चीनस्य बुद्ध:, बुद्धस्य भारतम्-7
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चीनस्य बुद्ध:, बुद्धस्य भारतम्-7

by
Jun 5, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jun 2007 00:00:00

20 वर्षीय दौड़ मेंजिसके पास धीरज और दृढ़ता, वही जीतेगा-तरुण विजयएक युवा सैनिक को मोर्चे पर जाते समय स्टेशन पर विदा देने आई उसकी मित्रप्लेटफार्म पर रेल के डिब्बे के सामने महिला टिकट कलेक्टररक्षा तैयारियों और सैन्य क्षमता में चीन भारत से बहुत आगे होने पर भी भीतर ही भीतर हमसे क्यों डरता और कटुता रहित मित्रता के लिए लालायित रहता है? चीन की पांच यात्राओं और पिछले आठ वर्षों से चीन संबंधी अध्ययन के बाद इसका एक ही उत्तर प्रतीत होता है और वह है भारत का लोकतंत्र और हिन्दू बहुसंख्यक देश होने के नाते यहां के समाज की विचार स्वातंत्र्य की ताकत। जो अपने समाज और पद्वति को जितना दबाकर रखे उसे मुक्तता और स्वातंत्र्य से उतना ही भय होता है। चीन भारत के साथ बीस वर्षीय दौड़ की प्रतिस्पर्धा में है। इन दो दशकों में वह अपनीआर्थिक, सैन्य और राजनीतिक स्थिति को मजबूत स्थायित्व देना चाहता है और इसीलिए ये दो दशक उसे युद्ध रहित, संघर्ष रहित और तनाव रहित विकास के अवकाश हेतु चाहिए। उसे विश्वास है इन दो दशकों के बाद वह विश्व का सर्वोपरि सर्वशक्तिमान देश बनेगा। भारत को भी यही विश्वास है कि वह अपने लोकतंत्र, विचार स्वातंत्र्य, प्रतिभा मेधा और आत्म बल के आधार पर अपूर्व सैन्यशक्ति, आर्थिक विकास एवं सामाजिक राजनीतिक स्थायित्व प्राप्त कर विश्व में सिरमौर बनेगा। अब भारत और चीन, दोनों में से एक ही सफल होंगे और एक को पीछे रहना होगा। सफल वह होगा जिसके पास अपार धीरज और अपनी विचारधारा, शक्ति तथा नागरिकों में दृढ़ विश्वास होगा। जो न अरुणाचल पर झुकेगा न अक्षय चिन्ह पर। यह स्पर्धा कटुता और तात्कालिक शत्रुता के सतही पन से नहीं वीरता के धीरज से जीती जाएगी।पिछले सप्ताह काश्गर की बात छिड़ी थी । वहां सिंज्यांग प्रदेश ही एकमात्र ऐसा राज्य बचा है जिससे चीन को अलगाववाद की परेशानी है। चेंगडू से लगभग 3200 किमी0 दूर है यह स्थान। एक बारगी तो लगा था चांद पर जाने के लिए अनुमति पाना आसान होगा लेकिन रेलमार्ग से उरमुची और काश्गर जाने की सुविधा पाना कठिन। कारण भी कुछ तो व्यावहारिक ही थे। वहां -14 डिग्री से0 तापमान था। यानी हड्डियां जमा दे ऐसा। फिर रेल यात्रा थी 76 घंटे की। इतना लंबा सफर अकेले तय करना कठिन था और मेजबान मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे। क्योंकि उन्हें मेरे साथ एक दुभाषिया भेजना अनिवार्य लगता था। ऐसा दुभाषिया जो उच्च स्तरीय भी हो और 76 घंटे की रेल यात्रा, जो उन्हें बड़ी कष्टदायक लग रही थी, करने के लिए भी तैयार हो। वैसे भी सामान्य चीनी के लिए सिंज्यांग बहुत आकर्षित नहीं करता क्योंकि उसके मन में वहां की मुस्लिम बहुल, आतंकवादग्रस्त छवि है। अत: मेरे लिए व्यवस्था करने में उन्हें एक सप्ताह अतिरिक्त लग गया। मेरी योजना तो चेंगडू से बीजिंग और बीजिंग से ल्हासा तक रेल यात्रा करते हुए कैलास मानसरोवर दर्शन के उपरांत ही वापस भारत आने की थी। पर यह सुनते ही विश्वविद्यालय के अधिकारी कुछ ज्यादा परेशान से दिखे इसलिए वह पक्ष छोड़ मैंने काश्गर का आग्रह बरकरार रखा।