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1857 ने दिया

by
Jun 5, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jun 2007 00:00:00

धर्म के आह्वान पर एकजुटता का संदेश-डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्ताअध्यक्ष, भारतीय पुरातत्व परिषददेश आज 1857 की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है। ऐसे में हम इसे केवल प्रथम स्वातंत्र्य समर के रूप में ही याद करके उत्सव मनाएं, यह पर्याप्त नहीं होगा। हमें इसके संदेश को समझना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि क्रांति के उस सूत्र का आज के समय में क्या महत्व है, वह आज की पीढ़ी के लिए कितना आवश्यक है।सबसे पहले तो 1857 की घटनाओं पर एक विहंगम दृष्टि डालनी चाहिए ताकि हमें उसका मर्म समझ में आए। उस समय की घटनाओं को मुख्यत: तीन आयामों में देखा जा सकता है-(1) गुलामी के खिलाफ प्रबल भावना, जिसे अंग्रेजों ने “विद्रोह” कहा था। यह घटना विशेष रूप से छावनियों में घटी थी। चाहे वह मेरठ छावनी हो, झांसी या अन्यत्र। देश में जहां-जहां छावनियां थीं वहां से यह स्वर उभरा था। अंग्रेजों ने इसे “सिपॉय म्यूटिनी” कहा। इसे 1857 का आरम्भ माना जाता है। (2) इसमें हिन्दू, मुस्लिम और सिखों की सामूहिक रूप से अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठी थी। भावना यह थी कि “फिरंगी ईसाई हैं अर्थात् विधर्मी हैं और उन्होंने हम पर अपना अधिकार जमा लिया है। वे हमसे जैसा चाहे व्यवहार करते हैं।” यह भावना मुख्यत: ब्रिटिश विरोधी, ईसाइयत विरोधी थी। छावनियों में रहने वाले हिन्दू, मुस्लिम, सिख सिपाहियों ने एकजुट होकर “विधर्मी” के विरोध में स्वर उठाना शुरू किया था। इस सब घटनाक्रम में धर्म प्रधान था। यह “धर्म-युद्ध” था, क्योंकि इसका कारक-तत्व धर्म था, यह भारत के लोगों की भावनाओं को छू गया था। उस समय यह भाव प्रभावी नहीं था कि अंग्रेजों ने हमें लूट लिया, हमें गरीब बना दिया आदि। धर्म पर आंच आई तब वह क्रांति की ज्वाला फूटी थी। विधर्मी हमारा धर्म नष्ट कर रहे हैं, हमें मांसाहार और चर्बी को मुंह लगाने को कहते हैं। इसके खिलाफ आक्रोश उपजा था। हालांकि उस समय मुस्लिम हिन्दुत्व-समर्थक नहीं थे, मगर इस बिन्दु पर वे भी हिन्दुओं के साथ यह कहते हुए आए कि “हमारे भारत के धर्म अलग हैं जबकि ईसाइयत विदेशी पंथ है। भारत में हम सब मिलकर रह सकते हैं, पर उनके साथ (ईसाइयों के साथ) नहीं रह सकते।” यही आक्रोश छावनियों से निकलकर आम जनता में फैला क्योंकि जब यह धर्म-युद्ध घोषित हुआ तो जन-जन के बीच यह बढ़ता गया, लोग जुड़ते गए। धर्म की आन से समझौता नहीं करेंगे, यह भावना प्रखर हो उठी थी।उस समय जितने राजा-रजवाड़े थे, उन सबने अपने रजवाड़े को बचाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत के पास चिट्ठियां भेजी थीं। वे रजवाड़े किसी तरह संगठित नहीं थे और बस अपनी ही परवाह करते थे। अंग्रेजों से उन्होंने अलग-अलग विनती की थी कि “हमें छोड़ दीजिए”। