|
सब जगह खाली मगर जैसे भरा है आदमी, मुफ्लिसी की सान पर कितना खरा है आदमी।डूबना तय था कि जिसकी आंख में पानी बचे, आदमी से पूछिए कैसे तिरा है आदमी।जो अकेला है, निहत्था है, अलग हर शोर से, एक बहरे वक्त के संग मशविरा है आदमी।गुमशुदा के इश्तहारों की तरह दीवार से, एक क्या, सौ बार उखड़ा है, गिरा है आदमी।इस तरह खोये कभी जो ढूंढने से ना मिले, जिंदगी की डोर का ऐसा सिरा है आदमी।किस कदर सहमा हुआ है, क्या वजह है दोस्तों कौन-सा आतंक है, जिससे घिरा है आदमी?क्या असंगति है कि अपनी सभ्यता के नाम पर, संस्कृति के मोड़ पर आकर घिरा है आदमी।कौन किसको जान पाए इस अंधेरे दौर में, सिरफिरा यह दौर है या सिरफिरा है आदमी? शहीदों का लहू चिल्ला रहा है और हम चुप हैं17
टिप्पणियाँ