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परंपराओं का मर्म समझें-श्रीनाथ कृष्णप्पावरिष्ठ प्रचारक, रा.स्व.संघसंसार भर में भारत की प्रतिभाएं आज चमक रही हैं। वैश्वीकरण के इस कालखण्ड में बड़ी संख्या में हमारे देश के युवक नौकरी-रोजगार और अध्ययन के लिए विदेश गए। अब ऐसे युवक तेजी से भारत लौट भी रहे हैं। कारण, उन्हें रोजगार और शिक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं यहां अपने देश में अब उपलब्ध हैं। दूसरे, उनकी वापसी का प्रमुख कारण अपने मूल्यों और अपनी धरती से लगाव भी है। पहले सरकार के प्रतिबंधों के कारण समाज के हाथ बंधे हुए थे लेकिन जब मौका मिला तो इसी कथित “पराभूत” समाज ने अपनी प्रतिभा और पराक्रम का परिचय दुनिया को दिया है। किन्तु इसका एक चिंताजनक पहलू भी है। समाज का पराक्रम प्रकट तो हो रहा है, लेकिन उसकी दिशा ठीक नहीं है। किन्हीं अर्थों में वह अभारतीय हैं क्योंकि इसमें वैयक्तिक स्वार्थ और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। दूसरे, आज के प्रचलित विकास माडल के कारण सामाजिक असन्तुलन बहुत विकराल हो उठा है। यह बिल्कुल साफ है कि यह सारी व्यवस्था गरीब और आम आदमी के हित में तो कतई नहीं है, और तो और यह व्यवस्था हमारे सम्पूर्ण समाज, देश, संस्कृति, धरती और उसके पर्यावरण आदि सभी के विरुद्ध है। जिन मूल्यों से लगाव के कारण हम भारत को प्यार करते हैं, वे सब आज के वातावरण में खतरों से घिर गए हैं।देश की आज की दशा और दिशा पर सभी को मिलकर गहराई से विचार करने की जरूरत है। आखिर हम कहां जा रहे हैं? संप्रति जिस रास्ते पर देश बढ़ रहा है वह रास्ता कहीं से भी अपना नहीं है, इस पर चलकर तो सब कुछ स्वाहा हो जाएगा, न समाज बचेगा और न मूल्य, न देश बचेगा और न धरती। हम अपनी प्यारी वसुधा को अपने ही हाथों जिस तरह विकास के नाम पर उजाड़ रहे हैं, ये आज सभी के लिए ही दुखदायी और चिन्ता का कारण हो गया है। क्या अपने गांव, अपने परिवार, अपने पर्यावरण को बचाते हुए हम सुखपूर्वक जीवन यापन नहीं कर सकते? हमें फिर से अपनी जड़ों की ओर देखना ही होगा। प्रख्यात समाजशास्त्री डा. राधाकुमुद मुखर्जी ने एक स्थान पर कहा है कि हजारों वर्षों से हिन्दू समाज अनेक प्रकार के वैदेशिक आक्रमणों के बावजूद यदि आज भी अपनी विरासत बचाए हुए है तो उसके पीछे हिंदुओं की जाति व्यवस्था और परिवार संस्था का बड़ा हाथ है। इस उक्ति में वस्तुतः समाधान के सूत्र भी निहित हैं।अनेक अर्थों में जाति व्यवस्था आज अनेक विकृतियों के लिए जिम्मेदार ठहराई जाती है। संघ कार्य में हम जाति का कहीं कोई उल्लेख नहीं करते। हमारे कार्य के लिए उसका कोई महत्व भी नहीं है। किन्तु आज तो चलन हो गया है कि जाति व्यवस्था को गाली दो, इसे जल्दी से जल्दी देश से विदा करो। हमारे राजनीतिक दलों का तो ये नारा ही बन गया है। लेकिन इस पर शांत मन से विचार करने की जरूरत है। इसकी विकृतियों को दूर कर इसे नए परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। इसी में हमें विकल्प का निर्माण करना है, कैसे करना है, इस पर नीतिकारों का ध्यान जाना चाहिए।