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत इसके लिए कब तैयार थी, किसी रजवाड़े को छोड़ने का सवाल ही नहीं था। उनका राज कायम रहा। जब राजाओं ने देखा कि अंग्रेज नहीं मान रहे तो उनके खिलाफ खड़े हो गए। यानी “फिसल गए तो हर-हर गंगे”। उस समय समाज संगठित नहीं था, रजवाड़े संगठित नहीं थे और इसलिए अंग्रेज सेना ने एक-एक करके स्थान-स्थान पर क्रांति को दबा दिया। अंग्रेजों के पास बेतार की सुविधा थी, संचार का ताना-बाना था इसलिए वे देखते-देखते एक जगह क्रान्ति को कुचलकर दूसरे स्थान पर सेना एकत्र कर लेते थे। जबकि भारतीयों के पास संदेश पहुंचाने के लिए हरकारे ही थे।1857 की क्रांति में दिल्ली की प्रमुख भूमिका रही थी। लेकिन दुर्भाग्य से, इस बारे में कोई जानता ही नहीं कि दिल्ली 1857 में एक गढ़ के रूप में थी। दिल्ली में ऐसा आज एक भी स्मारक नहीं है जिस पर 1857 के शहीदों के नाम अंकित हों। रस्मी तौर पर दिल्ली या मेरठ से कोई जलसा-जुलूस भले निकाल लें, पर उससे क्या होता है।1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने अंतत: कुचल दिया जिसका मुख्य कारण था असंगठन। उच्च तकनीकी के कारण ब्रिटिश सेना सफल रही। लेकिन इस क्रांति का एक संदेश जरूर गूंजा कि धर्म के आह्वान पर भारतीयों का समेकित स्वर उठना और एकजुट होना बड़ी से बड़ी शक्ति को परास्त कर सकता है।वर्तमान संदर्भों की चर्चा करें तो आज भी संगठन का भाव विशेष रूप से प्रसारित होना चाहिए। साथ ही, धर्म का भी महत्वपूर्ण आयाम है। यानी धर्म आधारित संगठन आज भी उतना ही जरूरी है। इसको नकारा नहीं जा सकता। धर्म को नकारने वाले कम्युनिज्म का क्या हाल हुआ है, हम सब जानते हैं। कम्युनिस्ट के गढ़ एक-एक कर ध्वस्त हो रहे हैं। राष्ट्र को भौतिक विकास के पथ पर भले ही बढ़ा लिया जाए परन्तु धर्म का भाव भरे बिना इसे एकजुट नहीं किया जा सकता। यह यहां की मूल प्रवृत्ति है। धर्म आधारित संगठन की भी मर्यादा होती है। नागरिकता के अधिकार धर्म पर आधारित नहीं होने चाहिए। मगर दुर्भाग्य से यही हो रहा है। अल्पसंख्यकवाद चलाया जा रहा है। 1857 का संदेश स्पष्ट है कि अपने-अपने धर्म-पंथ को मानते हुए भी भारतवासी एकजुट हो सकते हैं। महात्मा गांधी कहते थे-“मैं चाहता हूं कि हर हिन्दू अच्छा हिन्दू हो, हर मुस्लिम एक अच्छा मुस्लिम।” इस भावना को स्वीकार करते हुए आज भी लोग एकजुट हो सकते हैं।दुर्भाग्य से, भारत में आज हिन्दू ही हिन्दू का विरोधी दिखता है। पूज्य शंकराचार्य जी को दीवाली के दिन गिरफ्तार करवाने वाली थीं जयललिता, जो हिन्दू हैं। रामसेतु को तोड़ने के षड्यंत्र में भागीदार लोग हिन्दू ही हैं। इसलिए आज भारतवासियों को 1857 का पुण्य स्मरण करते हुए उसके संदेश किंवा भाव को समझ कर उसी अनुरूप व्यवहार के लिए सिद्ध होना चाहिए। (आलोक गोस्वामी से बातचीत पर आधारित)1857 का संदेश स्पष्ट है कि अपने-अपने धर्म-पंथ को मानते हुए भी भारतवासी एकजुट हो सकते हैं। महात्मा गांधी कहते थे-“मैं चाहता हूं कि हर हिन्दू अच्छा हिन्दू हो, हर मुस्लिम एक अच्छा मुस्लिम।”प्रचण्ड जनक्रांतिसन् 1857 सदृश प्रचण्ड जन-कांति बिना किसी सिद्धान्त के घटित हो जाए क्या कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इस पर विश्वास कर सकता है? क्या पेशावर से कलकत्ता तक उठी क्रान्ति की वह प्रचण्ड लहर, बाढ़-सा विकराल रूप लेकर अपनी इस प्रचण्ड शक्ति से किसी न किसी वस्तु को डुबो देने के महा संकल्प के बिना ही प्रवाहित हो उठी थी। (वीर सावरकर की पुस्तक 1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर से साभार पृ.10)10

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