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हरीकृष्ण अरोड़ा उर्फ हल्लो भइया का स्मरण

by
Nov 3, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Nov 2007 00:00:00

उजाले मेरी यादों के साथ रहने दो-डा. नताशा अरोड़ाएक टेली फिल्म में हल्लो भइया (फाइल चित्र)अपने हल्लो चाचा के साथ डा. नताशा अरोड़ालखनऊ‚ की वह विशिष्ट विभूति, जिसकी बुलंद आवाज ने साठ वर्ष से भी अधिक समय तक रंगमंच पर अपना जादू बिखेरा, हजारों दिलों को अपनी खास अदाकारी के सम्मोहन में बांधा, वह आवाज जिसे न केवल लखनऊ‚ वरन् भारत के नाट प्रेमीजन प्यार से “हल्लो भइया” कहते थे, सदा के लिए चुप हो गई है। वह 31 जनवरी, 2007 की भोर में श्री हरीकृष्ण अरोड़ा उर्फ “हल्लो भइया” ने हम सबसे विदा ले ली और छोड़ गए यादें, यादें, बस यादें। वह मेरे पिता स्व. गोपी कृष्ण अरोड़ा के सबसे छोटे भाई, मेरे हल्लो चाचा थे। वह हमारे परिवार के एकमात्र बुजुर्ग रह गए थे जो समस्त कुटुम्ब पर एक विशाल वट वृक्ष की तरह प्यार भरी सुरक्षा छांव बने हुए थे। हल्लो चाचा एक अद्भुत कलाकार थे, लखनऊ‚ रंगमंच के बेताज बादशाह। उनकी लम्बी अभिनय यात्रा, जिसका आरम्भ आजादी से पहले ही हो चुका था, अनेक पड़ावों, संघर्षों, समय व तकनीकी बदलावों से गुजरती हुई लगभग साठ वर्ष तक चलती रही। पुरानी पीढ़ी के वह ऐसे मंझे कलाकार थे जिन्होंने पारसी शैली और अपने “किस्सागो स्टाइल” को साथ रखते हुए आधुनिक रंगमंच की विधाओं और यंत्रों से गजब का तालमेल बैठाया था।उनके प्रसिद्ध नौटंकी नाटक “आला अफसर” की प्रस्तुतियां भारत के विभिन्न क्षेत्रीय रंगमंचों पर हुईं। इसी नाटक पर “धर्मयुग” जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में महान साहित्यकार स्व. अमृतलाल नागर ने उनके अभिनय पर लिखा था, “.. टीम में सबसे अधिक उम्र का आदमी और हर तरीके की ताल पर उसकी पकड़, वो ठुमक-ठुमक कर चलना…।” 1950 के आस पास बनी फिल्म “चोर” के संवाद नागर जी ने लिखे थे जिसमें चाचा जी ने अभिनय किया था।उनकी अभिनय यात्रा स्कूली शिक्षा के समय से ही आरम्भ हो गई थी। समय था सन् 1936 का। मेरे सबसे बड़े ताऊ‚जी श्री फूल चंद अरोड़ा (बाबा के बड़े भाई के पुत्र) आगाहस कश्मीरी के शिष्य थे व उनकी रंगून स्थित कम्पनी में काम करते थे। रंगून से लौटकर उन्होंने “अरोड़ा एन्टरटेनर्स” नामक दल बनाया। हल्लो भाई पर उनका पुत्रवत् स्नेह था। मेरे बाबा चित्रकार थे इस नाते कभी मंच सज्जा तो कभी कलाकारों को तैयार करने हेतु जाया करते। हल्लो चाचा भी साथ जाते। इस तरह कह सकते हैं कि अभिनय उन्हें विरासत में मिला। उन्होंने राजनाथ कोचर, ब्राजेन्द्र गौड़, राधाबल्लभ चतुर्वेदी आदि के साथ “नादिर शाह दुर्रानी”, “निर्दोष”, “पहली तारीख” व “दो परवाने” जैसे रेडियो नाटक किए। उन्होंने “हय वदन”, “अंधायुग”, “पांचवां सवार”, “खामोश अदालत जारी है”, “किसी एक फूल का नाम लो”, “तीन युग तीन महापुरुष” जैसे विशिष्ट नाटकों में भी अभिनय किया। प्रसिद्ध नाटकर्मी स्वदेश बंधु द्वारा स्थापित “दर्पण” संस्था से जुड़कर भी हल्लो भइया ने कई प्रस्तुतियां दीं। नई पीढ़ी के कलाकारों जैसे सबा जैदी, शोभना अग्रवाल (जगदीश), अनिल रस्तोगी, विजय श्रीवास्तव, प्रयागदीन वर्मा के साथ उनका अभिनय चलता रहा, वे सभी के चहेते हल्लो भइया थे। स्वदेश बंधु, अनिल रस्तोगी, के.