इसी प्रकार हिंदू समाज को यदि किसी कारण से दुनिया में सर्वाधिक आदर की दृष्टि से देखा जाता रहा है तो वह हमारी कुटुंब प्रणाली है, हमारी परिवार परंपरा है। ये परिवार है जिसके कारण हम खुद को आज भी हिंदू के रूप में सुरक्षित पाते हैं। जाति व्यवस्था ने भी इसे आक्रमण-काल में बचा कर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। आजअनेक बार अस्पृश्यता का मुद्दा उठाकर जाति-प्रथा की आलोचना होती है। वास्तव में ये सोचने का विषय है कि जिस प्रथा के कारण पराधीनता के घोर संकट काल का सामना हमने सफलतापूर्वक कर लिया, उसमें इस प्रकार की बुराई कैसे आ गई। इस बारे में शोध किये जाने चाहिए। इस बारे में जो प्रस्थापनाएं अब तक दी जाती रही हैं, उन पर मेरा विश्वास नहीं है। कथित बुद्धजीवियों को छोड़ दिया जाए तो आमतौर पर समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। ये वास्तव में हिंदू धर्म विरोधियों की दुर्भावना और अंग्रेजी नीतिकारों के षड्यंत्रों के दुष्परिणाम हैं, जिसे हम आज जातिगत विद्वेष के रूप में भोगने को मजबूर हैं। किसी जाति विशेष के साथ जुड़े होना इस देश में कभी भी हीन दृष्टि से नहीं देखा गया। कर्म विभाजन के प्रति वेदकाल से जो निर्देश ये समाज मानता आया है उसमें कहीं भी परस्पर कर्मों के आधार पर घृणा या अस्पृश्यता बरतने की बात नहीं रही है। इस बारे में संभ्रम ज्यादा फैलाया गया है। इसके लिए धर्मग्रंथों के मनमाने अर्थ किए गए, कराए गए। कम से कम जाति के आधार पर एक-दूसरे को श्रेष्ठ या निम्न समझने का, दुव्र्यवहार का, गाली-गलौज का वातावरण अब बंद होना चाहिए और सभी जातियों को परस्पर बैठकर समाज की उन्नति के लिए अपने-अपने योगदान के बारे में सोचना चाहिए। इस दृष्टि से समरसता वर्ष में जो पहल स्वयंसेवकों ने की, वह बहुत ही प्रशंसनीय रही है।समाज में वैयक्तिक जीवन को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए जिस अपनेपन का आधार चाहिए, प्रेम चाहिए, सुरक्षा चाहिए, परिवार और जाति ये दोनों इसकी पूर्ति करते रहे हैं। ग्राम जीवन सहज इसका आधार बिन्दु रहा है। बचपन में यदि प्रेम नहीं मिला, अनुशासन बोध नहीं आया, नाना-नानी, दादा-दादी, मां-पिता की ममता नहीं मिली तो फिर कैसी पीढ़ी का निर्माण होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। घर में क्या हम आज एक समय का भोजन माता-पिता और सभी बच्चों की उपस्थिति में करते हैं? क्या पूजा के लिए सभी एक साथ बैठते हैं? क्या समय-समय पर शुभ उत्सव आदि के उपलक्ष्य में सभी बहनों, रिश्तेदारों और मित्रों को परिवार सहित आमंत्रित करते हैं? क्या घर में आध्यात्मिक दृष्टि से गुरू परंपरा जीवित है? क्या बालक के जन्म से लेकर किशोरावस्था तक घर-परिवार-समाज के साथ उसे समरस करने के लिए संस्कार प्रक्रिया का महत्व हमने समझा और क्रियान्वित किया है? क्या प्रकृति पूजा के मूल अर्थ को हम समझ रहे हैं? जल संरक्षण, ऊर्जा संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण लोक परंपराओं के साथ हमारा तादात्म्य बना हुआ है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन्हें प्रत्येक हिंदू दंपत्ति को पूरी शांति के साथ सोचना चाहिए और यथासंभव6
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