|
स्वतंत्रता के अमर सेनानी-हरेन्द्र प्रताप18 57 की 150वीं वर्षगांठ पूरे देश में सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर मनाई जा रही है। 1857 के संघर्ष को आजादी का संघर्ष माना जाए या “सिपाही विद्रोह”, इस पर वैचारिक धरातल पर विभाजन दिखता है। तथाकथित वामपंथी प्रगतिशील लेखक इसे वामपंथ की भारत में उदय की कल्पना के साथ जोड़ने को आतुर हैं। वामपंथियों ने योजनाबद्ध तरीके से भगत सिंह को कम्युनिस्ट घोषित करने का एक अभियान चला रखा है। अब 1857 को भी माक्र्स की उपज घोषित करने हेतु वे हाथ पैर मार रहे हैं।1857 हो या 1947, ये दोनों युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ थे। लेकिन अंग्रेजों के पहले इस देश में ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम पर व्यापार करने वाले डच भारत आये थे और डच के भी पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम पर पुर्तगालियों का इस देश में प्रवेश हुआ था। इसलिए इस ईस्ट इंडिया कम्पनी का विष-वृक्ष पुर्तगालियों के द्वारा रोपे गए बीज में से हुआ।भारत का प्रथम स्वातंत्र्य संग्रामभारत में पुर्तगाली ईस्ट इंडिया कम्पनी का व्यापार 1560 ई. में शुरू हुआ। 1556 ई. में भारत का शासक अकबर था। सोवियत लेखक ए.आई.चिचरोव ने अपनी एक किताब में स्पष्ट आरोप लगाया है कि चूंकि अकबर विदेशी इत्र एवं विदेशी कपड़ों, विशेषकर सिल्क के लिए लालायित रहता था, पुर्तगालियों ने अकबर की इसी प्रवृत्ति का फायदा उठाकर तथा बंगाल के नवाब को एक लाख रुपया घूस देकर अपने व्यापार की शुरुआत की। उनके फलते-फूलते व्यापार को देखकर पहले डच आये और फिर अंग्रेज आये। इन तीनों की कम्पनियों का नाम ईस्ट इंडिया कम्पनी ही था।भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी अकबर के कालखंड से ही शुरू होती है। महाराणा प्रताप ने अकबर के खिलाफ आजादी का संघर्ष छेड़ा था। महाराणा प्रताप ने मुस्लिम आक्रांताओं के घृणित आचरण के कारण अपने विश्वस्त लोगों को बुलाकर कहा कि तुम राजघराने एवं राजपूत महिलाओं को इन आतताइयों से बचाने के लिए उन्हें साथ लेकर राजस्थान से दूर चले जाओ।उत्तर प्रदेश, बिहार, असम के तराई क्षेत्रों में एक जाति है थारू। इस थारू जाति का इतिहास उसी कालखण्ड के राजस्थान से जुड़ा हुआ है। कहते हैं, आज भी थारू महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अपने को श्रेष्ठ मानती हैं। थारू समाज अपने उत्सवों में यह गीत गाता है कि “राणा आएगा और हमें ससम्मान वापस ले जायेगा।” चूंकि महाराणा प्रताप भारत की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे अत: ये थारू भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के जीवित एवं अधिकृत सेनानी हुए। और महाराणा प्रताप का यह युद्ध भारत का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम कहा जाना चाहिए।द्वितीय स्वातंत्र्य संग्राम1757 में पलासी युद्ध में सिराजुद्दौला को हराकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत पर अपना शासन स्थापित किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्यालय कलकता था। अपने शासन का विस्तार करने की योजना बनाकर जैसे ही उसने पश्चिम और दक्षिण दिशा में अपनी फौजें भेजनी शुरू कीं उसे संथाल, मुण्डा आदि जनजातियों से जूझना पड़ा। 1766 से 1767 तक टाटा-चाइबासा के आसपास मेदिनीपुर विद्रोह और धालभूम विद्रोह को तो इतिहासकार स्वीकार करते हैं लेकिन इन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन घोषित करने का साहस जिस प्रकार अंग्रेजों को नहीं था उसी प्रकार भारतीय इतिहास पर कब्जा जमाये वामपंथियों को भी यह आजादी का संघर्ष नहीं दिखाई पड़ता। 1772 में बिहार के संथाल परगना में पहाड़ी लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का नाद गुंजाया था। संथाल परगना के तिलका मांझी को 1785 में भागलपुर में फांसी दी गई। यानी 1757 के बाद मेदिनीपुर, धालभूम संघर्ष के अतिरिक्त अनेक संघर्ष हुए हैं और ये संघर्ष जनजातीय योद्धाओं ने किए। जनजातियों के विरुद्ध ही लार्ड कार्नवालिस ने 1793 में स्थाई भूमि बंदोबस्ती कानून लागू किया। धीरे-धीरे जंगल पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो और वनवासी जंगल पर से अपना अधिकार खो दें, इस दृष्टि से अनेक कानून बनाये गये। 