सी. सोनरैक्सा, अली सरदार जाफरी, नोमान मलिक आदि के साथ टेली फिल्में भी कीं। “वसीयत”, “बीबी नातियों वाली” और “अमीर खुसरो” में दूरदर्शन प्रेमियों ने उनके अभिनय की बानगी देखी।चाचा जी को यह शेर बेहद पसंद था,जिन्दगी चंद रोजा है, काट ले,हंस के काट ले या रो के काट ले।और उन्होंने हर तरह के हालातों को हंस के ही झेला। उनका लखनऊ‚ घराने के प्रसिद्ध कत्थक गुरु पं. शम्भू महाराज से भी निकट सम्बंध रहा।हल्लो भइया कई सम्मानों से नवाजे गए जिनमें “रंगयोग” का “स्व. अमृतलाल नागर स्मृति सम्मान”, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल द्वारा प्रदत्त संस्कार भारती अभिनन्दन व ललित कला सम्मान सन् 1992 में मिला एवं उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1993 में सम्मानित किए गए। कारवां संस्था ने 1988 में “नाट रत्न” से विभूषित किया। दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर सन् 2004 में नटरंग प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित रंग संवाद के वह विशेष कलाकार अतिथि थे जिन्हें अभिनन्दित किया गया व राष्ट्रीय नाट विद्यालय की पत्रिका रंग प्रसंग में उनकी लम्बी गुफ्तगू भी छपी। पिछले दिनों मैं लखनऊ‚ में उनसे मिली। बोले, “मैं हारा नहीं हूं मिनी (मेरा घरेलू नाम)”, और एक शेर अपने ढंग से सुनाया-यारे दौरां न उलझ मुझसे,मैंने तो हर हाल में लड़ने की कसम खाई है।दो दिन बाद पुन: मुझे बुलवाया और कहा, “मैं जानता हूं मैं जा रहा हूं”। ऊ‚पर टंगी चाची की तस्वीर की ओर देखकर बोले, “सरोज मैं आ रहा हूं”। फिर कहा, “मिनी मेरे शरीर का अन्तिम संस्कार न किया जाए। उसे चिकित्सा महाविद्यालय को सौंपा जाए। शरीर से क्या मोह, शिक्षा के काम आए यही बड़ी बात है। मैंने सब कागज तैयार रखे हैं, जिन्दगी में यही अच्छा काम किया है। अंशू (पुत्र) कहीं कमजोर न पड़ जाए ध्यान रखना।” उस दिन चाचा जी ने अपनी तमाम यादें बांटते हुए मुझे एक शेर और सुनाया,उजाले मेरी यादों के साथ रहने दो,न जाने किस मोड़ पर जिन्दगी की शाम हो जाए।उदारता इतनी कि स्वयं अति सामान्य आर्थिक स्थिति वाले किन्तु नाटकों का पारिश्रमिक किसी जरुरतमंद को देने में कोई हिचक नहीं। अचानक हमारे परिवार का- नाट जगत का यह स्तम्भ ढह गया। आज बची हैं केवल यादें। इकबाल के इस शेर के साथ श्रद्धाञ्जलि है इस बेटी की,उरुजे, आदमे-खाकी से अंजुम सहमे जाते हैं,कि ये टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जाए।15

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