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दिशादर्शन

by
Aug 7, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Aug 2007 00:00:00

निष्ठा की निष्कंप लौतरुण विजयतेज हवा, आंधी और तूफानों के थपेड़े आते हैं तो दीप की लौ निष्कंप रखना कठिन होता है। इन झोंकों में लौ जितनी अधिक विचलित होगी, उतनी ही अधिक आशंकाएं मन में पैदा होती रहेंगी कि फिर से अंधेरा न हो जाए। इसलिए कवि और संगठनकत्र्ता दीप की लौ को निष्कंप बनाए रखने की कामना करते हैं और उनके प्रयास भी इसी दिशा में केन्द्रित होते हैं। वैचारिक संगठन के साथ भी यही सत्य होता है। निष्ठा है विचार के प्रति। यही निष्ठा धर्म है-संगठन का धर्म। जिस वातावरण में भारत के हिन्दुत्व निष्ठ संगठन कार्य कर रहे हैं वह आसाधारण और अभूतपूर्व चुनौतियों से घिरा है। हिन्दुत्व निष्ठ होने का अर्थ है न केवल जिहादियों और सेकुलरों से आघात आमंत्रित करना बल्कि हिन्दू समाज के भीतर से भी मतिभ्रमित एवं मैकाले-माक्र्स के मानस पुत्रों से दारुण प्रहार झेलना। समाज के ये भीतरी प्रहार हिन्दू समाज का एक विडम्बनापूर्ण वैशिष्ट बन चला है। अगर ऐसा नहीं होता तो पूज्य डा. हेडगेवार को रा.स्व. संघ स्थापित करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। कल्पना कीजिए 1925 में उन्हें कितना विरोध, प्रतिरोध और विदेशी मन और धन से युक्त शक्तियों के तूफानों का सामना करना पड़ा होगा। फिर भी अंगद के पांव की तरह वे और उनके साथी स्वयंसेवक डटे रहे-निष्ठा की लौ निष्कंप रखते हुए।ऐसी परिस्थिति में राजनीति में हिन्दुत्व की धुरी को संभालने की बात करने वाले राजनीतिक दल के लिए समन्वय और एकजुटता बनाए रखना प्रथम अनिवार्यता है। न केवल स्वदेशी सेकुलर बल्कि विदेशी साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी मानसिकता के केन्द्र भारत में हिन्दुत्व निष्ठ शक्तियों को एक वृहद योजना के अन्तर्गत हतबल और कमजोर करना चाहते हैं। इस सम्पूर्ण भारतीय उप महाद्वीप में हिन्दुओं का क्षरण सुनिश्चित करने के लिए ईसाई शक्तियां इस्लामी जिहादियों के साथ मिलने में भी संकोच नहीं करती। स्वदेशी हित, स्वदेशी परम्पराओं एवं संस्कृति के पक्ष में बोलना इस देश में घाटे की बात बना दी गई है। हर क्षेत्र में अभारतीयता और हिन्दू विरोध को सम्मानित किया जा रहा है। कांग्रेस की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों में श्री शिवराज पाटिल और डा. कर्ण सिंह के नाम भी चर्चा में आए थे। लेकिन उन दोनों नामों का वामपंथियों ने यह कहते हुए विरोध किया कि वे हिन्दुत्व पर नरम हैं। इसका क्या अर्थ होता है? अपने धर्म के प्रति अभिमान और स्वाध्यायी वृत्ति रखने वाला व्यक्ति राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार होने का पात्र नहीं माना जा सकता?अफजल की माफी और हिन्दुओं के धर्मान्तरण को पोप के आदेशानुसार गति देने के लिए जिस प्रकार का वातावरण और जमीन बनाने की जरूरत महसूस की जाती है उसके लिए हिन्दुओं को हतबल करना, उनका मनोबल गिराना, उनकी आस्था के प्रतीकों का तिरस्कार करना, उनके हित में काम करने वालों को या उनकी परम्पराओं या दर्शन के वाहक व्यक्तियों को सार्वजनिक तौर पर छोटा दिखाना पहली वरीयता हो जाती है।वर्तमान सरकार के कार्यकाल में यह कार्य सबसे अधिक तीव्र गति से हुआ है और असंगठित हिन्दू समाज टुकड़ा-टुकड़ा प्रतिरोधक जवाबों के द्वीपों में विचर रहा है। अपना स्वार्थ, क्षुद्र अहंकार, ईष्र्या और विद्वेष भुलाकर सामने खड़े संकट को परास्त करने के लिए व्यापक हिन्दू एकजुटता का दृश्य दिखना अभी बाकी है। सवाल उठता है कि जब राजनीतिक क्षेत्र में हिन्दुत्व की बात, जितनी भी, जैसी भी, भाजपा के अलावा तो और कोई दल करता नहीं, अत: भाजपा कमजोर होती है तो कौन मजबूत होता है? वही तत्व मजबूत होते हैं जो हिन्दुत्व के प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं। इसलिए भारत के भविष्य के लिए भाजपा जैसे राजनीतिक दल को, जिसका जन्म ही प्रखर राष्ट्रीयता और भारतीय सांस्कृतिक अधिष्ठान यानी हिन्दुत्व के प्रति बिना कोई क्षमा भाव रखते हुए राजनीति को एक नूतन दिशा में मोड़ने के लिए हुआ था, अपनी निष्ठा की लौ निष्कंप बनाए रखने के लिए हर मजबूत कदम उठाने की तैयारी रखनी चाहिए। आखिरकार वैचारिक निष्ठा और सिद्धांतों के लिए राजस्थान में सिर्फ एक को छोड़कर सभी विधायकों के इस्तीफे जनसंघ ने स्वीकार कर लिए थे क्योंकि वे जमींदारी उन्मूलन के विरोध में थे। जमींदारी का उन्मूलन होना चाहिए यह जनसंघ की वैचारिक निष्ठा थी। उस समय जिस एकमात्र विधायक ने वैचारिक निष्ठा और संगठन का साथ दिया वे आज भारत के उप राष्ट्रपति हैं। इसलिए विजय पथ उनका अनुगामी होता है जो स्वयं स्वीकृत कंटकाकीर्ण पथ पर निष्ठा की शक्ति से चलते रहने का बल दिखाते हैं। ऐसे नैष्ठिक आचरण का कोई विकल्प नहीं होता। स्वामी विवेकानंद ने जिस प्रकार निर्विकल्प समाधि का अनुभव कर उस समय विश्व व्यापी हिन्दुत्व का विजय पथ रचा था जिस समय भारत गुलाम था तो आज की परिस्थिति तो उस समय की तुलना में बहुत अनुकूल और सुगम बन चुकी है। फिर हिचकिचाहट और पुनर्विचार का कोई कारण नहीं नहीं है। ईमानदारी से मन में संकल्प धारण किया हो और उसे निभाने का भी सच्चा मन हो तो ऐसा कुछ भी नहीं है जो असंभव हो। श्री रामचरित मानस में भी कहा गया है कि “जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु सन्देहू।”उद्देश्य की प्राप्ति में तनिक भी संदेह रहता ही नहीं है यदि मन में विचार के प्रति स्नेह सत्य हो।6

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