हारे नहीं,डोलती फिर रही हो पवन की तरह।भाइयों की कमी तुमको होगी नहीं,पहले चलना तो सीखो बहन की तरह। (रूपनारायण त्रिपाठी)दअभिव्यक्ति मुद्राएंकटते बरगद ने कहा उठा कांपती बांह,मेरा यही गुनाह था दी थी सबको छांह।-देवेन्द्र शर्मा इन्द्रतुम बहुमुखी विकास का कितना करो बखान,बिना राष्ट्रभाषा अभी गूंगा हिन्दुस्तान।-उदयभानु हंसजंगल के कानून में आये नये सुधार,खाओ सब मिल बांट के कोई करे शिकार।-विष्णु विराटमरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप,पेड़ गिरा तब हो सकी ऊंचाई की माप।-हरेराम समीपसूना है घर-द्वार अब सूना लगता गांव,बेटी संग कर दी विदा अमराई की छांव।-विनोद तिवारी1818
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