चीन के रेल स्टेशन काफी साफ सुथरे, सुव्यवस्थित एवं चाक्षुष आनंद देने वाले थे। छोटे मोटे साधारण हवाई अड्डे जैसे। यहां केवल टिकट सहित वैध यात्री ही प्रवेश पा सकते हैं। वे पहले एक बड़े कक्ष में, जैसे हवाई अड्डे का प्रतीक्षालय होता है, प्रतीक्षा करते हैं। फिर जिसकी जो ट्रेन जिस प्लेटफार्म परआने वाली है वहां तक ले जाने के लिए एक बैटरी चालित ट्रॉली गाड़ी आती है। जिसमें ड्राइवर उनका टिकट देखकर समान सहित बिठाता है। यह ट्रॉली उन्हें उनकी रेलगाड़ी तक ले जाती है और जिस यात्री का जो डिब्बा होता है उस डिब्बे तक रुकती हुई उतारती जाती है। हर डिब्बे के बाहर एक अर्ध सैन्य वेशभूषा में टिकट कलेक्टर महिला अधिकारी खड़ी रहती है जो यात्रियों से उनका टिकट लेकर रेल गाड़ी के भीतर का प्रवास पास देते हुए उन्हें भीतर जाने देती है। प्लेटफार्म पर कुली नहीं केवल ट्रॉलियां है। परिजनों और मित्रों को छोड़ने वाली भीड़ नहीं तथा सामान्यत: दो या तीन दुकानें होती हैं जहां फल और शीतल पेय मिलते हैं।हम स्टेशन पर भीड़ और अपने सामान की अधिकता देखते हुए गाड़ी के प्रस्थान समय से एक घंटा पहले चेंगडू स्टेशन पहुंच गए थे। मेरे साथ थे अधिकारी स्तर के दुभाषिया श्री ल्यु। चेंगडू स्टेशन पर उस दिन कुछ ज्यादा ही भीड़ दिखी। यह भीड़ थी युवा सैनिकों की। लगभग एक हजार की संख्या होगी। स्टेशन का एक हिस्सा उनके भीतर प्रवेश के लिए रोक दिया गया था। वे सब बारहवीं पास करके निकले या कालेज के ताजा यौवन भरे छात्र जैसे दिख रहे थे। सबकी गाढ़ी हरी वर्दी, माओ टोपी और छाती पर लकदक चमकता बड़ा सा लाल फूल। उन्हें विदा देने माता पिता और मित्र आए हुए थे। बहुत गर्म जोशी तथा विदाई की ऊष्मा भरे स्नेह से सराबोर माहौल था। मैंने ल्यु से पूछा ये लोग कहां जा रहे हैं। उसने कहा हमारे साथ सिंज्यांग जा रहे हैं। वहां ईरान, कजाकस्तान और पाकिस्तान से सटी सीमा पर इनकी तैनाती हुई है। मैंने कहा कुछ जल्दी ही तैनाती कर दी गई लगती है। क्या इनका प्रशिक्षण पूरा हो गया है और इन्हें कितना वेतन मिलता होगा? ल्यू का जबाव था इन्हें कालेज से ही भर्ती कर लिया जाता है और क्षमा करें तरुण, चीन में इन बेसिक सैनिकों को कोई वेतन नहीं मिलता। ये मातृभूमि की सेवा के लिए फौज में भर्ती होना अपना गौरव समझते हैं। इन्हें मुश्किल से पचास डालर के समान स्तर वाला खर्चा भत्ता मिलता है। इनकी छाती पर जो लाल फूल हैं वे इस बात के द्योतक हैं कि ये सभी मातृभूमि के गौरवशाली सेवक के नाते फौजी बने हैं जो वेतन नहीं लेंगे। इनकेमाता पिता अपनी गाड़ियों पर बड़े अभिमान के साथ स्टीकर लगाते हैं कि, “हमारा बेटा फौज में है” या “हमें गर्व है, हमारा बेटा सैनिक है।” मुझे लगा यह चीन का राजनीतिक प्रचार है जो दुभाषिया मेरे दिमाग में उड़ेल रहा है। लेकिन जब भारत आकर मैंने यहां के चीन विशेषज्ञों और बीजिंग दूतावास में भारतीय राजनयिकों से पूछा तो उन्होंने कहा यह सच है। चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी में नौजवान बिना वेतन के भर्ती होते हैं-केवल देशभक्ति की भावना के कारण। हां पांच साल के बाद कोई आगे स्थाई भाव से सैनिक अधिकारी रहना चाहे तो उसे वेतन मिलता है लेकिन वह भी बड़ा साधारण होता है।रेल के डिब्बे में प्रवेश करते समय मन में कौतुहल और उत्सुकता थी। यह रोमांच अगले अंक में।22

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