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गवाक्ष

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Oct 6, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 06 Oct 2007 00:00:00

शिव ओम अम्बरअभिव्यक्ति-मुद्राएंउंगलियां थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे,राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे।उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आंखों से,मैंने खुद रोके बहुत देर हंसाया था जिसे।-डा. कुंअर बेचैनजो खूब बचाया था वो पास नहीं लेकिन,जो खूब जुटाया था अब भी है खजाने में।ये सोच के दरिया में मैं कूद गया यारो,मुझको वो बचा लेगा माहिर है बचाने में।-प्रमोद तिवारीविश्व-ग्राम की अवधारणा वाले इस काल-खण्ड में अक्सर किसी दिवस के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित और अर्चित होने के अवसर आते रहते हैं। प्राय: जनसामान्य अखबारों में इन दिवसों के विज्ञापन से अप्रभावित ही रहता है, किन्तु पिछले दिनों ऐसे ही एक दिवस से सम्बद्ध एक मोहक चित्र ने अनायास सबका ध्यान आकृष्ट कर लिया। समाचारपत्रों में चीन की एक छोटी-सी बच्ची का चित्र प्रकाशित हुआ था जो मातृ-दिवस के अवसर पर अपनी मां के चरणों को धोकर श्रद्धा प्रकट कर रही थी। पश्चिम से चला हुआ मातृ-दिवस अब शनै: शनै: सारे संसार में समुचित मान्यता प्राप्त कर रहा है। वर्तमान परिस्थिति में इसकी प्रासंगिकता दिनोंदिन बढ़ती जाएगी। भारत जैसे देश में भी अब पश्चिम की तरह परिवार का अर्थ पति, पत्नी और उनके बच्चे मात्र हैं। बूढ़े मां-बाप हाशिये पर पहुंच गए हैं और शेष सारे सम्बंध (चाचा-ताऊ-मामा-मौसा आदि) बहुत शीघ्र प्रागैतिहासिक काल के अवशेष बनने के रास्ते पर अग्रसर हैं। इस परिवेश में वर्ष में कम से कम एक दिन मां को याद कर लेने की, उसके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन की यह वैश्विक प्रथा कुछ आश्वस्ति-सी देती प्रतीत हो रही है। भारतीय सांस्कृतिक चेतना ने तो दिव्यता के प्रथम दर्शन मां के रूप में ही किये हैं। तैत्तिरीयोपनिषद् का दीक्षान्त उपदेश है-“मातृदेवो भव” और हमारे सार्वकालिक नायक श्रीराम की सुनिश्चित मान्यता है-“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।” प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक हमारे साहित्य ने पुन:-पुन: मां की आरती उतारी है और मां शब्द को हर भाषा का सर्वोत्कृष्ट शब्द माना है। भाई मुनव्वर राना की तरह न जाने कितनों ने इस भाव-सत्य की अनुभूति की होगी।जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।ध्यान से देखा जाये तो स्त्री शब्द में ही तीन सकारों के समावेश की ध्वनि है! सरलता, सह्मदयता और सहिष्णुता की त्रयी से जिसका निर्माण हुआ है वह स्त्री त्रिया के रूप में अपने सहचर को धर्म, अर्थ और काम के सोपानों पर संचरण कराते हुए उसे मोक्ष के मन्दिर के द्वार तक ले जाती है। और यही त्रिया जब मां की संज्ञा को उपलब्ध होती है, सारे शब्द उसकी व्याख्या के लिये छोटे पड़ जाते हैं। “उर्वशी” में “दिनकर” जी की सूक्ति है-“मां बनते ही त्रिया कहां से कहां पहुंच जाती है!” इसी मां को प्रणति निवेदित करते हुए हमारी सनातन साहित्यिक सांस्कृतिक संचेतना हर दिवस को मातृ-दिवस मानते हुए उद्घोष करती है-धूल-धक्कड़ हो धुआं हो धुंध हो बेशक वहां,मेरा अपना गांव फिर भी अपना गांव है,कल्पवृक्षों के घने साये मुबारक हों तुम्हें,मेरे सर पे मेरी मां की ओढ़नी की छांव है।साधुवाद, महामहिम चतुर्वेदी जीआक्सफोर्ड डिक्शनरी के नव्य संस्करण में बंगलौर शब्द को भ्रामक व्याख्या के साथ शामिल किया गया। उसे भारतवर्ष का एक ऐसा नगर बताया गया जिसमें मुख्यत: बंगलाभाषी रहते हैं और इसी भाषा के बोलने वालों के कारण उसका नाम बंगलौर पड़ा है। विदेशी व्याख्याओं के प्रति अन्ध भक्तिभाव रखने वाले हमारे अनेकानेक बुद्धिजीवी शायद कालान्तर में आक्सफोर्ड की इस व्याख्या को ही प्रामाणिक मानने लगते, किन्तु अब ऐसा संभव नहीं हो सकेगा। कर्नाटक के राज्यपाल महामहिम श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी की अनुसंधानी दृष्टि इस भयावह त्रुटि की ओर गई और उन्होंने सम्बंधित प्रकाशकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। महामहिम के इंगित की उपेक्षा संभव नहीं थी। आक्सफोर्ड के प्रकाशकों ने क्षमायाचना की और बाजार में उपलब्ध नव्य प्रतियों को तुरन्त वापस ले लिया। अति प्रतिष्ठित मानी जाने वाली आक्सफोर्ड डिक्शनरी की गलती को संकेतित करने वाले और उसे ठीक कराने वाले सजग अध्ययनशील महामहिम चतुर्वेदी जी हार्दिक सराहना और साधुवाद के पात्र हैं।हिन्दी भाषियों का आखेटअसम में उग्रवादियों के आदेश पर जगह-जगह हिन्दी भाषियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। सरकार हमेशा की तरह हार्दिक क्षोभ व्यक्त कर रही है और कड़े कदम उठाने का वादा कर रही है। सभी को इस क्षोभ की निरर्थकता और वादे के खोखलेपन का अहसास है। धीरे-धीरे सारा देश उग्रवादियों का अभ्यारण्य बनता जा रहा है और प्राय: हिन्दीभाषी ही उनके लिए अति सुलभ आखेट हैं। हमारी संवेदना पर बर्फ की परतें जमती जा रही हैं और अब तो अपने पड़ोस में होने वाले हादसे भी हमें विचलित नहीं करते, वे हमारी सकरुण सहभागिता सेवंचित रहकर मात्र अखबार की एक सुर्खी सिद्ध होते हैं-व्यस्त हैं आठों पहर तकरार में,हम परायों में नहीं परिवार में।रात का अपनी गली का हादसा,लोग पढ़ते हैं सुबह अखबार में।यदि कन्याकुमारी के पांव में कांटा गड़ने पर हिमालय टीस से नहीं भर उठता और उसे निकालने के लिए विंध्याचल सक्रिय नहीं हो जाता तो हम एक जीवन्त राष्ट्र के नागरिक नहीं मात्र एक जड़ भौगोलिक परिसीमा के निवासी हैं।26

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