1865 का जंगल कानून बनाकर अंग्रेजों ने एक महत्वपूर्ण अधिकार अपने हाथ में लिया और वह अधिकार था कि जिस क्षेत्र पर पेड़ लगे हों उसे जंगल क्षेत्र घोषित कर दिया जाए और सरकार अपने हाथ में उसका अधिकार ले ले। अंग्रेजों के खिलाफ 1766 से 1920 तक अनेक संघर्ष वनवासियों ने किए। अंग्रेजों ने इसीलिए उन पर सबसे ज्यादा प्रहार किए। पर आज उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इसलिए आजादी के संघर्ष की जब चर्चा होती है तो कुछ ही नामों की सूची बना ली जाती है। वनवासी योद्धाओं को लगभग भुला दिया जाता है।तृतीय स्वातंत्र्य संग्राम1857 स्वतंत्रता का तीसरा समर था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को मात्र राजाओं और महाराजाओं के संघर्ष या धार्मिक भावनाओं पर हो रहे कुठाराघात के खिलाफ “सिपाहियों के विद्रोह” तक की चर्चा कर हम उस स्वतंत्रता के आन्दोलन के पन्ने को बन्द कर देते हैं।3 जुलाई, 1857 को कुंवर सिंह स्वातंत्र्य संघर्ष में शामिल हुए थे। बिहार के जगदीशपुर से उनकी फौज विजयश्री प्राप्त करते हुए लखनऊ तक पहुंच गई थी। 28 मार्च, 1858 को आजमगढ़ में कर्नल जेम्स को पराजित कर जब वह जगदीशपुर लौट रहे थे तो 21 अप्रैल, 1858 को डगलस ने शिवपुर घाट पर उन्हें गोली मार दी। इतिहासकार यह मानते हैं कि गोली लगने के बाद शरीर में जहर न फैल जाए इसलिए कुंवर सिंह ने अपनी भुजा काट डाली तथा सुरंग के माध्यम से जगदीशपुर के लिए प्रस्थान किया। डगलस उनका पीछा करते हुए सुरंग के द्वारा ही पटना पहुंच गया और कुंवर सिंह जगदीशपुर पहुंच गए। पटना से आरा की दूरी लगभग 55 कि.मी. है और आरा से जगदीशपुर तथा आरा से शिवपुर घाट की दूरी को जोड़ दिया जाए तो लगभग 90 कि.मी. की एक ऐसी सुरंग बनी थी जिसमें घोड़े पर सवार होकर कुंवर सिंह आ-जा सकते थे। प्रश्न उठता है कि 1857 में चर्चित इस सुरंग को बनाने में कितना समय लगा होगा।स्पष्ट है कि बाबू कुंवर सिंह 15-20 वर्ष से लगातार अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष हेतु न केवल सामरिक तैयारी कर रहे थे, बल्कि उन्होंने आम जनता को भी गोलबंद कर लिया था। और यही कारण था कि इतना सब कुछ होते हुए भी इस देश की देशभक्त जनता ने अंग्रेजों को इसकी भनक नहीं लगने दी। 1857 के इस संघर्ष की विफलता के बाद अंग्रेजों ने उसी देशभक्त जनता पर क्रूर अत्याचार किए। मजबूरीवश शाहाबाद जिले के लोगों को अपना सब कुछ छोड़कर संथाल परगना की ओर जाना पड़ा। शाहाबाद के जिस गांव से ये गये थे उसी गांव के नाम पर संथाल परगना में इन्होंने अपना गांव बसाया। आज भी शाहाबाद और संथाल परगना के इन गांवों का रिश्ता जीवन्त है। एक विस्थापन तो देश में हुआ पर जो दूसरा विस्थापन हुआ वह बड़ा ही ह्मदय विदारक था।अंग्रेजों ने 1860 में शाहाबाद के लोगों को जबरदस्ती गिरफ्तार किया तथा पानी के जहाज में बैठाकर उन्हें दक्षिण अफ्रीका ले गए जहां उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किए। मारीशस, त्रिनिदाद, गुयाना आदि देशों में जो भोजपुरी भाषी हैं उनमें कुछ तो 1834 में गये पर ज्यादातर लोग 1860 के बाद गए हैं। ये वही भोजपुरी भाषी लोग हैं जो कुंवर सिंह के संघर्ष में साथ थे। अंग्रेजों ने उनकी उसी राष्ट्रभक्ति का बदला उनको देश से विस्थापित कर वसूल किया। इसीलिए इस देश के इतिहासकारों को इतनी तो ईमानदारी जरूर बरतनी चाहिए थी कि उन्हें भी वे स्वतंत्रता सेनानी मानें।थारू, संथाल और भोजपुरी भाषी लोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की न केवल सच्ची गवाही दे रहे हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश भी देना चाहते हैं कि देश की आजादी का संघर्ष केवल महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाये गये आन्दोलन तक ही सीमित नहीं था। इस आजादी के लिए सैकड़ों वर्षों से लाखों लोगों ने संघर्ष किया है। मतभेद हो सकते हैं लेकिन इतिहास की सच्चाइयों को भुलाना राष्ट्र का अपमान करना है। इस देश के वामपंथी इतिहासकारों ने अकबर को महान साबित करने के लिए थारू योद्धाओं को भुलाकर जो अपराध किया है, उसे यह देश कभी माफ नहीं करेगा।28
टिप्पणियाँ